बुधवार, 21 जुलाई 2021

प्रेमचंद के पत्र

 


 प्रेमचंद के जैनेन्द्र कुमार और उपेन्द्रनाथ अश्क को लिखे कुछ पत्र ‘प्रेमचंद और गोर्की’ (सं. शचीरानी गुर्टु) पुस्तक से उद्धृत किये जा रहे हैं।

 

जैनेन्द्र कुमार को (सन् 1935)

प्रिय जैनेन्द्र,

कल तुम्हारा पत्र मिला। मुझे यह शंका पहले ही थी। इस मर्ज़ में शायद ही कोई बचता है। पहले ऐसी इच्छा उठी कि दिल्ली आऊँ। लेकिन मेरे दामाद तीन दिन से आए हुए हैं और शायद बेटी जा रही है। फिर यह भी सोचा कि तुम्हें समझाने की तो कोई बात है नहीं। यह तो एक दिन होना ही था। हाँ, जब यह सोचता हूँ कि वह तुम्हारे लिए क्या थीं, और तुम उनके काल में आज भी लड़के से बने फिरते थे, तब जी चाहता है तुम्हारे गले मिल कर रोऊँ। उनका वह स्नेह, वह तुम्हारे लिए जो कुछ थी, वह तो थी ही, मगर उनके लिए तो तुम प्राण थे, आँख थे, सबकुछ थे। बिरले ही भागवानों को ऐसी माताएँ मिलती हैं। मैं देख रहा हूँ तुम दुःखी हो, तुम्हारा मुँह सूखा हुआ है, संसार सूना सूना-सा लग रहा है और चाहता हूँ यह दुःख आधा-आधा बाँट लूँ अगर तुम दो। मगर तुम दोगे नहीं उस देवी का इतना ही तो तुम्हारे पास है, मुझे देकर कहाँ जाओगे ? इसे तो तुम सारे का सारा अपने सबसे निकट के स्थान में सुरक्षित रखोगे।

काम से छुट्टी पाते ही अगर आ सको तो जरूर आ जाओ। मिले बहुत दिन हो गए। मन तो मेरा ही आने को चाहता है, लेकिन मैं आया तो तीसरे दिन रस्सी तुड़ा कर भागूँगा। तुम मगर अब तो तुम भी मेरे जैसे हो, भाई। अब वह बेफ़िक्री के मजे कहाँ !

और सच पूछो तो मेरी ईर्ष्या ने तुम्हें अनाथ कर दिया। क्यों न ईर्ष्या करता। मैं सात वर्ष का था तब माता जी चली गई। तुम सत्ताईस वर्ष के हो कर माता वाले बने रहो, यह मुझसे कब देखा जाता। अब जैसे हम वैसे तुम। बल्कि मैं तुमसे अच्छा। मुझे माता की सूरत भी याद नहीं आती। तुम्हारी माता तुम्हारे सामने है और बोलती नहीं, मिलती नहीं।

और तो सब ठीक है। चतुर्वेदी जी ने कलकत्ते बुलाया था कि नोगुची जापानी कवि का भाषण सुन जाओ। यहाँ नोगुची हिन्दू यूनिवर्सिटी आए, उनका व्याख्यान भी हो गया। मगर मैं न जा सका। अक्ल की बातें सुनते और पढ़ते उम्र बीत गई। ईश्वर पर विश्वास नहीं आता, कैसे श्रद्धा होती है। तुम आस्तिकता की ओर जा रहो हो। जा नहीं रहे, पक्के भगत बन रहे हो। मैं सन्देह से पक्का नास्तिक होता जा रहा हूँ।

बेचारी भगवती अकेली हो गई।

सुनीताजाने कहाँ रास्ते में रह गई। यहाँ कहीं बाज़ार में भी नहीं। चित्रपट के पुराने अंक उठा कर पढे, पर मुश्किल से तीन अध्याय।तुमने बड़ा जबरदस्त आईडियलरख दिया। महात्मा जी के एक साल में स्वराज्य पाने वाले आन्दोलन की तरह। मगर तलवार पर पाँव रखना है।

 तुम्हारा धनपतराय

******

 

 उपेन्द्रनाथ अश्क को

गणेशगंज, लखनऊ

25 फरवरी 1932

प्रिय बन्धु,

आशीर्वाद। मुआफ़ करना, तुम्हारे दो खत आये। भिश्ती की बीबीमैंने पढ़ा और बहुत पसन्द किया था। तुमने उर्दू का एक और छोटा-सा चुटकला भेजा था। मैं उसे हिन्दी में दे रहा हूँ। मगर हिन्दी में जो चीजें तुमने अब तक भेजी हैं, उनमें अभी ज़बान की बहुत ख़ामी है। हिन्दी के पत्र देखते रहोगे, तो साल छः महीने में यह त्रुटियों दूर हो जायेंगी। कोई कहानी हमारे लिए हिन्दी में लिखो, मगर कहानी हो फैंसी। नहीं, किसी महान व्यक्ति का जीवन चरित्र हो, तो उससे भी काम चल सकता है। मगर मेरी सलाह तो यही है कि बहुत लिखने के मुक़ाबिले में लिट्रेचर और फिलासफ़ी का अध्ययन करते जाओ। क्योंकि इस वक्त का अध्ययन जिन्दगी भर के लिए उपयोगी होगा।

और तो सब ख़ैरियत।

शुभेच्छुक

धनपतराय

1 टिप्पणी:

  1. दोनो ही पत्र महत्त्वपूर्ण हैं जिन्हें बार बार पढ़ने पर भी मन को तृप्ति नही होती।प्रेमचंद की सहजता देखते ही बनती है।

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