शनिवार, 11 सितंबर 2021

कहानी

 



दुःख

अनिता मंडा

उसने घिसटते पाँवों से घर में प्रवेश किया। पत्नी बहुत देर से राह देख रही थी। उसने देखा पति के हाथ में न संदूक है न ही बच्चा। वह उसके पीछे कोई और आहट सुनने को कान धरे एकटक देखने लगी। थोड़ी देर तक देखने के बाद भी कोई न दिखा। वो मटकी से पानी का लोटा भर लाई।

"बीनणी अर बबलू कठे हैं? आया कोनी"

"बे दो-चार दिन रूकके आसी"

"क्यूँ कांई हुयो"

"गौर को उजुमनुं* है"

"फेर क्यूँ फोड़ा घाल्या, पछै ही आणे को केव देता"

वो हाथ-मुँह धोकर खाट पर चुपचाप बैठ गया।

"चाय बणा ल्याऊं" कहकर पत्नी चाय बनाने चली गई।

उसने रोकना चाहा लेकिन जिह्वा जैसे उठी ही नहीं।

किसी तरह चाय की घूँट हलक से उतारी। ऊपर से स्थिर झील की भाँति शांत बैठा रहा। परन्तु भीतर ही भीतर चीत्कार उसकी छाती को विदीर्ण कर रहा था। वो बता देना चाहता था कि तुम्हारा बबलू अब कभी नहीं आएगा। परन्तु उसकी अपनी आवाज़ सौ तालों के भीतर क़ैद हो गई।

चलता फिरता बबलू उसकी दृष्टि के सामने घूमने लगा।

"दादा ढूँढो मन्ने"

"दादा मैं छिप गया"

"दादा सहर से टॉफ़ी लाना, दादा चीज़ी लाना।"

उसने इन सब पुकारों से घबराकर अपने कानों पर हाथ रख लिए।

पत्नी ने देखा "के हुयो, माथो दुःखे है के"

"क्यूँही कोनी हुयो"

कहते हुए वह खेतों को संभालने के बहाने घर से निकल गया। साँझ होने वाली थी।

देर रात तक बदहवास सा  कभी रास्तों पर कभी खेत की मेड़ों  घूमता रहा। भूख-प्यास का अहसास ही नहीं था। कानों में बस एक चीख गूँजती थी। बबलू की प्राणहीन देह देखकर उसकी माँ के गले से जो आकाश को चीरती हुई चीख निकली थी; उस चीख ने उसकी छाती को भी चीर दिया था। वो फटे हुए कलेजे को थामे घिसटते पैरों से चलता जा रहा था। मानो चल-चल कर इन परिस्थितियों से बाहर चला जायेगा। वो चलते-चलते परिधि से बाहर निकल जाना चाहता था किंतु विडम्बना यह थी कि हर बार केंद्र के नज़दीक ही पहुँचता। कोई अदृश्य तीर उसके पीछे दौड़ रहा था और वो इससे बचने चलता रहा। पिंडलियों की नसें खिंच गई। होंठ सूखकर पेड़ की छाल की तरह रूखे हो गए। बुख़ार से आँखें अंगारों की मानिंद सुलगने लगी। रात का अँधेरा भीतर के अँधेरे से मिल कर और भी गाढ़ा हो गया था। चलते-चलते बेहोशी तारी होने लगी। चक्कर आया और गिर गया। पता नहीं कितनी देर रस्ते में पड़ा रहा। भला हुआ कि गाँव के कुछ लोग उधर से गुजर रहे थे। उन्होंने मुँह पर पानी के छींटे डाले, होश में आया तो अपने साथ गाँव ले आये।

रात का कौनसा पहर था पता नहीं, वह घर आकर चुपचाप खाट पर लेट गया।

आहट सुन पत्नी उठी "कठे चल्या गया हा"

"अठे ही हो"

"रोटी जीम ल्यो"

"भूख कोनी"

"आज के जीमा दियो सग्गी*"

"......."

"ठीक है, सो ज्याओ"

वह जैसे ही आँखें मूँदता गोला-बारूद जलने लगता। गोलियों की आवाज़ों से ऐसी दहशत उसे पहले कभी नहीं हुई थी। भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी कुछ भी उसे असहज नहीं करता था। वह ऐसा फौजी था जिसने कश्मीर की बर्फ़ और रेगिस्तान की गर्मी दोनों को एक सरिसा जिया था। विषम परिस्थितियों में भी उसने कभी हौसला नहीं खोया था। कुर्बानी को सदैव तत्पर रहता। मौत उसे बार-बार छू कर गुजरी थी। पसलियों में जब कारतूस आ लगा था, पहली बार उसने गर्म खून के नाले को छुआ था। कमीज से घाव को बाँध कितनी ही दूर पैदल चल लिया था। कई साथी उसने मिट्टी में तब्दील होते देखे थे। परन्तु इस तरह उसके कँधे कभी नहीं झुके थे। उस लोक गए साथियों के घरवालों को सब्र बंधाने वही आगे आता था।

पर आज लग रहा है वो सब तो एक अभिनय का हिस्सा था। एक मंच पर अभिनीत करने लिए उसे किरदार मिलता था और किसी के लिखे हुए संवाद मानो वह पढ़ देता था। इतना जीवन पढा था, पर  ऐसे मुश्किल प्रश्न तो नहीं थे कि वह कुछ देख न सके। उसके चारों तरफ़ अँधेरे की दीवारें थी। कहीं कोई उम्मीद का जुगनू न था।

एकाएक लगा  बहुत देर से कोई दुःस्वप्न देख रहा है। पानी पीने के लिए उठने लगा तो लड़खड़ा कर गिर गया। अपने भीतर एक सूखा कुआँ सा लगने लगा। अँधेरे से भरा हुआ। वह घिसटता हुआ पानी की मटकी तक पहुँचा। काँपते हाथों से लोटा भरा और बाहर आकर बैठ गया। एक-एक घूँट कर पानी गले से उतारा। अचानक खाली पेट में एक तूफ़ान सा उठा और सारा पानी बाहर आ पड़ा। खाली पेट में अब सिर्फ़ दिन की घटनाएँ घुमड़ रही थी।

बीते समय में वापस लौटकर कुछ ठीक करने की सुविधा होती तो शायद समय कभी आगे ही न बढ़ता। पर ऐसा सम्भव नहीं। समय की लिखी इबारत हम मिटा नहीं सकते। बदल नहीं सकते। इसलिए बार-बार दुहराते रहते हैं। दुहराने की प्रत्येक आवृत्ति में वही दुःख पुनः पुनः मिलता रहता है। एक समय ऐसा आता है हम उस दुःख की ख़ुराक बन जाते हैं। लकड़ी में लगी दीमक सा दुःख हमारी आत्मा को खोखला कर देता है।

दुःख वो बरगद बन जाता है जो अपने आस-पास सुख की छोटी सी पौध को भी पनपने नहीं देता। एक दिन दुःख के ब्लैक-होल में बाक़ी सब कुछ समा जाता है।

उसे आँगन में बैठा देख पत्नी ने फिर पूछा

"कोई बात तो है, थे बतावो कोनी"

उसने फिर सुन कर अनसुनी की। पत्नी ने सहारा देकर खाट तक पहुँचाया। नमक-अजवाइन देकर पानी पिलाया। थोड़ी देर पास बैठ सिर दबाती रही।

"सुबह बैद जी से दवाई ले लेया"

उसके पास होने की साँत्वना थी या थकान का असर था कि थोड़ी देर आँख लग गई। जो अभाव जागते हुए में अस्तित्व पर प्रश्न- चिन्ह सा लगा हुआ था, सोते हुए उसकी आपूर्ति स्वप्न में होने लगी। वो और बबलू छुपमछुपाई खेलने लगे। कभी वो छिपता बबलू ढूँढ लेता, कभी बबलू छुपता वो ढूँढ़ता। परन्तु सपनों के सुख सपनों के भीतर ही सूख जाते हैं, सपनों में मिले सुख का सपनों के बाहर कोई अस्तित्व नहीं होता। वह भी स्वप्न में भागते- भागते थक गया। आँख खुली तो वही तड़प थी। वही खाली कलेजा था। शुतुरमुर्ग जैसे परिस्थितियों से भागने को  रेत में मुँह छिपा लेता है वह भी दिन भर दोहरा हुआ खाट में घुसा रहा। आँखें खोलता तो रोशनी मानो आँखों में चुभ जाएगी। चाय-पानी जो भी पिया, पेट को स्वीकार नहीं हुआ। जितना पानी पीता, दुगुना होकर उल्टी में आ जाता। रोटी का कोर भी गले के नीचे न उतरा।

पत्नी ठंडे पानी की पट्टी माथे पर रखती रही। कमाई के लिए बेटों का विदेश जाना उसे इस समय बहुत अखर रहा था। पर उपाय ही क्या था। जब जब उसकी आँख खुलती; पत्नी से कहता

"बीमार पड़ जायेली, अब आराम कर ले तू"

पत्नी रसोई में चाय बना रही थी। उसने अपनी समूची हिम्मत बटोरी और सोचा आज वह पत्नी को सब बता देगा। वो बात जो बरछी सी उसके कलेजे में धँसी है, कह देगा।

वह चूल्हे के पास बैठ गया। मुँह सूख रहा था। एक गिलास पानी घूँट-घूँट कर पी गया। बात जितनी बाहर आने को होती, हर घूँट के साथ गले के भीतर ही निगल ली जाती।

"थे आया जणां हूँ चुप हो, क्यूंही बोलो क्यों कोनी" 

उसने "हूँ" करके पत्नी की तरफ़ गर्दन घुमाई।

आँखे खुली थी पर जैसे पहचान नहीं पा रहा हो। कौन बैठी है सामने। जब दो बरस का था माँ उसे  अपनी बड़ी बहू की गोद में डाल कर संसार से विदा हो गई। भाभी माँ उसके लिए हमेशा माँ ही रही। सभी भाइयों का पालन-पोषण कर, शादी विवाह कर सबका घर बाँध दिया तब जाकर भाभी माँ ने चैन की साँस ली। आज भी  वो होली-दीवाली साधिकार भाभी माँ की रसोई में भोजन करते थे। ख़ुद दादा बन गए तब भी भाभी माँ के सामने एकदम बच्चे ही तो थे। एक क्षण को लगा चूल्हे के पास भाभी माँ ही है। उसने शब्द ढूँढने के लिए आँखें बंद की। तभी पत्नी को आशंका हुई कि उसे चक्कर आ रहा है। उसने बढ़कर उसे सहारा दिया ।

"चालो खाट पर सुला दयूँ"

आवाज़ से उसकी तन्द्रा टूट गई।

"ना ठीक हूँ"

"क्यांका ठीक हो, आँख्यां लाल हु री है, कोई न सागे ले ज्यायो, सैर जा'र दिखा आओ।"

हाँ-ना कहे बिन शून्य को ताकता रहा।

खाट पर सुला कर पत्नी घर के कामों में जुट गई।

वह लेटा था पर बैचेनी उसकी नाभि के भँवर में चक्कर काट रही थी। कहाँ जाऊँक्या करूँ?

थोड़ी देर बाद हिम्मत जुटा कर पैरों में जूतियाँ डाली और घर से निकल गया। कहाँ जाना था? कुछ नहीं पता। चलते-चलते बेसाख़्ता पाँव  भाभी माँ के घर की तरफ़ मुड़ गए। कुछ रिश्ते ज्येष्ठ की धूप में नीम की छाँव जैसे सुकून वाले होते हैं। ऐसे मीठे पानी के कुएँ कि जिनका अमृत कभी नहीं सूखता।

भाभी माँ बाहर चौकी पर बैठी थी। वह मूर्तिवत जाकर सामने बैठ गया। उधेड़-बुन में मन इतना उलझा था कि उसे चरण स्पर्श करना भी याद नहीं रहा। "राम-राम" कहकर भाभी माँ ने अभिवादन किया।

प्रत्युत्तर में उसने भी "राम-राम" कह दिया।

"घर हूँ ही आया के"

"हाँ"

भाभी माँ ने बच्चों को इशारा किया कि चाय बनवा दें।

"घराँ सब ठीक है न"

उसने उत्तर देने को मुँह खोला पर शब्दों के अभाव में कोई ध्वनि बाहर नहीं निकली।

"और टाबरिया मौज मह है के" भाभी माँ ने बात को दूसरे शब्दों में दोहराया।

इस बार उसने आँखें मूँद गरदन झुका ली, ना में गरदन हिलाई तो गरदन हिलना बंद ही नहीं हुई। वह मूढ़े पर से नीचे खिसक आया। दोनों घुटने औंधे डाल ज़मीन पर ढह गया।

"के हुयो है थांने, बतायाँ बिना कियाँ पतो चलेगो"  कहते हुए भाभी माँ ने उसकी पीठ पर हिम्मत बंधाने को थपकी दी।

जो बाँध उसके भीतर बंधा हुआ था ढह गया। एक साथ आँसुओं का सैलाब और टूटे-फूटे शब्द निकले "मैं पोते नह मार दियो"

"बावळा हुया हो के, किसी बाताँ करो हो"

 

"ना, मैं साची केउँ, मैं ही मार दियो बिने तो"

गर्दन हिलाते हुए वह पूरी तरह ज़मीन पर गिर गया।

भाभी माँ ने पीठ सहला कर बैठाया, पानी की गिलास हाथ में दी।

घूँट घूँट पानी के सहारे वह घूँट घूँट शब्द उच्चारने लगा।

"बबलू और बहू न  लिवाने गयो हो, बबलू न नहला धुला'र बे म्हारी गोदी मह दे दियो। बस आणे में देर ही तो सब कियो एक चाय और पी लेवां। से बाताँ मह लाग गया। पतो कोनी कणां गोदी सयूँ निकल'र खेलण लाग गयो। कोई को ध्यान कोनी गयो बी पर। पाछा रवाना हूण'न लग्या तो देख्यो, घर-बाहर सगळे ढूँढयो।"

कहते कहते हाँफ गया।

"बांके घर दो कमरे बनाऐ थे जिक के लिए पानी की कुंडडी बनाए'डी ही।"

"दस-पंद्रह मिनिट में के हूँ के हुग्यो"

"हूँणी न कुण टाल सके है, इता ही खोज हा बी'का ईं धरती पर।"

"थे कोनी मारयो बीको काळ आग्यो हो"

"छाती न पत्थर की कर ल्यो, अब बावळापन करणे सूं तो बबलू पाछो आवे कोनी"

"बेल हरी हुवे जणां फल तो और आ जावे"

सांत्वना के बोल आत्मा के घाव पर रखे मरहम के फाये होते हैं। भाभी माँ की वाणी में पता नहीं कैसा मरहम था कि उसकी घायल आत्मा की तड़प थोड़ी मंदी पड़ी।

***

* उजुमनुं - उद्यापन

* सग्गी – समधन



अनिता मंडा

दिल्ली

 

3 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन में ऐसा कोई अवश्य ही होना चाहिए जिसके सामने हम पूरी तरह से अपना दिल खोल कर रख सकें.और जो जरूरत पड़ने पर हमें सही रास्ता दिखा सके .दिल को छूती बहुत ही अच्छी कहानी.

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  2. सौम्य भाषा प्रवाह में रचित बेहतरीन कहानी के लिए शुभकामनाएँ.. ह्रदय और मर्मस्पर्शी रचना.. साधुवाद.. !!

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