एक
शांत नास्तिक संत
जैनेन्द्र
कुमार
मुझे
एक अफसोस है, वह अफसोस यह है कि मैं उन्हें
पूरे अर्थों में शहीद क्यों नहीं कह पाता हूँ, मरते सभी हैं,
यहाँ बचना किसको है! आगे-पीछे सबको जाना है, पर
मौत शहीद की ही सार्थक है, क्योंकि वह जीवन की विजय को घोषित
करती है। आज यही ग्लानि मन में घुट-घुटकर रह जाती है कि प्रेमचन्द शहादत से क्यों
वंचित रह गये? मैं मानता हूँ कि प्रेमचंद शहीद होने योग्य थे,
उन्हें शहीद ही बनना था।
और
यदि नहीं बन पाए हैं वह शहीद तो मेरा मन तो इसका दोष हिंदी संसार को भी देता है।
मरने
से एक सवा महीने पहले की बात है, प्रेमचंद खाट पर
पड़े थे। रोग बढ़ गया था, उठ-चल न सकते थे। देह पीली,
पेट फूला, पर चेहरे पर शांति थी।
मैं
तब उनकी खाट के पास बराबर काफी-काफी देर तक बैठा रहा हूँ। उनके मन के भीतर कोई खीझ,
कोई कड़वाहट, कोई मैल उस समय करकराता मैंने
नहीं देखा, देखते तो
उस समय वह अपने समस्त अतीत जीवन पर पीछे की ओर भी होंगे और आगे अज्ञात में कुछ
कल्पना बढ़ाकर देखते ही रहे होंगे लेकिन दोनों को देखते हुए वह संपूर्ण शांत भाव
से खाट पर चुपचाप पड़े थे। शारीरिक व्यथा थी, पर मन
निर्वीकार था।
ऐसी
अवस्था में भी (बल्कि ही) उन्होंने कहा- जैनेन्द्र! लोग ऐसे समय याद किया करते हैं
ईश्वर। मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर अभी तक मुझे ईश्वर को कष्ट देने की जरूरत
नहीं मालूम हुई है।
शब्द
हौले-हौले थिरता से कहे गए थे और मैं अत्यंत शांत नास्तिक संत की शक्ति पर विस्मित
था।
मौत
से पहली रात को मैं उनकी खटिया के बराबर बैठा था। सबेरे सात बजे उन्हें इस दुनिया
पर आँख मीच लेनी थीं। उसी सबेरे तीन बजे मुझसे बातें होती थीं। चारों तरफ सन्नाटा
था। कमरा छोटा और अँधेरा था। सब सोए पड़े थे। शब्द उनके मुँह से फुसफुसाहट में
निकलकर खो जाते थे। उन्हें कान से अधिक मन से सुनना पड़ा था।
तभी
उन्होंने अपना दाहिना हाथ मेरे सामने कर दिया, बोले-
दाब दो।
हाथ
पीला क्या सफेद था और फूला हुआ था, मैं
दाबने लगा।
वह
बोले नहीं, आँख मींचे पड़े रहे। रात के बारह
बजे हंस’ की बात हो चुकी थी। अपनी आशाएँ, अपनी अभिलाषाएँ, कुछ शब्दों से और अधिक आँखों से वह
मुझ पर प्रगट कर चुके थे। ‘हंस’ की और
साहित्य की चिंता उन्हें तब भी दबाए थी। अपने बच्चों का भविष्य भी उनकी चेतना पर
दबाव डाले हुए था। मुझसे उन्हें कुछ ढारस था।
अब
तीन बजे उनके फूले हाथ को अपने हाथ में लिए मैं सोच रहा था कि क्या मुझ पर उनका ढारस
ठीक है। रात के बारह बजे मैंने उनसे कुछ तर्क करने की धृष्टता भी की थी। वह चुभन
मुझे चुभ रही थी। मैं क्या करूँ? मैं क्या करूँ ?
इतने
में प्रेमचन्द जी बोले, जैनेन्द्र! बोलकर,
चुप मुझे देखते रहे। मैंने उनके हाथ को अपने दोनों हाथों से दबाया।
उनको देखते हुए कहा, आप कुछ फिकर न कीजिए बाबूजी। आप अब
अच्छे हुए और काम के लिए हम सब लोग हैं ही।
अब
मुझे देखते, फिर बोले – आदर्श से काम नहीं
चलेगा। मैंने कहना चाहा... आदर्श, बोले – बहस न करो। कहकर
करवट लेकर आँखें मींच लीं।
उस
समय मेरे मन पर व्यथा का पत्थर ही मानो रख गया। अनेकों प्रकार की चिंता-दुश्चिंता
उस समय प्रेमचन्द जी के प्राणों पर बोझ बनकर बैठी हुयी थी। मैं या कोई उसको उस समय
किसी तरह नहीं बटा सकता था। चिंता का केन्द्र यही था कि ‘हंस’ कैसे चलेगा? नहीं चलेगा
तो क्या होगा? ‘हंस’ के लिए तब भी जीने
की चाह उनके मन में थी और ‘हंस’ न
जियेगा, यह कल्पना उन्हें असह्य थी, पर
हिन्दी-संसार का अनुभव उन्हें आश्वस्त न करता। ‘हंस’ के लिए न जाने उस समय वह कितना झुककर गिरने को तैयार थे।
मुझे
यह योग्य जान पड़ा कि कहूँ... ‘हंस’ मरेगा
नहीं, लेकिन वह बिना झुके भी क्यों न जिये? वह आपका अखबार है, तब वह बिना झुके ही जियेगा। लेकिन
मैं कुछ भी न कह सका और कोई आश्वासन उस साहित्य सम्राट को आश्वस्त न कर सका।
थोड़ी
देर में बोले – गरमी बहुत है, पंखा करो। मैं
पंखा करने लगा। उन्हें नींद न आती थी, तकलीफ बेहद थी। पर
कराहते न थे, चुपचाप आँख खोलकर पड़े थे।
दस
पंद्रह मिनट बाद बोले- जैनेन्द्र, जाओ, सोओ।
क्या पता था अब घड़ियाँ गिनती की शेष हैं, मैं जा सोया। और सबेरा होते-होते ऐसी मूर्छा उन्हें आयी कि फिर उनसे जगना न हुआ।
हिंदी संसार
उन्हें तब आश्वस्त कर सकता था, और तब नहीं तो
अभी भी आश्वस्त कर सकता है। मुझे प्रतीत होता है, प्रेमचन्द
जी का इतना ऋण है कि हिन्दी संसार सोचे, कैसे वह आश्वासन उस
स्वर्गीय आत्मा तक पहुँचाया जाए।
जैनेन्द्र कुमार
*****
प्रेमचंदजी
के साथ दो दिन
प्रेमचंदजी
की सेवा में उपस्थित होने की इच्छा बहुत दिनों से थी। यद्यपि आठ वर्ष पहले लखनऊ
में एक बार उनके दर्शन किए थे, पर उस समय अधिक
बातचीत करने का मौका नहीं मिला था। इन आठ वर्षों में कई बार काशी जाना हुआ,
पर प्रेमचंदजी उन दिनों काशी में नहीं थे। इसलिए ऊपर की चिट्ठी
मिलते ही मैंने बनारस कैंट का टिकट कटाया और इक्का लेकर बेनिया पार्क पहुँच ही
गया। प्रेमचंद जी का मकान खुली जगह में सुंदर स्थान पर है और कलकत्ते का कोई भी
हिंदी पत्रकार इस विषय में उनसे ईर्ष्या किए बिना नहीं रह सकता। लखनऊ के आठ वर्ष
पुराने प्रेमचंदजी और काशी के प्रेमचंदजी की रूपरेखा में विशेष अंतर नहीं पड़ा।
हाँ मूँछों के बाल जरूर 53 फीसदी सफेद हो गए हैं। उम्र भी करीब-करीब इतनी ही है।
परमात्मा उन्हें शतायु करे, क्योंकि हिंदी वाले उन्हीं की
बदौलत आज दूसरी भाषा वालों के सामने मूँछों पर ताव दे सकते हैं। यद्यपि इस बात में
संदेह है कि प्रेमचंदजी हिंदी भाषा-भाषी जनता में कभी उतने लोकप्रिय बन सकेंगे,
जितने कवीवर मैथिलीशरण जी हैं, पर प्रेमचंदजी
के सिवा भारत की सीमा उल्लंघन करने की क्षमता रखने वाला कोई दूसरा हिंदी कलाकार इस
समय हिंदी जगत में विद्यमान नहीं। लोग उनको उपन्यास सम्राट कहते हैं, पर कोई भी समझदार आदमी उनसे दो ही मिनट बातचीत करने के बाद समझ सकता है कि
प्रेमचंदजी में साम्राज्यवादिता का नामोनिशान नहीं। कद के छोटे हैं, शरीर निर्बल-सा है। चेहरा भी कोई प्रभावशाली नहीं और श्रीमती शिवरानी देवी
जी हमें क्षमा करें, यदि हम कहें कि जिस समय ईश्वर के यहाँ
शारीरिक सौंदर्य बँट रहा था, प्रेमचंदजी जरा देर से पहुँचे
थे। पर उनकी उन्मुक्त हँसी की ज्योति पर, जो एक सीधे सादे,
सच्चे स्नेहमय हृदय से ही निकल सकती है, कोई
भी सहृदया सुकुमारी पतंगवत् अपना जीवन निछावर कर सकती है। प्रेमचंदजी ने बहुत से
कष्ट पाए हैं, अनेक मुसीबतों का सामना किया है, पर उन्होंने अपने हृदय में कटुता को नहीं आने दिया। वे शुष्क बनियापन से
कोसों दूर हैं और बेनिया पार्क का तालाब भले ही सूख जाए, उनके
हृदय सरोवर से सरसता कदापि नहीं जा सकती। प्रेमचंदजी में सबसे बड़ा गुण यही है कि
उन्हें धोखा दिया जा सकता है। जब इस चालाक साहित्य-संसार में बीसियों आदमी ऐसे पाए
जाते हैं, जो दिन-दहाड़े दूसरों को धोखा दिया करते हैं,
प्रेमचंदजी की तरह के कुछ आदमियों का होना गनीमत है। उनमें दिखावट
नहीं, अभिमान उन्हें छू भी नहीं गया और भारत व्यापी कीर्ति
उनकी सहज विनम्रता को उनसे छीन नहीं पाई।
प्रेमचंदजी
से अबकी बार घंटों बातचीत हुई। एक दिन तो प्रातःकाल 11 बजे से रात के 10 बजे तक और
दूसरे दिन सबेरे से शाम तक। प्रेमचंदजी गल्प लेखक हैं,
इसलिए गप लड़ाने में आनंद आना उनके लिए स्वाभाविक ही है। (भाषा
तत्त्वविद बतलावें कि गप शब्द की व्युत्पत्ति गल्प से हुई है या नहीं?)
यदि
प्रेमचंदजी को अपनी डिक्टेटरी श्रीमती शिवरानी देवी का डर न रहे,
तो वे चौबीस घंटे यही निष्काम कर्म कर सकते हैं। एक दिन बात
करते-करते काफी देर हो गई। घड़ी देखी तो पता लगा कि पौन दो बजे हैं। रोटी का वक्त
निकल चुका था। प्रेमचंदजी ने कहा – ‘खैरियत यह है कि घर में
ऊपर घड़ी नहीं है, नहीं तो अभी अच्छी खासी डाँट सुननी पड़ती!’
घर में एक घड़ी रखना, और सो भी अपने पास,
बात सिद्ध करती है कि पुरुष यदि चाहे तो स्त्री से कहीं अधिक चालाक
बन सकता है, और प्रेमचंदजी में इस प्रकार का चातुर्य बीजरूप
में तो विद्यमान है ही।
प्रेमचंदजी
स्वर्गीय कविवर शंकरजी की तरह प्रवास भीरु हैं। जब पिछली बार आप दिल्ली गए थे,
तो हमारे एक मित्र ने लिखा था – पचास वर्ष की उम्र में प्रेमचंदजी
पहली बार दिल्ली आए हैं! इससे हमें आश्चर्य नहीं हुआ। आखिर सम्राट पंचम जॉर्ज भी
जीवन में एक बार ही दिल्ली पधारे हैं और प्रेमचंदजी भी तो उपन्यास सम्राट ठहरे!
इसके सिवा यदि प्रेमचंदजी इतने दिन बाद दिल्ली गए तो इसमें दिल्ली का कसूर है,
उनका नहीं।
प्रेमचंदजी
में गुण ही गुण विद्यमान हों, सो बात नहीं।
दोष हैं और संभवतः अनेक दोष हैं। एक बार महात्माजी से किसी ने पूछा था यह सवाल आप
बा (श्रीमती कस्तूरबा गांधी) से पूछिए। श्रीमती शिवरानी देवी से हम प्रार्थना
करेंगे कि वे उनके दोषों पर प्रकाश डालें। एक बात तो उन्होंने हमें बतला भी दी कि
उनमें प्रबंध शक्ति का बिल्कुल अभाव है। हमीं- सी हैं जो इनके घर का इंतजाम कर सकी
हैं। पर इस विषय में श्रीमती सुदर्शन उनसे कहीं आगे बढ़ी हुई हैं। वे सुदर्शनजी के
घर का ही प्रबंध नहीं करतीं, स्वयं सुदर्शनजी का भी प्रबंध
करती हैं और कुछ लोगों का तो जिनमें सम्मिलति होने की इच्छा इन पंक्तियों के लेखक
की भी है – यह दृढ़ विश्वास है कि श्रीमती
सुदर्शन गल्प लिखती हैं और नाम श्रीमान सुदर्शनजी का होता है।
प्रेमचंदजी
में मानसिक स्फूर्ति चाहे कितनी ही अधिक मात्रा में क्यों न हो,
शारीरिक फुर्ती का प्रायः अभाव ही है। यदि कोई भला आदमी प्रेमचंदजी
तथा सुदर्शनजी को एक मकान में बंद कर दे, तो सुदर्शनजी
तिकड़म भिड़ाकर छत से नीचे कूद पड़ेंगे और प्रेमचंदजी वहीं बैठे रहेंगे। यह दूसरी
बात है कि प्रेमचंदजी वहाँ बैठे-बैठै कोई गल्प लिख डालें।
जम
के बैठ जाने में ही प्रेमचंदजी की शक्ति और निर्बलता का मूल स्रोत छिपा हुआ है।
प्रेमचंदजी ग्रामों में जमकर बैठ गए और उन्होंने अपने मस्तिष्क के सुपरफाइन कैमरे
से वहाँ के चित्र-विचित्र जीवन का फिल्म ले लिया। सुना है इटली की एक लेखिका श्रीमती
ग्रेजिया दलिद्दा ने अपने देश के एक प्रांत-विशेष के निवासियों की मनोवृत्ति का
ऐसा बढ़िया अध्ययन किया और उसे अपनी पुस्तक में इतनी खूबी के साथ चित्रित कर दिया
कि उन्हें ‘नोबेल प्राइज’ मिल गया। प्रेमचंदजी का युक्त प्रांतीय ग्राम्य-जीवन का अध्ययन अत्यंत गंभीर
है, और ग्रामवासियों के मनोभावों का विश्लेषण इतने उँचे
दर्जे का है कि इस विषय में अन्य भाषाओं के अच्छे से अच्छे लेखक उनसे ईर्ष्या कर
सकते हैं।
कहानी
लेखकों तथा कहानी लेखन कला के विषय में प्रेमचंदजी से बहुत देर तक बातचीत हुई।
उनसे पूछने के लिए मैं कुछ सवाल लिखकर ले गया था। पहला सवाल यह था,
कहानी लेखन कला के विषय में क्या बतलाऊँ? हम
कहानी लिखते हैं, दूसरे लोग पढ़ते। दूसरे लिखते हैं, हम पढ़ते हैं और क्या कहूँ? इतना कहकर खिलखिलाकर हँस
पड़े और मेरा प्रश्न धारा-प्रवाह अट्टहास में विलीन हो गया। दरअसल बात यह थी कि
प्रेमचंदजी की सम्मति में वे सवाल ऐसे थे, जिन पर अलग-अलग
निबंध लिखे जा सकते हैं।
प्रश्न –
हिंदी कहानी लेखन की वर्तमान प्रगति कैसी है? क्या
वह स्वस्थ तथा उन्नतिशील मार्ग पर है?
उत्तर –
प्रगति बहुत अच्छी है। यह सवाल ऐसा नहीं कि इसका जवाब – आफहैंड दिया जा सके।
प्रश्न – नवयुवक
कहानी लेखकों में सबसे अधिक होनहार कौन है?
उत्तर –
जैनेंद्र तो हैं ही और उनके विषय में पूछना ही क्या है?
इधर श्री वीरेश्वर सिंह ने कई अच्छी कहानियाँ लिखी हैं। बहुत उँचे
दर्जे की कला तो उनमें अभी विकसित नहीं हो पाई, पर तब भी
अच्छा लिख लेते हैं। बाज-बाज कहानियाँ तो बहुत अच्छी हैं। हिंदू विश्वविद्यालय के
ललित किशोर सिंह भी अच्छा लिखते हैं। श्री जनार्दन झा द्विज में भी प्रतिभा है।
प्रश्न –
विदेशी कहानियों का हमारे लेखकों पर कहाँ तक प्रभाव पड़ा है ?
उत्तर – हम
लोगों ने जितनी कहानियाँ पढ़ी हैं, उनमें
रसियन कहानियों का ही सबसे अधिक प्रभाव पड़ा है। अभी तक हमारे यहाँ ‘एडवेंचर’ (साहसिकता) की कहानियाँ हैं ही नहीं और
जासूसी कहानियाँ भी बहुत कम हैं। जो हैं भी, वे मौलिक नहीं
हैं, कैनन डायल की अथवा अन्य कहानी लेखकों की छायामात्र है।
क्राइम डिटैक्शन की साइंस का हमारे यहाँ विकास ही नहीं हुआ है।
प्रश्न –
संसार का सर्वश्रेष्ठ कहानी लेखक कौन है?
उत्तर – चेखव।
प्रश्न –
आपको सर्वोत्तम कहानी कौन जँची?
उत्तर – यह
बतलाना बहुत मुश्किल है। मुझे याद नहीं रहता। मैं भूल जाता हूँ। टाल्सटॉय की वह
कहानी,
जिसमें दो यात्री तीर्थयात्रा पर जा रहे हैं, मुझे
बहुत पसंद आई। नाम उसका याद नहीं रहा। चेखव की वह कहानी भी जिसमें एक स्त्री बड़े
मनोयोगपूर्वक अपनी लड़की के लिए जिसका विवाह होने वाला है कपड़े सी रही है,
मुझे बहुत अच्छी जँची। वह स्त्री आगे चलकर उतने ही मनोयोग पूर्वक अपनी
मृत पुत्री के कफन के लिए कपड़ा सीती हुई दिखलाई गई है। कवींद्र रवींद्रनाथ की ‘दृष्टिदान’ नामक कहानी भी इतनी अच्छी है कि वह संसार
की अच्छी से अच्छी कहानियों से टक्कर ले सकती है।
इस
पर मैंने पूछा कि ‘काबुलीवाला’ के विषय में आपकी क्या राय है?
प्रेमचंदजी ने कहा कि "निस्संदेह वह अत्युत्तम कहानी है। उसकी अपील यूनिवर्सल है, पर भारतीय स्त्री का भाव जैसे उत्तम ढंग से ‘दृष्टिदान’ में दिखलाया गया है, वैसा अन्यत्र शायद ही कहीं मिले। मोपासां की कोई-कोई कहानी बहुत अच्छी है, पर मुश्किल यह है कि वह ‘सैक्स’ से ग्रस्त है।"
प्रेमचंदजी
टाल्सटॉय के उतने ही बड़े भक्त हैं जितना मैं तुर्गनेव का। उन्होंने सिफारिश की कि
टाल्सटॉय के अन्ना कैरेनिना और ‘वार एंड पीस’
शीर्षक पढ़ो। पर प्रेमचंदजी की एक बात से मेरे हृय को एक बड़ा धक्का
लगा। जब उन्होंने कहा- टाल्सटॉय के मुकाबले में तुर्गनेव अत्यंत क्षुद्र हैं तो
मेरे मन में यह भावना उत्पन्न हुए बिना न रही कि प्रेमचंदजी उच्चकोटि के आलोचक
नहीं। संसार के श्रेष्ठ आलोचकों की सम्मति में कला की दृष्टि से तुर्गनेव
उन्नीसवीं शताब्दी का सर्वोत्तम कलाकार था। मैंने प्रेमचंदजी से यही निवेदन किया
कि तुर्गनेव को एक बार फिर पढ़िए।
प्रेमचंदजी
के सत्संग में एक अजीब आकर्षण है। उनका घर एक निष्कपट आडंबर शून्य,
सद्-गृहस्थ का घर है। और यद्यपि प्रेमचंदजी काफी प्रगतिशील हैं -
समय के साथ बराबर चल रहे हैं फिर भी - उनकी
सरलता तथा विवेकशीलता ने उनके गृह-जीवन के सौंदर्य को अक्षुण्ण तथा अविचलित
बनाए रखा है। उनके साथ व्यतीत हुए दो दिन जीवन के चिरस्मरणीय दिनों में रहेंगे।
(जनवरी, 1932)
बनारसीदास चतुर्वेदी
*****
स्मरण
प्रेमचंद
महादेवी
वर्मा
प्रेमचंद
से मेरा प्रथम परिचय पत्र के द्वारा हुआ। तब मैं आठवीं कक्षा की विद्यार्थिनी थी।
मेरी ‘दीपक’ शीर्षक एक कविता संभवतः ‘चाँद’ में प्रकाशित हुई। प्रेमचंद जी ने तुरंत ही
मुझे कुछ पंक्तियों में अपना आशीर्वाद भेजा। तब मुझे यह ज्ञात नहीं था कि कहानी और
उपन्यास लिखने वाले कविता भी पढ़ते हैं। मेरे लिए ऐसे ख्यातनामा कथाकार का पत्र जो
मेरी कविता की विशेषता व्यक्त करता था, मुझे आशीर्वाद देता
था, बधाई देता था, बहुत दिनों तक मेरे
कौतूहल मिश्रित गर्व का कारण बना रहा। उनका प्रत्यक्ष दर्शन तो विद्यापीठ आने के
उपरांत हुआ। उसकी भी एक कहानी है। एक दोपहर को जब प्रेमचंद जी उपस्थित हुए तो मेरी
भक्तिन ने उनकी वेशभूषा से उन्हें भी अपने
ही समान ग्रामीण या ग्राम निवासी समझा और सगर्व उन्हें सूचना दी- गुरुजी काम कर
रही हैं। प्रेमचंद जी ने अपने अट्टहास के साथ उत्तर दिया तुम तो खाली हो। घड़ी दो
घड़ी बैठकर बात करो और तब जब कुछ समय के उपरांत मैं किसी कार्यवश बाहर आई तो देखा
नीम के नीचे एक चौपाल बन गई है। विद्यापीठ के चपरासी, चौकीदार,
भक्तिन के नेतृत्व में उनके चारों ओर बैठे हैं और लोक चर्चा आरंभ
हैं।
प्रेमचंद
जी के व्यक्तित्व में एक सहज संवेदना और ऐसी आत्मीयता थी,
जो प्रत्येक साहित्यकार का उत्तराधिकार होने पर भी उसे प्राप्त नहीं
होती। अपनी गंभीर मर्मस्पर्शनी दृष्टि से उन्होंने जीवन के गंभीर सत्यों, मूल्यों का अनुसंधान किया और अपनी सहज सरलता से, आत्मीयता
से उसे सब ओर दूर-दूर तक पहुँचाया। जिस युग में उन्होंने लिखना आरंभ किया था,
उस समय हिंदी कथा साहित्य जासूसी और तिलस्मी कौतूहली जगत में ही
सीमित था। उसी बाल सुलभ कुतूहल में प्रेमचंद उसे एक व्यापक धरातल पर ले आए,
जो सर्व सामान्य था। उन्होंने साधारण कथा, मनुष्य
की साधारण घर-घर की कथा, हल-बैल की कथा, खेत-खलिहान की कथा, निर्झर, वन, पर्वतों की कथा तक
इस प्रकार पहुँचाई कि वह आत्मीय तो थी ही, नवीन भी हो गई।
प्रायः जो व्यक्ति हमें प्रिय होता है, जो वस्तु हमें प्रिय
होती है हम उसे देखते हुए थकते नहीं। जीवन का सत्य ही ऐसा है जो आत्मीय है वह चिर
नवीन भी है। हम उसे बार-बार देखना चाहते हैं। कवि के कर्म से कथाकार का कर्म भिन्न
होता है। कवि अंतर्मुखी रह सकता है। लेकिन कथाकार को बाहर-भीतर दोनों दिशाओं में
शोध करना पड़ता है, उसे निरंतर सबके समक्ष रहना पड़ता है।
शोध भी उसका रहस्यमय नहीं हो सकता, एकांतमय नहीं हो सकता।
जैसे गोताखोर तो समुद्र में जाता है, अनमोल मोती खोजने के
लिए, वहीं रहता है और मोती मिल जाने पर ऊपर आ जाता है। परंतु
नाविक को तो अतल गहराई का ज्ञान भी रहना चाहिए और ज्वार-भाटा भी समझना चाहिए,
अन्यथा वह किसी दिशा में नहीं जा सकता।
प्रेमचंद जी के व्यक्तित्व के विविध आयामों से परिचित कराते हुए सारे संस्मरण बहुत प्रभावी हैं।
जवाब देंहटाएंPremchand ji ke bare me bhut sundar tarike se bataya ...unki personality ke bare me jan ne ko mila...
जवाब देंहटाएंThankyou...
Dimple Rana