दर्द से जकड़ा है देश का
चौड़ा मुँह: जयंत महापात्र
डॉ. ऋषभदेव शर्मा
जयंत
महापात्र (22
अक्टूबर, 1928 - 27
अगस्त, 2023) भारतीय
अंग्रेजी साहित्य के सर्वाधिक चर्चित हस्ताक्षरों में सम्मिलित हैं। उनकी पहचान
कविता के एक ऐसे प्रशांत स्वर के रूप में है जिसमें सदा भारतीयता अनुगुंजित होती
रहती है। उनकी दृष्टि में, मानव
मन को सर्वाधिक प्रभावित करने वाली शक्ति कविता है,
इसीलिए
वे चाहते हैं कि कवि को मानव जीवन की परिस्थितियों पर दूसरी तमाम चीजों से अधिक
ध्यान केंद्रित करना चाहिए। उन्होंने अपने काव्य में ऐसा ही किया है और इसीलिए वे
सही अर्थों में मनुष्यता के कवि है। उनकी कविता में प्रेम है तो प्रेम से मोहभंग
भी है। वे वर्तमान काल के एकाकीपन और उससे जुड़े भय तथा यातना को अपनी कविता में
वाणी प्रदान करने वाले समर्थ, तथा
सही अर्थों में समकालीन, कवि
रहे। जीवनराग विविध रूपों में उनकी कविता में फूट पड़ता दिखाई देता है - और जीवन
से जुड़े भय तथा भ्रम भी, चाहे
वे बुढ़ापे से संबंधित हों या मृत्यु से, भूख
से संबंधित हों या आतंक से। उन्होंने सुनहरे अतीत के गीत गाए हैं,
लेकिन
उसके व्यामोह में वे नहीं फँसते। बल्कि अतीत की स्मृतियाँ वर्तमान की व्याख्या
करने में उनकी सहायता करती हैं और भविष्य के स्वप्न की प्रेरणा भी बनती हैं।
उड़ीसा की मिट्टी में पले-पुसे इस महान कवि ने अपनी रचनाओं में स्थानीयता के रंगों
को भी खूब उकेरा है - सुंदर भी और विद्रूप भी।
जयंत
महापात्र के निकट काव्यरचना परिवेश के वज़न के दबाव को स्वीकार करने का,
सहनीय
बनाने का, एक यत्न है - इस
तरह कि वह पोशाक जैसा हल्का हो जाए। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उससे उत्पन्न
होने वाली पीड़ा समाप्त हो जाती हो। नहीं,
वह
तो ज्यों की त्यों रहती है, हर
शाम मंदिर की घंटियों की तरह जागती है और रचनाकार की हड्डियों पर अपना वज़न लाद
देती है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि कवि न तो उस स्त्री की उपेक्षा कर सकता है जो
घुटनों को छाती से लगाए लुटी-पिटी सी बैठी है और न ही उस हवा की आवाज सुनने से
इनकार कर सकता है जो माँ की बाँहों में मरती बच्ची की चीख को उठाए फिर रही है। यह
पीड़ा आकाश तक फैली है - धरती फट गई है, उसके
हर टुकड़े से उड़ चिड़िया दूर चली गई है, और
बारिश का तो कहीं अता-पता ही नहीं। ऐसे में जीवन को चारों ओर से घेरता हुआ अनंत भय
नाई की दुकान के समानांतर आइनों में प्रतिबिंबित होता नित्य बढ़ता चला जाता है,
सुबह
प्रकाशमान न होकर ताप भरे कूड़े-करकटों वाली भर रह जाती है और सूरज के तले केवल
धुआँ-धुआँ बचा रहता है। परिणामस्वरूप व्यर्थताबोध आम आदमी की तरह कवि को भी डसने
लगता है। दीवारों पर छिपकलियाँ हँसती हैं धीरे-धीरे और नम धरती पर कुकुरमुत्ते
उगते हैं, जगने पर न रात का
बोध होता है न दिन का, लगता
है जीवन झूठा है और इस झूठ में समय बीत रहा है। कवि ने इस निरर्थकता और व्यर्थता
को गहराई से पकड़ा है और उससे जुड़ी खीझ और ऊब के मनोभावों को सटीक अभिव्यक्ति
प्रदान की है।
जयंत
महापात्र ने अपनी कविताओं में भूख और बदहाली के जो चित्र उकेरे हैं,
संभवतः
उनकी प्रेरणा उन्हें उड़ीसा की जनजातियों की जीवनस्थितियों से मिली होगी। इसीलिए
गोल चक्कर काटते नर्तकों की परिधि पर नृत्य के आवेग के चरम क्षण में कवि ने बीते
युगों के क्षण, धरती की शक्ति,
पेड़ों
की छाया और स्फटिक सबको टूटते देखा है- भुखमरी की शक्तिहीन खामोशी के समक्ष । भूख
के साथ ही रात और आतंक के भी अनेकविध चित्रांकन जयंत महापात्र की कविता में मिलते
हैं जो इतिहासबोध और समकालीनताबोध की संधिरेखा पर अवस्थित हैं :
रात
आ रही है
केवल
समुद्र की मरणांतक शांति
जिसमें
एक नाव डूब गई
शहर
की अंधी गली ने
बचपन
के पेट को चबा लिया
और
युवक की आँतों को छलनी कर दिया
माँस
के खिलाफ भिंची मुट्ठी सा
फूट
पड़ता है जीने का स्वाद
यहाँ
कोई अंत नहीं
हृदय
की निःशब्द चीखों का,
केवल
पवित्र जल्लाद तनकर खड़ा है
इतिहास
को हड्डियों की गहराई में काटते हुए।
अपने
बचपन से लेकर देश और मनुष्यता के इतिहास तक का मंथन करके कवि ने यह निष्कर्ष पाया
है कि :
हमारे
जाये हर एक बच्चे के भीतर
अंधकार
का एक टुकड़ा है
जो
उसका पीछा करता है
जहाँ
भी जाए, दिन-रात।
अंधकार
का यह टुकड़ा सर्वव्यापी है। बाहर भी है और भीतर भी। इसीलिए इससे बचने की खातिर
खिड़की बंद करने से कोई लाभ नहीं होता क्योंकि कमरे में भी रात है। रात कमरे में
ही नहीं, व्यक्ति के भीतर
भी है जिसके अँधेरे में उसे बरसों गुम रहना पड़ता है - अपना रास्ता ढूँढ़ निकालने
से पहले।
अँधेरा
परिवेश में भी है और देश में भी। पर कोशिश करने पर भी रास्ता इसलिए नहीं मिलता कि
हम अंधकार से लड़ने के लिए अंधकार का ही सहारा लेते रहते हैं। धरती की परछाइयों के
आगे आकाश का रंग शर्मसार होता है, क्योंकि
हम इतनी-सी बात नहीं समझ पाते कि “मानव का वैर खुद हमसे कैसे हिफाजत करेगा हमारी?”
परिणाम
स्पष्ट है कि पृथ्वी-ग्रह हिंसा और असुरक्षा से घिरा हुआ है। आज हर आदमी की आत्मा
एक-दूसरे की हत्या करने के कारण भारी है। इस युद्ध और आतंकवाद से भरी हुई दुनिया
में बुद्ध और ईसा के बाद सर्वाधिक प्रासंगिक यदि कुछ है,
तो
वह है गांधी की अहिंसा का दर्शन। जयंत महापात्र ने अपनी कविताओं में महात्मा गांधी
को कई तरह से याद किया है, पुकारा
है :
ईसा
के इतने सालों बाद
तुम
रो पड़े तो क्या तुमने रुदन को पुकारा?
तुम
सभी चीजों की एकता को छूते हो
दिन
का लालित्य आता और जाता है
ताकि
तुम्हारे शरीर से आसानी से जिंदगी बहे
साथ
में खून भी जो कि हमारी नियति को भविष्यवाणी देता है
ताकि
हम यह समझें कि
यह
देश तुम्हारा कितना साथ देता है!
महात्मा
गांधी और उनके स्वप्न का स्वराज्य इसलिए भी कवि को बार-बार याद आता है कि पिछली
पौन शताब्दी में भारत में प्रतिदिन महात्मा गांधी की हत्या हुई है और उनके स्वप्न
के साथ बलात्कार हुआ है। लोकतंत्र की विफलता को लक्षित करते हुए कवि एक साधारण
जागरूक नागरिक के रूप में स्वयं को भी इस सबके लिए उत्तरदायी मानते हैं :
छोटी
बच्ची का हाथ अंधकार से बना है
मैं
इसे कैसे थामूँ?
सड़क
की बत्तियाँ कटे हुए सिर की तरह लटक रही हैं।
खून
हमारे बीच के उस डरावने दरवाजे को खोलता है
दर्द
से जकड़ा है देश का चौड़ा मुँह
और
शरीर काँटों की सेज पर
कराह
रहा है,
इस
नन्हीं बच्ची के पास बचा है बस बलात्कार किया हुआ शरीर
ताकि
मैं उसके पास पहुँचूँ,
मेरे
अपराध का बोझ
मुझे
रोक नहीं पाता उसे बाँहों में भरने से।”
इतने
पर भी कवि को तब कुछ सांत्वना मिलती है जब इस कीचड़ में से,
आत्माओं
की एकत्र अस्थियों में से, कमल
के ऐसे फूल के खिलने का संकेत मिलता है जो आँसू जैसा पवित्र है। इस फूल की
पंखुड़ियों में से शताब्दियों के अंधकार का खून बह रहा है,
तथापि
संतोष का विषय है कि कब्र के बाहर रोशनी की चोंच खुलती है और पड़ोसी के घर में
बच्चा रोने लगता है तो भविष्य के इन शुभ संकेतों के बीच जागरण की संभावनाएँ
रूपायित होती दिखाई देती हैं।
अंधकार
में बजती टेलीग्राफ की कुंजियों की ठकठकाहट में जीवन का मर्म खोजने वाले भारतीय
अंग्रेज़ी कवि जयंत महापात्र अब हमारे बीच नहीं रहे। लेकिन कीर्तिशेष और कृतिशेष
कालजयी रचनाकार के रूप में वे सदा यह कहते हुए हमारी चेतना को झकझोरकर जगाते
रहेंगे कि :
तुम्हारी
पाई आज़ादी के हाथ में फंदा है।
यह
कीमती भ्रम है।
भारत
के चेहरे पर भुलक्कड़ परछाई के रंग,
ऊपर
तारों में लटके कौओं का शोर,
रूप
खुद की परछाई में अदृश्य हो जाता है
और
सूरज की खोखली छाया बहती जाती है गंगा में!
000
डॉ.
ऋषभदेव शर्मा
हिंदी
परामर्शी,
दूरस्थ
शिक्षा निदेशालय,
मौलाना
आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी,
हैदराबाद
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