मंगलवार, 21 अक्टूबर 2025

लघुकथा

लक्ष्मी के दो रूप

प्रेम नारायन तिवारी

            दीया कैसे दिये” लक्ष्मी मिट्टी के दीया बेच रहे देहाती व्यक्ति से बोली। दीया बेच रहा व्यक्ति अत्यंत निर्धन लग रहा था। उसे देख ऐसा लग रहा था जैसे महीने भर से उसने न तो अच्छी नींद ली है न भर पेट खाना खाया है।उसके सामने दीयों का ढेर लगा है, मगर ग्राहक इक्का दुक्का आ रहे थे।

    वैसे तो एक दीया एक रुपये का बेच रहा हूँ, मगर जब आप सौ दीया खरीदेंगी तो नब्बे रुपये का दे दूँगा। “दीया बेच रहे व्यक्ति ने लक्ष्मी को आशा भरी नजरों से देखते हुए जबाब दिया।

     माँ माँ यह पटाखे वाले तो लूट रहे हैं, जो पटाखा मैंने पिछले साल दस रुपये का खरीदा था उसका बीस रुपये माँग रहे हैं। “तभी लक्ष्मी का किशोर बेटा आकर के बोला। लक्ष्मी एक बड़े अफसर की पत्नी है। उसके पिताजी भी सरकारी अफसर थे। वह अपने बेटे के साथ दीया पटाखे खरीदने आई थी।

महँगा है तो क्या हुआ, तुम अपने पसंद के पटाखे ले लो। जितना माँगता है उतना रुपये देकर आ जाओ।” लक्ष्मी अपने बेटे का सिर प्यार से सहला कर बोली।

   नब्बे नहीं पचहत्तर रूपया दूँगी, यदि देना हो तो सौ दीया गिन दो। कोई बाजार से खरीदकर नहीं लाये हो, कि तुम्हारी पूँजी फँसी है।” लक्ष्मी मोलभाव करती हुई बोली।

   ठीक है कहकर” वह दीया गिनने लगा। अब वह कैसे बताये कि उसने इन दीयों के लिए कौन-कौन सी पूँजी लगायी है। कैसे बताये कि एक महीने से भर पेट खाना नहीं खाया है। भर पेट खाना खा लेने के बाद बैठकर दीया बनाया ही नहीं जा सकेगा। कैसे बताये कि कच्चे दीया पर कोई जानवर अपने पैर न रख दे की रखवाली में कुत्ते जैसी नींद रही है। कैसे बताये कि दीयों को पकाने के लिए जो ईंधन, लकड़ी, भूसी आदि खरीदा है उसके लिए दस प्रतिशत प्रति माह के ब्याज पर रूपया उधार लिया है।

    ‌लक्ष्मी के जाने के बाद एक दूसरी महिला दीया खरीदने आई। उसके साथ भी उसका किशोर बेटा है।” बाबा दीया कैसे दिये?” उसने पूछा।

   एक रुपये का एक दीया मगर जब सौ दीये---” ।

   चार सौ दीया गिन दो बाबा, मैं पाँच सौ दूँगी। “वह महिला उसकी पूरी बात सुने बिना ही बोली।

   दीया बेचने वाला उस महिला को आश्चर्य से देखने लगा।

   माँ मुझे और रुपये चाहिए, पटाखे महँगे हैं” तभी उस महिला के बेटे ने आकर कहा।

    अब और रुपये नहीं दूँगी, ज्यादा पटाखे खरीदना अच्छी बात नहीं।”

  यदि आप कहो तो आपसे एक बात पूछूँ।” दीया बेच रहा व्यक्ति उस महिला से बोला।

   पूछिए, मगर मुझे आप न कहकर बेटी कहकर सम्बोधित करिये।”

   बेटी एक तरफ तुम मुझे दीयों का दाम बढाकर दे रही हो दूसरी तरफ अपने बेटे को पटाखे के लिए रुपये देने को मना कर रही हो। ऐसा क्यों?”

  क्योंकि मैं भी एक कुम्हार की बेटी हूँ। यह दीया कैसे बनते हैं मुझे पता है। कहाँ से कैसी मिट्टी लगती है इसकी जानकारी है मुझे। मैंने अपने इन हाथों से मिट्टी रौंदकर अपने पिता को थमाया है। जाग जागकर कच्चे दीया की रखवाली की है। अपने पिता को चाक पर दीया बनाने बैठने के लिए आधा पेट खाना खाते देखा है। क्योंकि मेरी पढाई की फीस भरने के लिए मेरे पिताजी आजके दिन का बेसब्री से इंतजार करते थे। “बोलते बोलते उसकी आँखों से आँसूओं के निर्झर झरने लगे।

     बेटी चार सौ दीया हो गया, मगर मैं अपनी बेटी से इसका दाम नहीं लूंगा।”

  मगर मैं तो अपने छोटे भाई बहनों के मिठाई के लिए रुपये जरूर दूँगी। इन्हीं मिट्टी के दीया के रूपयों ने मुझे आज एक इन्जीनियर बनाया है।” ऐसा कहकर वह पाँच सौ के दो नोट जबरदस्ती पकड़ाकर उसका पैर छूकर चली गई।

    दीया वाला लक्ष्मी का दूसरा रूप देखता रह गया। उसे ऐसा लगा जैसे साक्षात लक्ष्मीजी ने ही उसके श्रम को पहचान कर अपना दर्शन दिया हो। उसके हाथ स्वयमेव जुड़ गये थे, सूनी सूनी आँखें भर आयी थीं।


प्रेम नारायन तिवारी

रुद्रपुर, देवरिया

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