शनिवार, 11 सितंबर 2021

कविता

 


पतझड़ की वेदना

कृष्णा वर्मा

टीस के तिमिरताल में

शिशिरीय हवा संग डोलता

डूबता तिरता

अविचल आतुर मन

सांझ का एकाकीपन

सियराती शीतल हवाएं

और पसरता मौन

खिड़की के पार सुदूर खड़े

पतझड़ी वृक्षों की वेदना जान

कसमसा उठता है मन

आहिस्ता से स्मृति झरोखे से

दाखिल हो आता है

तरु का सावनी अस्तित्व

शाख़ों का लहलहाना

पल्लवों का खनखनाना

हवा के गीतों संग थिरकना

अल्हड़ झोंकों संग

झूम-झूम कर ताली बजाना

कैसी यह नियति

ऋतु की एक करवट

हँसते खेलते जीवन का

पलट कर रख देती है सर्वस्व

हरे से पीला पीले से लाल

फिर भूरा होता जीवन

आफ़ताब के रंगों में नहाता

 

विलय की ओर बढाता क़दम

चरमराता तड़पड़ाता

विलीन हो जाता है होनी की गोद में

गतिहीन शब्दहीन विस्मित निस्तब्ध सी मैं

झरोखे के पार

खुले आसमान से

झाँकते हुए ध्रुव तारे को

टकटकी लगाए निहारती हुई

गुमसुम सोच रही हूँ

काश! तुमसा ही अटल होता सबका जीवन

तो कभी कोई यूँ न होता निराश उन्मन उदास।

 



कृष्णा वर्मा

कैनेडा

2 टिप्‍पणियां:

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