लोकमाता अहिल्याबाई होलकर
अपराजिता ‘उन्मुक्त’
लोकमाता अहिल्याबाई होलकर का जन्म 31 मई, 1725 को महाराष्ट्र के चौंडी नामक गाँव में हुआ था। उनके पिता
जी का नाम मानकोजी शिंदे तथा माता जी का नाम सुशीलाबाई था। उनके पिता गाँव के
मुखिया थे और अहिल्याबाई अपने माता-पिता की इकलौती संतान थीं। उस समय स्त्रियों की
शिक्षा का प्रचलन नहीं था, किंतु उनके पिता ने उन्हें घर पर ही शिक्षित किया और सशक्त
बनाया।
अहिल्याबाई शिवजी की परम उपासक थीं और प्रतिदिन शिव आराधना
करती थीं। मात्र दस वर्ष की उम्र में उनका विवाह होलकर वंश के संस्थापक मल्हार राव
होलकर के पुत्र खांडेराव होलकर से हुआ। स्वभाव से सरल और सहज अहिल्याबाई ने
विवाहोपरांत अपने सद्गुणों से परिवार के सभी सदस्यों का हृदय जीत लिया। कुछ समय
बाद उन्हें एक पुत्र और एक पुत्री की प्राप्ति हुई।
लेकिन उनका जीवन जल्द ही दुख की छाया में आ गया। मात्र 29 वर्ष की उम्र में उनके पति खांडेराव होलकर का निधन हो गया।
यह आघात उनके लिए असहनीय था, और वे सती होना चाहती थीं। किंतु उनके ससुर मल्हार राव ने
उन्हें यह कहते हुए रोका कि “यदि तू भी चली गई तो इस राजपाट और परिवार का क्या
होगा? अब तू ही मेरी पुत्री है और पुत्र भी।” इस भावुक आग्रह ने अहिल्याबाई को सती
होने से रोक दिया।
1766 ई. में मल्हार राव का भी निधन हो गया। यह एक और बड़ा आघात
था, क्योंकि
वे न केवल उनके ससुर थे, बल्कि उनके गुरु भी थे। किन्तु इन दुखों ने अहिल्याबाई के
साहस को तोड़ा नहीं। उन्होंने राज्य संचालन का दायित्व अपने हाथ में लिया और
प्रजाहित में समर्पित हो गईं।
होलकर सेना और सेनापति तुकोजीराव,
जो मल्हार राव की गोद लिए हुए संतान थे,
ने उनका पूर्ण साथ दिया। अहिल्याबाई ने न केवल शासन संभाला,
बल्कि महिलाओं की सेना भी गठित की और उन्हें शस्त्र ज्ञान
से सुसज्जित किया।
1765 में मल्हार राव के नेतृत्व में गोहार्ड किला पर विजय
प्राप्त की गई। एक अन्य अवसर पर जब रघोबा ने होलकर राज्य पर आक्रमण की धमकी दी,
तो अहिल्याबाई ने अपने साहसिक संदेश से ही युद्ध टाल दिया।
उन्होंने कहा—“आपने मुझे अबला समझा है, लेकिन यदि आप मुझसे हार गए तो कलंकित होंगे।” इस निर्भीक
संदेश ने रघोबा को युद्ध का विचार त्यागने पर विवश कर दिया।
उनके शासनकाल में कभी कोई युद्ध नहीं हुआ। उन्होंने सदैव
शांति, न्याय और विकास को प्राथमिकता दी। मराठी कवि मोरोपंत,
साहिर अनंत पहांडी,
खुशहाली राम जैसे विद्वान उनके दरबार की शोभा बढ़ाते थे।
उन्होंने भारतीय संस्कृति के संरक्षण हेतु अनेक मंदिरों का
निर्माण करवाया, यात्रियों के लिए आश्रम, कुएं और धर्मशालाएं बनवाईं। उनकी नई राजधानी माहेश्वर आज भी
उनकी दूरदर्शिता और विकास की साक्षी है—जहाँ की “माहेश्वरी साड़ी” विश्वप्रसिद्ध
है। बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण भी उनके ही पुण्य प्रयासों का
परिणाम है।
13 अगस्त 1795 को, 70 वर्ष की आयु में यह महान महिला योद्धा इस संसार से विदा हो
गईं। परंतु उनका यश, पराक्रम और लोककल्याण आज भी भारत ही नहीं,
विदेशों तक में स्मरणीय है।
लोकमाता अहिल्याबाई होलकर,
जो होलकर राज्य के लिए यशस्वी सूर्य के समान थीं,
सदा हमारे हृदय में जीवित रहेंगी।
कविता
रूप वो भवानी का देवी अहिल्या है।
देवी का स्वरूप जो,
करुणा का रूप जो,
धर्म प्रतिरूप जो, त्याग अनुरूप जो,
शांति दीप पुंज जो,
धैर्य का है कुंज जो,
निर्बलों का बल है जो,
न्याय का है गूंज जो।
रूप वो भवानी का देवी अहिल्या है।
विश्व का कल्याण जो,
स्वदेश का उत्थान जो,
सभ्यता का मान जो, संस्कृति का सम्मान जो,
मालवा का स्वाभिमान जो,
मराठा का गुमान जो,
हिंदुत्व का अभिमान और स्त्रियों में महान जो।
रूप वो भवानी का देवी अहिल्या है।
अग्नि सी ऊर्जावान जो,
सूर्य कीर्तिमान जो,
रानी दयावान जो, गुणों का बखान जो,
पर्वत सी धैर्यवान जो,
हर युग का गौरवगान जो,
स्वत्व की पहचान जो,
ज्ञान से धनवान जो।
रूप वो भवानी का देवी अहिल्या है।
शिव की उपासिका सनातन को साधिका जो,
मुश्किलों से लड़ती थी रानी वो चंडिका जो,
दुश्मन भी डरते थे,
देवी वो कालिका जो,
जीवन की पालिका समाज की सुधारिका जो।
रूप वो भवानी का देवी अहिल्या है।
शिष्या मल्हार की परिभाषा उपकार की जो,
थाती संजोया जिसने पुनरुत्थान संसार की जो,
आचरण की शुद्ध जो, सरलतम व्यवहार की जो,
माँ भारती के आंचल की अनुपम उपहार जो।
रूप वो भवानी का देवी अहिल्या है।
पुण्यश्लोकावाहिनी वसुंधरा को तारिणी जो,
गंगा सी निर्मल पावनी,
दुर्गा सी देवी दामिनी जो,
जगत की लोकमाता, सीता सी सुहासिनी जो,
आत्मा की शुद्धतम देव पथगामिनी जो।
रूप वो भवानी का देवी अहिल्या है।
अपराजिता ‘उन्मुक्त’
उत्तराखंड राज्य (हरिद्वार)
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