देश को सिलने के लिए चाहिए एक सुई
डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा
सितंबर! हिंदी प्रेमियों के लिए
उत्सव का माहौल। पाठशालाओं, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों, स्वैच्छिक संस्थानों, बैंकों, राजभाषा विभागों आदि में चारों ओर
कोलाहल। न जाने कितनी तरह की प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। अवसर है ‘हिंदी
दिवस’। आखिर हिंदी दिवस को इतना महत्व क्यों दिया जाता है! कभी सोचा है।
14 सितंबर, 1949 को हिंदी ने भारत की राजभाषा का
पद संवैधानिक रूप से प्राप्त किया। पहली बार 14 सितंबर, 1953 को ‘हिंदी दिवस’ मनाया गया। तब
से लेकर आज तक यह एक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। भारत एक उत्सवधर्मी देश है।
हर महीने कोई न कोई त्योहार होता ही है। छोटी-छोटी उपलब्धियों को भी उत्सव के रूप
में मनाकर भारत के लोग आपस में भाईचारा कायम रखते हैं। ऐसे ही सितंबर में सभी
हिंदी प्रेमी ‘हिंदी दिवस’ मनाने के लिए एकजुट हो जाते हैं।
हिंदी दिवस क्यों मनाते हैं, इसके पीछे निहित कारण हम सब जानते ही
हैं। मैं तो बस यही कहना चाहूँगी कि इसे केवल एक औपचारिकता न समझा जाए। वैसे भी, हम दूसरे तमाम त्योहार क्यों मनाते
हैं? क्योंकि हमारे हर त्योहार के पीछे
कोई न कोई मूल्य अवश्य जुड़ा हुआ होता है। चाहे वह दीवाली हो या दशहरा, ईद हो या होली, बैसाखी हो या बड़ा दिन, ये त्योहार हमारे लिए केवल औपचारिक
नहीं हैं। इनका संबंध हमारे जीवन मूल्यों से है। 15 अगस्त, 26 जनवरी और 2 अक्तूबर की तरह 14
सितंबर भी हमारा राष्ट्रीय पर्व है। और इस पर्व के मूल में जो मूल्य निहित है वह
है ‘भारतीयता’ – ‘राष्ट्रीयता’। भारतवर्ष की भावात्मक एकता। हमारा यह देश
बहु-सांस्कृतिक और बहु-भाषिक है। हिंदी भारत की सामासिक एकता को अक्षुण्ण रखने का
एक आधार है।
भौगोलिक रूप से हमारे बीच दूरियाँ
बहुत हैं। लेकिन भावात्मक एकता के धरातल पर हम सब एक हैं। कहने का आशय है कि उत्तर
के राज्यों और दक्षिण के राज्यों के बीच भौगोलिक दूर हो सकती है और है भी। इन
भौगोलिक दूरियों के बावजूद यह पूरा देश भावात्मक रूप से एक सूत्र में जुड़ा हुआ है।
इस भावात्मक एकता को मजबूत बनाने वाला तत्व है ‘भाषा’।
हिंदी एक ऐसी भाषा है जिसने संपूर्ण
भारत को एक सूत्र में पिरोया और अंग्रेजों की दासता से भारत को मुक्त किया।
विभिन्न भाषाएँ बोलने वाला और विभिन्न प्रांतों में बँटा हुआ भारत एक राष्ट्र बना
और हिंदी इसकी राजभाषा बनी। उल्लेखनीय है कि भाषा के अभाव में न ही मनुष्य का
अस्तित्व होता है और न ही देश का। इस संदर्भ में थोमस डेविड का कथन ध्यान खींचता
है। उनका कहना है कि कोई भी देश राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र नहीं कहला सकता।
भाषा महज आदान-प्रदान या अभिव्यक्ति
का साधन नहीं है अपितु वह मनुष्य की अस्मिता है। हिंदी एक ऐसी भाषा है जो एक साथ
अनेक भूमिकाएँ निभा सकती है और निभा भी रही है। अर्थात जनभाषा, संपर्क भाषा, राजभाषा, राष्ट्रभाषा, शिक्षा की माध्यम भाषा, प्रौद्योगिकी की भाषा, बाजार-दोस्त भाषा, मीडिया भाषा आदि। साहित्यिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों
में हिंदी की भूमिका निर्विवाद है। महात्मा गांधी ने हिंदी की इस ताकत को पहचाना
और ‘स्वभाषा’ को स्वराज्य के लिए अनिवार्य घोषित किया। उनकी यह मान्यता थी कि
हिंदुस्तान की आम भाषा अंग्रेजी नहीं, हिंदी
ही हो सकती है। क्योंकि अलग-अलग भाषा-भाषी भी हिंदी में आसानी से बातचीत कर सकते
हैं। अपने भावों को अभिव्यक्त कर सकते हैं।
भाषा एक संवेदनशील वस्तु है। जरा-सी
गलती हो जाए,
तो वह तोड़ने वाली शक्ति बन सकती है।
आप जानते ही हैं,
भाषा के नाम पर आपस में झगड़े होने से
देश किस तरह टुकड़ों में बँट जाते हैं। इसीलिए कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि भाषा के
नाम पर राज्य बनना भाषा की नकारात्मक भूमिका है। किंतु इसके विपरीत भाषा की एक
सकारात्मक भूमिका भी है। वह है जोड़ने की ताकत। हम सबको नकारात्मकता को छोड़कर इसी
सकारात्मक तत्व को ग्रहण करना होगा। यह उचित भी है। अतः कहा जा सकता है कि ‘हिंदी
दिवस’ भाषा के संबंध में सकारात्मक सोच के प्रति अपने आपको समर्पित करने का दिन
है।
14 सितंबर, 1949 को जब भारतीय संविधान के
निर्माताओं ने हिंदी को ‘भारत संघ की राजभाषा’ बनाया, तो वे इसे केवल ‘राजकाज’ की भाषा
नहीं बना रहे थे,
बल्कि भावात्मक एकता की भाषा बना रहे
थे। इसीलिए उन्होंने दो और विशेष प्रावधान रखे। एक प्रावधान यह रखा कि अलग-अलग
प्रांत अपनी-अपनी राजभाषाएँ रखने के लिए स्वतंत्र हैं। दूसरे, इन अलग-अलग राजभाषाओं को भावात्मक
एकता की दृष्टि से जोड़ने के लिए अनुच्छेद 351 का प्रावधान किया गया। यह कहा गया कि
हिंदी का विकास इस तरह से हो कि वह सामासिक संस्कृति (मिश्रित संस्कृति) का
प्रतिबिंब बने। अतः हम सबको यह समझना जरूरी है कि हिंदी केवल राजभाषा नहीं है, बल्कि अलग-अलग भाषा और बोलियाँ बोलने
वाले इस महान देश के लोगों को आपस में जोड़ने वाली एक सुई है। यहाँ मुझे तेलुगु
कवयित्री एन. अरुणा की एक कविता याद आ रही है –
इंसानों को जोड़कर सी लेना चाहती हूँ
फटे भूखंडों पर
पैबंद लगाना चाहती हूँ
रफ़ू करना चाहती हूँ
चीथड़ों में फिरने वाले लोगों के लिए
हर चबूतरे पर
सिलाई मशीन बनना चाहती हूँ
असल में यह सुई
मेरी माँ की है विरासत
आत्मीयताओं के टुकड़ों से मिली
कंथा है हमारा घर
सीने का मतलब ही है जोड़ना
सीने का मतलब ही होता है बनाए रखना
माँ अपनी नजरों से बाँधती थी
हम सबको एक ही सूत्र में
सुई की नोक चुभाकर
होती थी कशीदाकारी भलाई के ही लिए
नस्ल, देश और भाषाओं में विभक्त
इस दुनिया को
कमरे के बीचों-बीच ढेर लगाकर
प्रेम के धागे से सी लेना चाहती हूँ।
(एन. अरुणा, मौन भी बोलता है)
सुई की तरह ही हिंदी भाषा किसी और
भाषा की पहचान के लिए खतरा पैदा नहीं कर सकती। बल्कि यह उन सबको आपस में जोड़ती है।
क्या आप बता सकते हैं कि घड़ी, गाड़ी, टीवी, कंप्यूटर, मोबाइल, उपग्रह आदि चीजों को कैसे बनाया जाता
है? जी हाँ, टुकड़ों में। टुकड़ों को असेम्बल करके
जोड़ा जाता है। तभी उत्पाद तैयार होकर हमारे सामने आएगा। कहने का आशय है कि अलग-अलग
टुकड़ों को असेम्बल करते हुए किसी भी उपकरण का निर्माण किया जाता है। अगर इन टुकड़ों
को अलग-अलग ही रहने देंगे तो क्या उपकरण बनेगा! नहीं। इसी प्रकार राष्ट्र के
निर्माण में वह जो प्राण तत्व है, आत्मा
है जो दिखाई नहीं देती, वह
है हमारी संपर्क भाषा। इस संपर्क भाषा के द्वारा ही सारी भाषाएँ जुड़कर ‘भारतीय
चिंतन की भाषा’ का निर्माण करती हैं। इसी भाषा को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया
गया है। अतः हम सब मिलकर यह संकल्प लें कि असेम्बल करने वाले इस तत्व को कभी भी
खत्म नहीं होने देंगे। हिंदी भाषा की सीमेंटिंग पावर को पहचानकर उसके साथ
जुड़ेंगे।
हिंदी के वैश्विक विस्तार हेतु
विचारणीय बिंदुओं के संबंध में आज सोशल मीडिया के माध्यम से काफी कुछ कहा जा रहा
है। वहाँ 'वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ (हिंदी तथा
भारतीय भाषाओं के प्रयोग व प्रसार का मंच) एक ऐसा सक्रिय मंच है जिसके माध्यम से
आम जनता हिंदी भाषा के संबंध में अपने विचार व्यक्त कर पा रही है। हिंदी दिवस के
हवाले से यहाँ विभिन्न लोगों द्वारा सुझाए गए कुछ बिंदु पाठकों के विचारार्थ
प्रस्तुत हैं –
• अनेक कंप्यूटर-साधित सॉफ्टवेयर बनाए जाएँ जिससे हिंदी का
प्रचलन और भी आसान हो सके।
• विभिन्न संगठनों द्वारा विकसित भाषा-उपकरण न सिर्फ सरकारी
दफ्तरों तक सीमित हों अपितु उन्हें जन-मानस के लिए सुलभ कराया जाए।
• हिंदी सिर्फ एक सरकारी भाषा बनकर न रह जाए अपितु लोग उसे
सहर्ष स्वीकारें। हिंदीतर भाषियों को इस प्रकार प्रेरित करना चाहिए कि वे हिंदी को
सहर्ष ही अपने आप स्वीकारें।
• इंडिया हटाओ ‘भारत’ बनाओ।
• भारत सरकार के सभी कार्यालयों, मंत्रालयों, विभागों आदि का कामकाज प्रथम राजभाषा
हिंदी में नोट शीट से लेकर सभी विधेयक तक बिना विलंब प्रारंभ कर दिया जाय।
• न्याय के क्षेत्र में सर्वोच्च न्यायालय तक अपील तथा बहस की
सुविधा हिंदी में भी उपलब्ध करा दी जाए।
• सभी कक्षाओं में शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाओं को बिना
विलंब बनाने का समय आ गया है।
• देश में देवनागरी लिपि के लिए अंग्रेजी भाषा की लिपि का
उपयोग तेज़ी से बढ़ाया जा रहा है। यह हिंदी की लिपि देवनागरी के अस्तित्व पर संकट
पैदा कर रहा है। इसे हतोत्साहित करना चाहिए।
अंततः इतना ही कि अब समय आ गया है कि
हिंदी को उसका सही सम्मानपूर्ण वैश्विक स्थान प्रदान कराने के लिए सभी भारतवासियों
को नवीनतम भाषा प्रौद्योगिकी से सुसज्जित होकर भाषाभिमान का परिचय देना
चाहिए।
सह संपादक ‘स्रवंति’
एसोसिएट प्रोफेसर
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा-मद्रास
टी. नगर, चेन्नै – 600017
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