‘कलम का सिपाही’ से
अमृतराय
आठ
अक्तूबर। सुबह हुई। जाड़े की सुबह सात-साढ़े सात का वक्त होगा। मुँह धुलाने के लिए
शिवरानी गरम पानी लेकर आई। मुंशीजी ने दाँत माँजने के लिए खरिया मिट्टी मुँह में
ली, दो-बार मुँह चलाया और दाँत बैठ गए।
कुल्ला करने के लिए इशारा किया, पर मुँह नहीं फैल सका। पत्नी
ने उनको जोर लगाते देखा, कुछ कहने के लिए....
पाँव
तले जमीन खिसक गई। कान में कोई कुछ कह गया।
घबराकर
बोलीं- कुल्ला भी नहीं कीजिएगा क्या ?
वहाँ
तो उल्टी साँस चल रही थी।
नवाब
ने बेबस आँखों से रानी को देखा और दम उखड़ते-उखड़ते, रुकती-अटकती, कुएँ के भीतर से आती हुई-सी, भारी, गूँजती आवाज में डूबते आदमी की तरह पुकारा – रानी...
रानी
लपकी कि शायद मेरे हाथ में कुल्ला करना चाहते हैं। रामकिशोर ने बीच में ही पकड़
लिया – बहन, अब वहाँ क्या रखा है !
लमही
खबर पहुँची। बिरादरीवाले जुटने लगे।
अरथी
बनी। ग्यारह बजते-बजते बीस-पच्चीस लोग किसी गुमनाम आदमी की लाश लेकर मणिकर्णिका की
ओर चले।
रास्ते
में एक राह चलते ने दूसरे से पूछा- के रहल ?
दूसरे
ने जवाब दिया – कोई मास्टर था !
उधर,
बेलापुर में रवीन्द्रनाथ ने धीमे से कहा – एक रतन मिला था तुमको, तुमने खो दिया !
(‘कलम का सिपाही’,
पृ. 615)
मार्मिक अंश
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