अनिता मंडा
बचपन-मन झुलसा रही, अलगावों की आँच।
कोरे कागज़ पर लिखा, पाए क्या हम बाँच।।
घटनाओं का अब कहो, लिखता कौन बयान।
गूँगी हुई ज़बान तो, बहरे हैं सब कान।।
सम्बन्धों की देहरी, दिखती लहूलुहान।
घुटी-घुटी सी साँस को, मिले न रोशनदान।।
पहरेदारी साँच पर, झूठ को लगे पंख।
दमे भरी हर साँस है, कौन बजाए शंख।।
मन-जंगल में खिल गए, जब यादों के फूल।
अनजानी सी सब डगर, ख़ुद को जाएँ भूल।।
वादों के परचम तले, मची हुई है भीड़।
खाली चोंचें भागती, ढूँढ़ रही हैं नीड़।।
अनिता मंडा
दिल्ली
बहुत सुंदर!
जवाब देंहटाएंआज के दौर से
जवाब देंहटाएंमेल खाती सहज सरल रचना
बहुत बहुत बधाई शुभकामनाएं।
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंसुन्दर दोहे अनिता जी, बधाई 💐
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर दोहे। बधाई। सुदर्शन रत्नाकर
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