शनिवार, 11 सितंबर 2021

कविता

 



औरत होना कोई गुनाह नहीं है

रचना श्रीवास्तव

उम्मीद मैंने भी की

पर तोड़ दी गयी

कभी थामा गया

तो कभी छोड़ दी गयी

फिर भी मरते मेरे अरमान नहीं है

औरत होना कोई गुनाह नहीं है

नोचे पंख तुमने

फिर भी उड़ती हूँ

ज़ुल्मों से तेरी

अब मैं कहाँ डरती हूँ

रोके मुझे ऐसा कोई आसमान नहीं है

औरत होना कोई गुनाह नहीं है

हर रास्ते पर

साथ चल सकती हूँ

जो करते हो तुम

वह मैं भी  कर सकती हूँ

मेरे सपनों को क्यों, कहीं पनाह नहीं है

औरत होना कोई गुनाह नहीं है

कब तक

भेद भाव सहूँगी मैं

ज़ुबान होते भी

कब तक चुप रहूँगी मैं

हाशिये पर रहना मुझे बर्दास्त नहीं है

औरत होना कोई गुनाह नहीं है

आवाज मैं देती हूँ

तुम साथ आओ

रोक रखें हैं जो कदम

उसे आगे बढ़ाओ

जानती हूँ मैं, राह अपनी आसान नहीं है

औरत होना कोई गुनाह नहीं है




रचना श्रीवास्तव

केलिफोर्निया

यू.एस. ए.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

मई-जून 2025, अंक 59-60(संयुक्तांक)

  शब्द-सृष्टि मई-जून 2025, अंक  59 -60(संयुक्तांक)   व्याकरण विमर्श – क्रिया - बोलना/बुलाना/बुलवाना – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र कविता – 1 नार...