पतझड़
की वेदना
कृष्णा
वर्मा
टीस
के तिमिरताल में
शिशिरीय
हवा संग डोलता
डूबता
तिरता
अविचल
आतुर मन
सांझ
का एकाकीपन
सियराती
शीतल हवाएं
और
पसरता मौन
खिड़की
के पार सुदूर खड़े
पतझड़ी
वृक्षों की वेदना जान
कसमसा
उठता है मन
आहिस्ता
से स्मृति झरोखे से
दाखिल
हो आता है
तरु
का सावनी अस्तित्व
शाख़ों
का लहलहाना
पल्लवों
का खनखनाना
हवा
के गीतों संग थिरकना
अल्हड़
झोंकों संग
झूम-झूम
कर ताली बजाना
कैसी
यह नियति
ऋतु
की एक करवट
हँसते
खेलते जीवन का
पलट
कर रख देती है सर्वस्व
हरे
से पीला पीले से लाल
फिर
भूरा होता जीवन
आफ़ताब
के रंगों में नहाता
विलय
की ओर बढाता क़दम
चरमराता
तड़पड़ाता
विलीन
हो जाता है होनी की गोद में
गतिहीन
शब्दहीन विस्मित निस्तब्ध सी मैं
झरोखे
के पार
खुले
आसमान से
झाँकते
हुए ध्रुव तारे को
टकटकी
लगाए निहारती हुई
गुमसुम
सोच रही हूँ
काश!
तुमसा ही अटल होता सबका जीवन
तो
कभी कोई यूँ न होता निराश उन्मन उदास।
कृष्णा
वर्मा
कैनेडा
सुंदर शब्दों में रची कविता है कृष्णा जी बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया आद.दीदी!
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