विजयनगर साम्राज्य: एक गौरवशाली युग की गाथा
सुरेश चौधरी
विजयनगर
के शासकों के अधीन धर्म के पुनरुत्थान की अंतर्निहित भावना को मनु और कौटिल्य से
लेकर तिरुवल्लुवर तथा सायनाचार्य (विजयनगर सम्राटों के दरबार में वैदिक विद्वान, बुक्का
राय प्रथम और उनके उत्तराधिकारी हरिहर प्रथम) तक हिंदू कानूनविदों का समर्थन मिला।
धर्म व्यवस्था पुनः स्थापना हेतु महान ऋषि विद्यारण्य (माधवाचार्य) का हरिहर और
बुक्का राय को आमंत्रित करना उस कथन का प्रतीक था जिसका उल्लेख प्राचीन भारतीय
राजनीतिक ग्रंथों में मिलता है।
विजयनगर
साम्राज्य,
जिसे करात साम्राज्य के रूप में भी जाना जाता है, की
स्थापना 1336
में हरिहर प्रथम और बुक्का राय प्रथम भाइयों द्वारा की गई थी। दोनों भाई दिल्ली
में मुहम्मद बिन तुगलक के बंदी थे और उन्हें इस्लाम में परिवर्तित होने के लिए
मजबूर किया गया था। हालाँकि,
बाद में जब वे कम्पीली आए, तो
अद्वैत के एक प्रतिष्ठित विद्वान विद्यारण्य (माधवाचार्य) के मार्गदर्शन में, दोनों
फिर से हिंदू बन गए,
अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर तुंगभद्रा नदी के दक्षिण तट पर
विजयनगर (विजय का शहर) नामक नया शहर बसाया तथा दक्षिण भारत के बड़े हिस्से में
शांति-व्यवस्था बहाल की। चूँकि वे संगम के पुत्र थे, इसलिए
इनके द्वारा स्थापित वंश को को संगम राजवंश कहा जाता था। इस राजवंश के बाद सलूवा, तुलुवा
और अरविदु राजवंशों ने विजयनगर को अपनी राजधानी बनाकर दक्षिण भारतीय और दक्कन के
एक भाग पर शासन किया तथा दो शताब्दियों से अधिक समय तक इस्लामी आक्रमण से अपने
साम्राज्य की रक्षा की।
विजयनगर
साम्राज्य अपने शासकों द्वारा विकसित सुव्यवस्थित प्रशासनिक प्रणाली के कारण दो
शताब्दियों से अधिक समय तक अस्तित्व में रहा और इस दौरान आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक
एवं सामाजिक क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति हुई। विजयनगर साम्राज्य का शासक
प्रबुद्ध और परोपकारी था जो धर्मशास्त्रों के अनुसार शासन करता था। वह राज्य का
मुखिया था और उसे पृथ्वी पर भगवान का प्रतिनिधि माना जाता था। राजा नागरिक, सैन्य
और न्यायिक मामलों में सर्वोच्च अधिकारी था। यद्यपि, राजा
की सहायता और मार्गदर्शन मंत्रिपरिषद करती थी। विजयनगर साम्राज्य अपनी प्रांतीय
सरकार के लिए प्रसिद्ध है,
जिसे प्रशासन की नयनकर प्रणाली कहा जाता है, इस
प्रणाली में राजा वेतन के बदले अधिकारियों को जमीन देते थे, अर्थात
अधिकारी जमीन से ही अपना तथा अपनी सेना का भरण-पोषण करते थे। साम्राज्य प्रांतों
(प्रांत),
जिलों (नादुस),
और गाँव (मेलाग्राम और ग्राम) में विभाजित था। गाँवों का
प्रशासन स्वायत्त था। अराविडु वंश के कृष्णदेव राय (1471-1529) विजयनगर
साम्राज्य के शासकों में सबसे योग्य शासक थे और भारत के सभी मध्ययुगीन शासकों में
उनका स्थान सबसे ऊपर था। कुशल प्रशासन के लिए प्रसिद्ध, वह
अपनी प्रजा के कल्याण के प्रति अत्यंत सचेत थे। उनके शासनकाल में कला, वास्तुकला
और धर्म का अत्यधिक विकास हुआ।
विजयनगर
साम्राज्य लगभग तीन शताब्दियों तक दक्षिण भारत में हिंदू संस्कृति, धर्म, कला
एवं प्रशासन का केंद्र बना रहा। इस साम्राज्य के शासकों ने चार प्रमुख वंशों –
संगम,
सलूवा,
तुलुवा और अरविदु – के अंतर्गत शासन किया। प्रत्येक वंश ने
अपने-अपने समय में सैन्य,
आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से साम्राज्य को सशक्त बनाया।
शासन
व्यवस्था अत्यंत संगठित थी। राजा को धर्मशास्त्रों के अनुसार शासन करने वाला माना जाता
था,
और उसे पृथ्वी पर भगवान का प्रतिनिधि समझा जाता था। राजा
नागरिक,
सैन्य और न्यायिक मामलों में सर्वोच्च अधिकारी था, लेकिन
उसे मंत्रिपरिषद का सहयोग प्राप्त होता था। इस परिषद में प्रधानमंत्री (महाप्रधान), दंडनायक
(सेनापति),
कोशाध्यक्ष (राजकोष प्रमुख), और
अन्य उच्च पदस्थ अधिकारी होते थे।
विजयनगर
साम्राज्य की प्रशासनिक प्रणाली को 'नायककर
प्रणाली'
कहा जाता था। इस प्रणाली में राजा अपने सैन्य और प्रशासनिक
अधिकारियों को वेतन के बजाय भूमि प्रदान करता था, जिससे
वे अपने क्षेत्र का प्रबंधन कर सके और अपनी सेना का भरण-पोषण कर सके। इस प्रणाली
ने साम्राज्य को मजबूत सैन्य आधार प्रदान किया। साम्राज्य को विभिन्न प्रांतों
(मंडलम),
जिलों (नादु),
और गाँवों (ग्राम) में विभाजित किया गया था, और
गाँवों का प्रशासन स्वायत्त था।
तुलुवा
वंश के शासक कृष्णदेव राय (1509-1529)
को विजयनगर साम्राज्य का सबसे महान राजा माना जाता है। वे न
केवल एक कुशल शासक और योद्धा थे,
बल्कि एक विद्वान और कला संरक्षक भी थे। उनके शासनकाल में
विजयनगर की समृद्धि चरम पर थी। उन्होंने कला,
वास्तुकला,
साहित्य और सैन्य संगठन को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया।
विजयनगर
साम्राज्य के इतिहास में अष्ट दिग्गज (अष्ट दिग्गज राज्यसभा) का उल्लेख प्रमुखता
से किया जाता है। ये राजा कृष्णदेवराय (1509-1529)
के शासनकाल में उनकी दरबार के आठ महान विद्वान, योद्धा, और
मंत्री थे,
जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में अपनी अद्वितीय क्षमता का
प्रदर्शन किया। ये अष्ट दिग्गज निम्नलिखित थे:
आल्लासानी पेद्दन्ना -
इन्हें "आंध्र कवितापितामह" कहा जाता है। वे कृष्णदेवराय के दरबार के
प्रमुख कवि और विद्वान थे। उनकी रचनाओं में मनुचरित्रम प्रसिद्ध है।
नंदी तिम्मना - वे महान कवि और
विद्वान थे। उनकी प्रमुख कृति पारिजातापहरणम् है।
मधुरारी - वे कवि और विद्वान थे, जिन्होंने
संस्कृत और तेलुगु दोनों भाषाओं में उत्कृष्ट कृतियाँ रचीं।
भट्ट मुरारी - ये कृष्णदेवराय के
दरबार के प्रसिद्ध विद्वान और संस्कृत के महान कवि थे।
धूर्जटी - ये "कालहस्ती कवि" के रूप में प्रसिद्ध थे।
उन्होंने कई आध्यात्मिक और भक्ति-प्रधान कविताएँ रचीं।
तेनाली रामकृष्ण - ये दरबार के हास्य
और बुद्धिमत्ता के प्रतीक थे। उन्होंने अपने चतुराई भरे किस्सों और कविताओं से
राजा का मनोरंजन और समस्याओं का समाधान किया।
आय्यल राजु रामभद्रु -
वे महान योद्धा और राजनीतिज्ञ थे,
जो प्रशासन और युद्ध नीति में निपुण थे।
पिंगली सूरन्ना - ये तेलुगु के महान
कवि थे और उन्होंने कालीविलासम नामक काव्य लिखा।
ये अष्ट दिग्गज न केवल कला और साहित्य के क्षेत्र में महान
थे,
बल्कि प्रशासन और साम्राज्य को मजबूत करने में भी उनका
योगदान अमूल्य था।
सुरेश चौधरी
एकता हिबिसकस
56 क्रिस्टोफर रोड
कोलकाता 700046
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें