शनिवार, 11 सितंबर 2021

औपन्यासिक जीवनी

 



काल के कपाल पर हस्ताक्षर : हरिशंकर परसाई

(भाग-2 )

राजेन्द्र चन्द्रकान्त राय

दो

रहटगाँव के प्रायमरी स्कूल के हेडमास्टर झूमकलाल जी के रिश्तेदार थे। वे भी परसाई लिखते थे। उनके वहाँ होने से झूमकलाल जी को हरि के पढ़ने के लिये उपयुक्त स्कूल लगा। वहाँ कक्षा सातवीं तक की कक्षाएँ थीं। मिडिल स्कूल में सातवीं तक की कक्षाएँ ही होतीं। उसके बाद हाई स्कूल जाना पड़ता। हेड मास्टर साहब के अलावा उस स्कूल में छह शिक्षक और थे। हर कक्षा के लिये एक। पर एक शिक्षक तबादले में चले गये थे, तो वह जगह खाली पड़ी थी। उनकी जगह कोई आया था। एकाध शिक्षक तो हर समय हेडमास्टर साहब के कमरे में ही लिखा-पढ़ी में लगे रहते। शिक्षकों की कमी के कारण दो-एक कक्षाएँ खाली पड़ी रहतीं। छोटी क़क्षाओं के लड़कों को पाठ की नकल करने का काम दे दिया जाता। बड़ी कक्षा होती, तो कक्षा नायक बना दिये गये लड़के को पढ़ाने और कक्षा सम्हालने के काम पर लगा दिया जाता। वह जरा होशियार विद्यार्थी हुआ करता, तो पढ़ाता कम, रोब ज्यादा झाड़ता। गड़बड़ करने वाले लड़कों के नाम तक्ष्ते पर लिख देता। जब गुरुजी आते, तो उन लड़कों को अपनी सफाई में कुछ कहने का मौका दिये बगैर ही, उन्हें खड़ा करते और संटी से सज़ा देते।

हरि कक्षा पाँच में पहुँच गये थे। ज्यादातर शिक्षकों को पढ़ाने-लिखाने के काम से ज्यादा लेना-देना था। वे तो बस नौकरी करते थे। स्कूल उनके लिये समय काटने, अपनी कुठाओं का शमन करने और वेतन प्राप्त करने की जगह के अलावा और कुछ था। हरि के शिक्षक प्रार्थना होने के बाद जब कक्षा में पधारते, तो अपने साथ एक थैला भी लेकर आते। आकर कुर्सी पर बैठते। हाजिरी वगैरह लेते और फिर पूरी कक्षा पर नज़रें घुमाते। फिर किसी लड़के पर अपनी निगाह स्थिर करके, कहते- ..., तू...हाँ, तू... खड़ा हो जा...

वह डरा-डरा सा, किसी खिलौने की मानिंद धीरे-धीरे उठ कर खड़ा हो जाता। फिर गुरुजी दूसरे लड़के की तलाश करते और उसे भी खड़ा का देते। दोनों को अपने पास बुलाते- इधर जाओ रे दोनों लड़को...

वे घबराये बदन और थरथराये पैरों से उनके पास जाते।

- ऐसां करो रे तुम दोनों, जरा स्कूल के पीछे वाले जंगल में चले जाओ और कुछ सीताफल तोड़ कर तो ले आओ... कच्चे सीताफल ले आना... जिनकी आँखें खुल गयी हों, उन्हें ही लाना... और तीन-चार पतली-पतली डालियाँ भी तोड़ लाना... और सुनो..., थैला पूरा भरा हो... खाली हो...समझे...!

- जी गुरुजी...

दोनों लड़के इस आज्ञा को सुन कर खुश हो जाते। इससे उन्हें कक्षा से घंटा भर गायब रहने का अवसर मिल जाता और गुरुजी के प्रिय पात्र कहलाने का गौरव भी। उन दो लड़कों में से एक लड़का, अक्सर हरि हुआ करते। वे लंबे और तगड़े थे, इसलिये उन्हें जंगल भेजने में कोई डर था। सीताफल तोड़ने के साथ-साथ किसी मुसीबत के पड़ने पर वे अपनी और दूसरे लड़के की भी रक्षा कर सकते थे।

जी गुरुजीकह कर, हरि अपने साथी लड़के के साथ जंगल की तरफ चल देते। जंगल पास में ही था। वहाँ सीताफल के पेड़ों की कमी थी। वे फलों से लदे हुए थे। यों भी सीताफल के पेड़ ज्यादा ऊंचे नहीं होते। फल लग जाने पर तो उनकी शाखाएँ लटक कर नीचे की ओर झूलने लगती हैं। हरि एक-एक डाल को पकड़ कर, उनमें लगे हुए सीताफलों की जांच करते। जिनकी आँखें खुल गयी होतीं, बस उन्हीं को तोड़ते। दूसरा लड़का टूटे हुए फलों को थैले में रखता जाता। जब थैला भर जाता, तो हरि दो-तीन पतली डालें भी तोड़ कर रख लेते।

हरि ने अपने साथी से कहा- अब सीताफल तो गुरुजी खायेंगे... और इन डालों से बनी संटी खायेंगे, लड़के...

- सीताफल की संटी बहुत जोर से लगती है, हरि...

- इसीलिये तो गुरुजी मँगवाते हैं...

- क्या उन्हें जरा सी भी दया नहीं आती...?

- वे दया को अपने बच्चों के लिये घर पर ही छोड़ आते होंगे... अब ऐसा करो हमने बड़े-बड़े चार सीताफल अलग से तोड़े हैं... ये देखो... तो संटी खाने से पहले, इन्हें खाने का मजा ले लेते हैं...

- हाँ, जे ठीक है...

  हरि और उस लड़के ने एक पेड़ की छाया में बैठ कर सीताफल खाये।

          खाते-खाते उस लड़के ने सवाल किया- इनका नाम सीताफल क्यों है...?

- जब रामजी को वनवास जाना पड़ा था, तब सीताजी इसे खाया करती थीं...

- अच्छा...तब तो कोई रामफल भी होगा...

- हाँ, रामफल भी होता है...

- अरे, रामफल भी होता है...! पर तुझे कैसे पता...?

- मैं रामायण पढ़ता हूँ... घर में सबको पढ़ कर सुनाता हूँ और चौपाईयों के अर्थ भी बताता हूँ...

- अरे तू रामायण पढ़ लेता है...?

- हाँ, उसमें क्या कठिनाई है...?

- इसल में उसकी भाषा ही जरा अलग है , गाँवों वाली...

          हरि हँसे - उसे अवधी भाषा कहते हैं... अवध में वही बोली जाती है... जैसे इधर बुंदेली बोली जाती है...

- तुझे अवधी भाषा आती है...?

- हाँ, रामायण पढ़ने के कारण ही तो आती है...

- सुना ना...!

- सुनेगा...?

- हाँ।

- अच्छा, एक चौपाई सुनाता हूँ

मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयउ लै बिप्र समाजा।

करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी।

यह उस समय की चौपाई है, जब मुनि विश्वामित्र जी राक्षसों से साधु-संतों ंके आश्रमों और यज्ञों की रक्षा कराने के लिये राम जी को लेने के लिये, राजा दशरथ जी के पास पहुंचे थे। समझे...!

- अच्छा... इसका अर्थ भी तो बताओ...

- इसका अर्थ है, अयोध्या के राजा दशरथ जी ने जब मुनि का अपनी नगरी में आना सुना, तब वे अनेक ब्राह्मणों को अपने साथ में लेकर, उनसे मिलने के लिये गए और दण्डवत् प्रणाम करके मुनि का सम्मान किया। फिर उन्हें लाकर अपने आसन पर बैठाया।

- अरे वाह, तुझे तो सब आता है हरि... एक और चौपाई सुना न्...!

- एक और...? अच्छा सुन

चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा।

बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिबर हृदयँ हरष अति पावा।

          इसका अर्थ हुआ कि राजा दशरथ जी ने उनके चरणों को धोकर, उनकी बहुत पूजा की और कहा- मेरे समान धन्य आज दूसरा कोई नहीं है। फिर उन्हें अनेक प्रकार के भोजन करवाए। ऐसा बढ़ियां भोजन करके उन श्रेष्ठ मुनि को अपार आनंद मिला।

- तू तो बहुत होशियार है हरि, मुझे गणित के सवाल करना सिखा देगा, क्या...?

- हाँ, सिखा दूँगा... पर अब स्कूल चलें, गुरुजी रस्ता देख रहे होंगे...

- हाँ, चलते हैं... देख गणित सिखा देना...!

- हाँ, कहा कि सिखा दूँगा...तो सिखा दूँगा...

स्कूल पहुँच कर उन दोनों ने पहले अपने हाथ-मुंह धोये। वे सीताफल तोड़ कर तो ला सकते थे, पर खुद खा नहीं सकते थे। इससे स्कूल का अनुशासन टूटता था। और अनुशासन का टूटना गुरुजी को सख़्त नापसंद था। हरि ने कक्षा के दरवाज़े पर आकर आज्ञा माँगी - गुरुजी, हम अंदर सकते हैं...?

गुरुजी एन्हें देख कर परम प्रसन्नता से सराबोर हो गये, हंस कर कहा- आओ-आओ वीरो...! क्या सौंपा गया कार्य पूरा कर लाये हो...?

- जी, गुरुजी...

          हरि के साथ वाले लड़के ने भरा हुआ थैला उन्हें दिखाया।

- अरे वाह, बड़े होशियार बच्चे हो...! शाबास...! हम आशीर्वाद देते हैं कि पहले नंबर पर पास होगे...!

          लड़के ने गुरुजी को थैला पकड़ाया। हरि ने शाखाएँ मेज पर रखीं।

- जाओ, अपनी जगह पर बैठो बच्चो...

गुरुजी ने थैले से सीताफल निकाले। उन्हें पक जाने के लिये, लकड़ी की आलमारी में सजाकर रख दिया। फिर एक-दो दिन पहले जो फल पकने के लिये आलमारी में रखे गये थे, उनमें से दो-तीन निकाल कर उन्होंने मेज पर रख लिये। बच्चों से कहा- तुम लोग ऐसा करो, कि 6 से 10 तक का पहाड़ा याद करके पाटी पर लिखो... हम सबकी पाटी को जाचेंगे...

लड़कों ने आज्ञा का पालन किया। लिखने में जुटे। गुरुजी ने मेज वाले फलों में से एक फल उठाया। दाहिने हाथ की चार अंगुलियों से उसे आहिस्ता से तोड़ा। एक चौकोर टुकड़ा हाथ में आया। उसके अंदर गूदेदार बीजों की श्वेत कतारें प्रकट हुईं। कतारों को देख कर गुरुजी का चेहरा अलौकिक प्रसन्नता से भर गया। उन्होंने उस टुकड़े को मुंह में रखा। दातों ने अपना योगदान किया। गूदे का एक हिस्सा जीभ पर आया। उसे खाने के लिये उन्होंने अपना मुंह धीमी गति से चलाया। जीभ ने स्वाद लिया। दातों की मदद से बीजों को निकाला। गूदा उदरस्थ हुआ और काले बीजों को गुरुजी ने अपने हाथ की हथेली पर उगला और उन्हें हाजिरी रजिस्टर पर रख दिया।

हरि को लगा कि विद्या पर जूठन पड़ना, विद्या का अपमान करना है। अम्मां ने यही सिखाया था। पर गुरुजी को ऐसा क्यों नहीं लगा...? शायद उनकी अम्मां ने ऐसा सिखाया होगा... या सिखाना भूल गयी होंगी। उनके मन में आया कि वे जाकर इस बारे में गुरुजी को आगाह कर दें, तो हरि ने अपने किताबों वाले थैले से एक रद्दी कागज निकाला और गुरुजी के पास जाकर बोले- गुरुजी बीजों को इस पर रखिये...

गुरुजी ने सीताफल से निगाह हटा कर हरि को देखा- हाँ-हाँ, जे ठीक है... शाबास..., बड़ा होशियार बच्चा है...

जब गुरुजी दोनों-तीनों सीताफल खा चुके, तब बाहर जाकर हाथ धो आये। आलमारी में रखे एक पुराने कपड़े से हाथ पोंछे। फिर इत्मीनान से अपनी कुर्सी पर आसन लगा कर बैठ गये। अब उन्होंने सीताफल की शाखाएँ उठायीं। उन्हें नीचे से ऊपर तक और घुमा-घुमा कर सब ओर से देखा-परखा। फिर एक चाकू ऐसे निकाला, मानो वह चाकू नहीं, अगरबत्ती हो। पूरे आदरभाव से। चाकू से उसकी गांठें छांटीं। ऐसे, जैसे वे गठानें हों, कोई पूजा विधि हो। जब उसे तराशने का कार्य संपन्न हो गया, तो वह शाखा, शाखा रही, संटी बन गयी। अब आवश्यकता थी उसका प्रयोग कर, गुणवत्ता की परख करने की, सो वे कुर्सी से उठे। बायां हाथ कमर पर रखा। कक्षा के बच्चों के बीच टहलना और उन्हें इस तरह देखना शुरु किया, जैसे पुलिसवाला चोरों को देखता है।

फिर एकाएक एक बच्चे की पीठ पर अपनी संटी को चला कर बोले- अरे जरा साफ-सुथरा लिख रे... घसीटा मार...

संटी खाकर वह बच्चा अकड़ कर रह गया। उसने आँखें मींच लीं। उसे संटी पड़ने की आशंका थी। वह तो अपना काम करने में तल्लीन था, इसलिये चोट ज्यादा जोर से लगी। आंसू झिरप आये। वह कसमसा कर रह गया। पीठ जलने लगी।

गुरुजी ने संटी को आँखों के सामने लाकर देखा। संतुष्ट हुए। उसने ठीक काम किया था। वह कारगर थी।

वे अपनी कुर्सी पर जाकर बैठे, संटी को बड़े प्यार से मेज पर रखा। दोनों हाथ सिर के पीछे चैंथी पर ले गये। सिर उस पर टिकाया और परम् आध्यात्मिक इत्मीनान से अपनी आँखें मूंद लीं। वे निद्रा में चले गये। उनका मुंह खुल गया। उसमें से खर्राटों का जुलूस निकल पड़ा। सांसों के आरोह-अवरोह के साथ उनकी गद्रन आगेपीछे आने-जाने लगी।

बच्चों को अपने गुरुजी की इस नियमित दिनचर्या की आदत थी। वे पहले से जानते थे, कि उनके गुरुजी कब क्या करेंगे...? बच्चों ने पहले उन्हें कनखियों से उन्हें देखा, फिर पूरा सिर उठाकर देखा। फुसफुसा कर आपस में बातें करना शुरु की। एक आंख गुरुजी पर रखी और एक अपने दोस्तों पर। तनाव का बोझ उतार फेंका। थोड़ा मुस्कुराये। दबी-दबी सी बदमाशियां भी कीं। आतंक से मुक्ति का अहसास पाया। चैन और स्वतंत्रता की साँस ली।

वे जान गये कि अब गुरुजी एक घंटे के लिये विश्राम अवस्था में चले गये हैं, तो उन्होंने लिखना बंद कर दिया और आपस में बातें करने लगे। चुहल होने लगी। हंसने का मौसम बन गया। बचपन खिलने लगा। कागज की नावें और जहाज बनने और उड़ने लगे।

प्रायमरी पास करने के बाद आगे की पढ़ायी के लिये झूमकलाल जी ने हरि को अपनी एक बहन बटेश्वरी के पास भेज दिया। उनका बेटा कुंजीलाल पुलिस महकमे में सिपाही के साधारण से पद पर था। आर्थिक तंगी बनी रहती थी। झूमकलाल जी उनकी स्थिति को समझते थे और कभी किसी बहाने से, तो कभी किसी और ही बहाने से उनकी मदद करते रहते थे।

बटेश्वरी बुआ पूरी आत्मीयता और दबंगयी के साथ उस बड़े परिवार की देखभाल करती थीं। सब तरह की विपदाओं से निबटने का बटेश्वरी बुआ के पास एक जबरदस्त मंत्र था- कोई चिंता नईं। उनमें अपार जीवन-शक्ति थी।

घर पर जब खाना बनने लगता और रसोईघर में चीजें होतीं, तो उनकी बहु उनसे कहती- बाई, दाल है तरकारी। आज का बनायें...?

बुआ कहतीं- चल, कोई चिंता नईं...

फिर राह-मोहल्ले में निकलतीं और जिसके घर के छप्पर पर उन्हें सब्जी की चढ़ी हुई बेलें दिख जाती, वहाँ जाकर, उस घर की हमउम्र मालकिन से कहतीं- अरे कौशल्या, तेरी तोरई तो बड़ी अच्छी गयी है। ज़रा दो ठइयां तो मुझे तोड़ के दे...

पर किसी और के तोड़ कर देने का इंतज़ार करतीं, खुद तोड़ लेतीं। उन्हें घर पर लाकर अपनी बहु से कहतीं- ले बना डाल... और सुन, ज़रा पानी जादा डाल देना... थोड़ी सी मिरची भी तेज कर देना...आज को काम चल जाहै... कल की कल देखी जाहै...

हरि यहाँ-वहाँ से भटक कर उनके पास जा पहुँचते तो उन्हें हलाकान देख कर बुआ कहतीं- चल, कोई चिंता नहीं, पहले कुछ खा ले...

उनका यह वाक्य हरि के मन में बस गया था। शक्ति का स्रोत बन गया था। जब भी वे किसी विपत्ति में पड़ते, तो उससे घबराने की बजाय, उनके अंदर से बुआ की यही कथन दनदनाता हुआ आता और बाजू में खड़ा हो जाता, चल, कोई चिंता नहीं।

हरि को जिस स्कूल में पढ़ने के लिये भेजा गया था, वह एंग्लो-वर्नाकुलर मिडिल स्कूल था। उसका संचालन डिस्ट्रिक्ट काउंसिल करती थी। डिस्ट्रिक्ट काउंसिल के चुनाव में कांग्रेस के प्रतिनिधि जीत कर गये थे, इसलिये स्कूल पर भी कांग्रेस और गांधी जी का प्रभाव पहुँच चुका था। कुछ शिक्षक गांधी-टोपी लगा कर पढ़ाने आया करते थे, जबकि गांधी-टोपी लगाना अंग्रेजों की नज़र में अपराध माना जाता था। पर वही गांधी-टोपी कांग्रेस के लिये गौरव बन चुकी थी। वह अंग्रेजों को चिढ़ाती थी। उकसाती थी। वे उसे उतरवाने के लिये जोर-जबरदस्ती करते थे। पुलिसवाले रास्ते चलते लोगों को अपने डंडे से इस बात के लिये पीटते थे, कि उन्होंने अपने सिर पर गांधी-टोपी क्यों लगायी हुई है। लोग पिट जाते, पर अपने सिरों से गांधी-टोपी को उतरने देते। दोनों हाथों से कस कर उसे पकड़े रहते। पुलिसवाले उसे खींचते-तानते। वह फट जाती। चिथी-चिथी हो जाती। आधी पुलिसवालों के हाथ में पहुँच जाती और आधी और कभी-कभी तो चौथाई टोपी ही, पहनने वाले के सिर पर बची रह जाती। वह उसी टुकड़े को अपने सिर पर, दोनों हाथों से चिमटाये रखता और वंदे मातरम् का नारा लगाता रहता। पुलिसवाले थक जाते और आखिरी लात जमा कर हाँफते-कसमसाते आगे बढ़ जाते।

कुछ साल बाद में, जब प्रदेश में कांग्रेस का मंत्रीमंडल भी बन गया, तब तो टिमरनी के हाई स्कूल के भी बहुत से शिक्षक गांधी-टोपी पहनने लगे थे। हरि ने उसी मिडिल स्कूल में शिक्षा पायी। पाँचवीं कक्षा में जब हरि पहुँच गये, तो देश-दुनिया की बहुत सी बातों को समझने लगे थे। उन्होंने गांधी-टोपी और कांग्रेस के प्रति आदर करना वहीं से सीखा।

उन दिनों गाँव-गांच में कांग्रेस कमेटियां बनायी जा रही थीं। गाँव के सबसे जाने-माने लोग उसके सदस्य बन रहे थे। हरि के स्कूल के ही एक शिक्षक कांग्रेस कमेटी के सचिव बनाये गये के। वे स्कूल में देश-प्रेम की बातें बताते हैं और शाम को कांग्रेस का काम करते हैं।

हरि भी अपने दोस्तों के साथ उनके पास पहुंचे। वे हरि और हरि के साथ आये लड़कों को आया हुआ देख कर बहुत खुश हुए।

          आह्लाद के साथ कहा- बच्चो, जयहिंद...

          लड़कों ने समवेत स्वर में जोर से कहते- जयहिंद...!

          उन्होंने पूछा- कैसे आये हो बच्चो...?

          - हम कांग्रेस के वालंटियर बनेंगे...!

- वालंटियर बनोगे...? क्या वालंटियर बनने का मतलब समझते हो...?

हरि ने सकपका कर कहा - नहीं...तो गुरुजी...

वालंटियर क्या होता है, उसका काम क्या होता है, यह सब हरि और हरि के दोस्तों को पता था, पर वहाँ उनके गुरुजी थे। और गुरुजी कभी भी कोई ग़लत रास्ता नहीं दिखा सकते, यह विश्वास मन में भरा हुआ था। सदियों से। बच्चों के ही नहीं, माता-पिता के मनों में भी ऐसा ही विश्वास होता है। विश्वास ही नहीं, अंध-विश्वास होता है।

- अच्छा हम बताते हैं कि वालंटियर का क्या मतलब होता है...

- जी गुरुजी...

- इसके लिये प्रतिदिन शाम का और छुट्टियों के दिन का समय देना होगा...

- देंगे, गुरुजी।

- पर पढ़ायी में जरा सा भी हर्जा नहीं होना चाहिये...

- नहीं होने देंगे, गुरुजी।

- अच्छा शपथ लो, हम सदा सत्य बोलेंगे...

- हम सदा सत्य बोलेंगे...

- हम यथासंभव खादी के वस्त्र पहनेंगे।

- हम यथासंभव खादी के वस्त्र पहनेंगे।

- हम किसी का दिल नहीं दुखायेंगे।

- हम किसी का दिल नहीं दुखायेंगे।

- निर्धनों की सहायता करेंगे।

- निर्धनों की सहायता करेंगे।

- सभी भारतवासियों से प्रेम करेंगे।

- सभी भारतवासियों से प्रेम करेंगे।

- सभी धर्मों के लोग हमारे भाई हैं।

- सभी धर्मों के लोग हमारे भाई हैं।

- तिरंगे झंडे की शान बनाये रखेंगे।

- तिरंगे झंडे की शान बनाये रखेंगे।

- हमारा भारतवर्ष स्वतंत्र हो...!

- हमारा भारतवर्ष स्वतंत्र हो...!

- शाबाश बच्चो, लो आज से तुम लोग कांग्रेस के वालंटियर हुए। घर जाकर अपने माता-पिता से अवश्य ही बताना कि तुम कांग्रेस के वालंटियर बन गये हो।

- जी, बतायेंगे।

- वे मना करें तो क्या करोगे...?

- तब भी वालंटियर रहेंगे...

- नहीं। माता-पिता की आज्ञा का पालन करना तुम्हारा प्रथम कर्तव्य है। पर देश हित के लिये काम करना उससे भी बड़ा कर्तव्य है, इसलिये उन्हें बताओगे, मानें तो उन्हें मनाओगे, देश के प्रति अपने कर्तव्य के बारे में उन्हें समझाओगे और जब वे आज्ञा दे दें, तभी वालंटियर का काम करने यहाँ पर आओगे...

- जी, गुरुजी। पर यदि तब भी उन्होंने आज्ञा दी तो....?

- तो...? तो फिर अपनी आत्मा से प्रश्न करना कि ऐसे में तुम्हारे लिये क्या उचित है...? कौन सा पथ सही हे...!

- आत्मा...! आत्मा माने गुरुजी...?

- आत्मा माने अपना विवेक... अपनी आँखें बंद करके अपने आप से प्रश्न करना... तुम्हारे अंदर ही उसका जो उत्तर उत्पन्न हो, वही सही उत्तर होगा...

- जी, गुरुजी।

अगली सुबह प्रभात फेरी में हरि और मनोहर हाजिर थे। हाफ पेंट, कमीज, टोपी और कपड़े के सफेद जूतों में। उस दिन करीब चौदह लड़के और कांग्रेस कमेटी के दो सदस्य, जिनमें गुरुजी भी शामिल थे, कांग्रेस कमेटी के दफ्तर के सामने सुबह छह बजे से कुछ पहले ही पहुँच चुके थे। टिमरनी के जगन्नाथराव गोपालराव, जिन्हें नानासाहब गद्रे कहा जाता था, का मकान ही कांग्रेस का दफ्तर बन गया था। वही टिमरनी के सबसे बड़े नेता थे।

उनके अलावा रामलाल दुबे, अमृतलाल जैन, रामदयाल ब्राह्मण, गणेश विश्नोई, ओंकार प्रसाद ब्राह्मण, चम्पालाल गुरुआ, काशीनाथ बिल्लौरे, भीकाजी, रामलाल दुबे, प्यारेलाल अग्रवाल, लक्ष्मणराव मराठा, केशवराव मराठा, कमलाप्रसाद शर्मा, शिवनंदन तिवारी, श्यामलाल ब्राह्मण, धन्नालाल गर्ग, हीरालाल, बाबूलाल शर्मा, धनश्याम, ओंकार प्रसाद, धन्नालाल गरुआ, रामगोपाल ब्राह्मण, गणेशप्रसाद विश्नोई, और रामेश्वर प्रसाद सोलंकी भी कांग्रेस के नेता थे और कांग्रेस के आंदोलनों में उन्होंने जेल यात्राएं की थीं।

सबसे आगे वाले लड़के हाथों में तिरंगा झंडा था। वह अपना सीना ताने और गर्दन सीधी किये हुए, गर्व से सामने देख रहा था। हरि के मन में इच्छा पैदा हुई कि झंडा उनके हाथ में होना चाहिये। पर इसके लिये सबसे पहले आना होगा।  उन्होंने अगले दिन सबसे पहले आने का, मन ही मन निश्चय कर लिया। निश्चय कर लेने पर हरि के लिये कोई भी काम असंभव नहीं रहता था।

कांग्रेस के सदस्य लड़कों की पंक्ति के बाजू में खड़े थे। एक इस तरफ और दूसरे उस तरफ।

गुरुजी ने कहा- प्यारे बच्चो! देश के नौनिहालो! प्रभात फेरी के कुछ नियम हैं। उन्हें जान लो और उनका पालन करो। दो की पंक्ति में चलना है। अपने आगे वाले जोड़े से दो हाथ पीछे रहना है। पंक्ति को तब तक नहीं तोड़ना है, जब तक प्रभात फेरी पूरी हो जाये। मुट्ठी बांध कर, सीना तान कर और सामने देख कर चलना है। प्रभाती पहले हम गायेंगे। आप लोगों को उसी लय में सामूहिक रूप से उसे दोहराना है। समझ गये बच्चो...?

- जी...

- तो बोलो भारत माता की...!

- जै...

- महात्मा गांधी की...!

- जै...

- भारत की स्वतंत्रता की...!

- जै...

- अब प्रभात फेरी का यह दल प्रस्थान करेगा। पूरे ग्राम की फेरी लगायेगा...

- जी...

          गुरुजी ने गीत गाना शुरु किया-

हर एक तार साँस का बजाए चल, बजाए चल....

हजारों आदमी का दल, हजारों औरतों का दल...

बच्चों ने दोहराया-

हर एक तार साँस का बजाए चल, बजाए चल....

हजारों आदमी का दल, हजारों औरतों का दल...

          गुरुजी ने आगे की पंक्ति गायी-

हजारों बालकों का दल, तड़प-तड़प के है विकल,

नवीन जोश जिंन्दगी, जगाए चल, जगाए चल...

हर एक तार साँस का बजाए चल, बजाए चल....

बच्चों ने दोहराया -

हजारों बालकों का दल, तड़प-तड़प के है विकल,

नवीन जोश जिंन्दगी, जगाए चल, जगाए चल...

हर एक तार साँस का बजाए चल, बजाए चल....

दो बार गाने और दोहराने के बाद बच्चों ने लय और तान को पकड़ लिया। मुखड़े की पंक्तियां भी याद कर लीं।

सभी का तन गुलाम है, सभी का मन गुलाम है

सभी की मति गुलाम है, सभी की गति गुलाम है,

गुलामियों के चिह्न को, मिटाए चल, मिटाए चल....

हर एक तार साँस का बजाए चल, बजाए चल....

नई उमंग से उभर, नए विचार से विचर,

उथल-पुथल के काम कर, डर, डर, डर, डर,

जमीन-आसमान को हिलाए चल, हिलाए चल...

हर एक तार साँस का बजाए चल, बजाए चल....

गगन में बिजलियाँ चलें, पवन में बिजलियाँ चलें,

लहर में बिजलियाँ चलें, डगर में बिजलियाँ चलें,

अजेय आत्मा का बल, दिखाए चल, दिखाए चल...

हर एक तार साँस का बजाए चल, बजाए चल....

 

अशक्त की भुजाओं में, गरीब की गुहाओं में,

विपत्ति-आपदाओं में, स्वदेश की दिशाओं में,

दहाड़ते लहु का रव, गुंजाए चल, गुंजाए चल...

हर एक तार साँस का बजाए चल, बजाए चल....

 

विरोध को, विवाद को, अनीति को, प्रमाद को,

घने-घिरे विषाद को, विषाक्त न्याय नाद को,

स्वतंत्र इंकलाब से, हिलाये चल, हिलाये चल...

हर एक तार साँस का बजाए चल, बजाए चल....

दल जिस गली से गुजरा, उस गली के घरों के दरवाज़े चौंक कर खुले। घरों के लोग बाहर निकले। तिरंगे झंडे को देखा। बच्चों को देखा। गुरुजी को देखा। गीत को सुना। चकित हुए। उन घरों के बच्चों के दिलों में हौस पैदा हुई कि हम भी प्रभात फेरी में जायेंगे। उन्होंने माता-पिता के चेहरों की तरफ उम्मीद भरी निगाहों से देखा। प्रभत फेरी में गुरुजी की उपस्थिति ने उनके माता-पिता को भरोसा दिलाया। माता-पिता मुस्कुराये। बच्चे जानते थे कि वे मुस्कुराये तो मतलब हुआ कि वे राजी हुए।

देश का काम आगे बढ़ा।

 

अगले दिन प्रभात फेरी में बीस बच्चे थे।

झंडा हरि के हाथ में था।

उनका सीना निकला हुआ था।

गर्दन खिंची हुई थी।

निगाह सामने थी।

हरि के अन्य लड़कों की तुलना में ज्यादा समझदार होने से, कांग्रेस के सचिव अध्यापक ने उन्हें कांग्रेस का सहायक सचिव बना दिया।

उस मिडिल स्कूल में भी किसिम-किसिम के अध्यापक थे। छड़ी वाले भी और गै़र-छड़ी वाले भी। गै़र-छड़ी वाले शिक्षकों को पाना लड़कों के लिये भाग्य की बात होती थी। वे हैरत में भी पड़े रहते थे, क्योंकि बिना छड़ी के भी कोई शिक्षक हो सकता है, यह उनकी कल्पना में था। शिक्षक और छड़ी जुड़वा की तरह होते थे।

हरि की कक्षा में पढ़ाने वाले एक छड़ीदार शिक्षक की जगह पर, जो दूसरे शिक्षक आये, वे बिना छड़ी के ही आये थे। कक्षा के लड़कों ने उन्हें नहीं पहचाना। वे छड़ी विहीन तो थे ही, उनका मुखड़ा भी डरावना था। सौम्य था। वे मुस्कुरा भी रहे थे। उन्हें लगा कि वे किसी लड़के के पिता होंगे। पर वे लड़कों की समझ पर एक और बम फोड़ते हुए, अपनी मधुर मुस्कान के साथ बोल रहे थे, प्यारे बच्चो, हम तुम्हारे नये शिक्षक हैं...

वे गोखले गुरुजी कहलाते थे। शांत और सरल। गुस्सा होना जानते थे। जिन बातों पर गुस्सा होना चाहिये, उन पर भी गुस्सा नहीं होते थे। हर बात पर मुस्कुराना उनका स्वभाव था। बच्चे तो उन्हें पाकर निहाल थे। अपने घरों और गै़र-स्कूली दोस्तों के बीच उनकी चर्चा करते थे। वे सब अपनेगोखले गुरुजीका पहाड़ा सा पढ़ते रहते।हमारे गोखले गुरुजीने कहा है कि...हमारे गोखले गुरुजीने यह समझाया है कि...‘हमारे गोखले गुरुजीने सिखाया है कि...

सीता बहन तो इस बात को लेकर, अक्सर ही, हरि को चिढ़ाया करती थीं, कहतीं, हरि, आम की चटनी के बारे में तुम्हारे गोखले गुरुजीने क्या कहा है...

हरि दस साल के हो चुके थे और व्यंग्योक्तियों तथा वक्रोक्तियों की चाशनी में डूबे हुए वाक्य-विन्यासों के घरेलु संस्करणों के ज्ञान से भी वाकिफ हो रहे थे। वे बहन को तुर्की--तुर्की जवाब देते- हमारे गोखले गुरुजी ने कहा है कि बहन के हाथ की बनी चटनी, खट्टी होने पर भी, मीठी ही लगती है..

हरि गोखले गुरुजी के प्रेम में पड़ गये थे। सभी अपने विद्यार्थी जीवन में, अच्छे अध्यापकों के प्रेम में पड़ते ही हैं। खासतौर पर स्कूली दिनों में। अध्यापक उनके आराध्य हो जाते हैं। प्रिय हो जाते हैं। यही वह समय होता है, जब विद्यार्थी अच्छे और बुरे अध्यापकों में अंतर करना भी जान जाते हैं।

हरि ने खिलंदड़ा स्वभाव पाया था। मस्ती वाली तबियत थी। पढ़ाई के वक़्त जमकर पढ़ाई और खेलने के समय जी भर खेलाई। पढ़ने में आगे और खेलों में सबसे आगे। कबड्डी और खो-खो जैसे खेलों में साजो-सामान नहीं लगता। बस मैदान और खिलाड़ी ही लगते हैं। चूने से मैदान तैयार कर लिया जाता है। वह हो तो, एक लकड़़ी से ही ज़मीन पर रेखाएं खींच ली जाती हैं। बस, हो गया मैदान तैयार।

ज्यादातर ऐसे ही खेल स्कूलों और गाँव-मुहल्लों के मैदानों में चला करते थे। बड़ा स्कूल हुआ, तो फुटबॉल, व्हाली बॉल और हॉकी से भी मुलाक़ात हो जाती थी। कुश्ती में अखाड़े की दरकार होती है। तो गाँव-कस्बे का कोई बड़ा और भला आदमी, अखाड़ा बनवा देता था। अंग्रेज जम कर काम करते थे और खेलने के लिये वक़्त निकाल लेते थे। इसलियेखेलोगे कूदोगे होगे खराब, पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाबकी कहावत के बावजूद खेलों का अपना आकर्षण तथा रुआब बना रहा। बंदिशों थीं। बाधाएं थीं। पर लड़कों ने उनसे हार कभी मानी। छिप कर, चोरी से और कुछ मात्रा में राजी-खुशी से खेलों के साथ उनका रिश्ता जारी रहा।

लड़कों के लिये खेल, खेल भर था, व्यायाम भी था। मनोरंजन था। आनंद था। और जीवन में आने वाली जय-पराजयों से पहचान करने का अलभ्य अवसर भी वही था। उससे देह बनती थी। मन बनता था। और दैनंदिनी की एकरसता भी टूटती थी। हरि के पास स्वस्थ शरीर और गज़ब की फुर्ती थी। खेलने वाली टीमों में उन्हें पा लेने की स्पर्द्धा चला करती थी। टीमें उनका चुनाव करती थीं, बल्कि वे ही अपने लिये टीमों का चुनाव किया करते थे। दसी कारण उनके उनके खूब सारे दोस्त बन गये थे। वे उनके पीछे-पीछे घूमते थे। साथ में रहने को लालायित रहते थे। हरि ही उनके लीडर। मार्गदर्शक। त्राणदायक। गुरु। उनकी समस्याओं और सवालों को हल करने वाले बंधु। सब कुछ वही थे। 

हरि ने अपने दोस्तों में अपनासब कुछजी भर कर बाँटा। बाँटने के स्वभाव से ही अपने लिये भी जीवन के अमोल-तत्वों को हासिल भी किया। मिलनसारिता। नेतृत्व। साहस। सहयोग। समता। सहभागिता। सहायता। जूझने का जज़्बा। लड़ने की हिम्मत। असंभव को संभव में बदल डालने का हौसला। हरि की किशोर वय में, एक ऐसी नींव पड़ रही थी, जिस पर एक बुलंद इमारत की मंजिलों का निर्माण शुरु होना था।

क्रमशः


 

राजेन्द्र चन्द्रकान्त राय

अंकुर’, 1234, जेपीनगर, आधारताल,

जबलपुर (म.प्र.) - 482004

 

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