मंगलवार, 25 फ़रवरी 2025

शब्द संज्ञान

अंतरराष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय

अंताराष्ट्रिय/अंताराष्ट्रीय

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

 

हिन्दी सहित सभी भरतीय भाषाओं में चलने वाले शब्द दो प्रकार के हैं  -

वे शब्द, जिन्होंने अपने विकास के पथ पर चलते हुए -  लुढ़कते हुए अपना स्वरूप और आकार धारण किया है। ऐसे शब्दों का निर्माण कोई व्यक्ति नहीं करता। उनके अर्थ का निर्धारण भी कोई व्यक्ति नहीं करता। ऐसे शब्द किसी भाषाभाषी समाज के सामूहिक मानस में बनते-बिगड़ते हुए अपनी यात्रा तय करते हैं। अपनी परंपरा में उनकी जड़ें बहुत गहरी होती हैं।

दूसरे प्रकार के वे शब्द हैं, जो अंग्रेजी के शब्दों के अनुवाद हैं। उन्हें भाषाविज्ञान की भाषा में 'आगत अनूदित शब्द' कहा जाता है। ऐसे शब्द आवश्यकतानुसार बनाए गए हैं। इस सत्य से किसी को इनकार नहीं होगा कि पूरे भारत में आधुनिकता का प्रवेश अंग्रेजी शिक्षा के साथ हुआ। ज्ञान-विज्ञान के नाना प्रकार के वातायन अंग्रेजी शिक्षा के साथ खुले। हर क्षेत्र की नयी-नयी अवधारणाएँ हमारे जीवन में आईं। परंतु नयी-नयी अवधारणाओं को अभिव्यक्त करने वाले शब्दों का हमारी भाषाओं में अभाव था। इसलिए नये-नये शब्द बनाने पड़े। शब्द हमारे थे। परंतु उनमें निहित अर्थ आयातित थे। हमारी भाषाओं में ऐसे अनगिनत शब्द हैं। उनकी खोज अलग अध्ययन का विषय हो सकता है।

ऐसे शब्द एक निश्चित अर्थ में रूढ़ होते हैं। यही कारण है कि एक ही शब्द का प्रयोग हमारी अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग अर्थों में होता है। एक शब्द है ‘स्वाध्याय’। हिन्दी में यह ‘सेल्फ स्टडी’ के अर्थ में चलता है, तो गुजराती में एक्सरसाइज के अर्थ में चलता है। परंतु एक्सरसाइज शब्द के लिए हिन्दी में ‘अभ्यास’ शब्द प्रयुक्त होता है। परंतु ‘अभ्यास’ शब्द गुजराती में अंग्रेजी के स्टडी के अर्थ में प्रयुक्त होता है।

ऐसे शब्द अंग्रेजी शब्दों के पर्याय के रूप में चलते हैं। ऐसे शब्दों के अर्थ उनकी व्युत्पत्ति में नहीं ढूँढ़े जा सकते।

अंग्रेजी का ऐसा ही एक शब्द है इंटरनेशनल। इस शब्द के लिए आरंभ से ही अंतर्राष्ट्रीय शब्द प्रयोग में था। बिना किसी विघ्न-बाधा के चल रहा था। परंतु आगे चलकर केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय ने इसमें विघ्न पैदा कर दिया। देवनागरी लिपि तथा हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण नामक निदेशालय की पुस्तिका का प्रथम संस्करण १९८३ में निकला। उसका दूसरा संस्करण १९८९ में निकाला। इन दोनों संस्करणों में अंतर्राष्ट्रीय को ही स्वीकार किया गया है। परंतु बाद के किसी संस्करण के पंडितों को न जाने क्या सूझा कि उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय को अंतरराष्ट्रीय कर दिया। जब कर ही दिया तो विवाद होना स्वाभाविक है। विवाद की स्थिति में अपने को सही और दूसरे को गलत सिद्ध करने के तर्क/कुतर्क गढ़े जाते हैं।

फिर तो अंग्रेजी के in inter intra जैसे शब्दों के अर्थों की सूक्ष्म व्याख्याएँ की गईं। इतना ही नहीं, संस्कृत के अंतः अतर् अंतर शब्दों के साथ अंग्रेजी के शब्दों के अर्थों की संगति बैठाने के तर्क दिए गए।

मजे की बात यह है कि स्वयं को सही साबित करने के लिए जिस संस्कृत का सहारा लिया गया, वह संस्कृत ही अंतरराष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों को अशुद्ध मानती है। संस्कृत व्याकरण के अनुसार अन्ताराष्ट्रीय या अन्ताराष्ट्रिय शुद्ध है।

अब आप क्या कहेंगे?

यह तो स्पष्ट है कि अंतर्राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय एक ही शब्द के दो लिखित रूप हैं।

अंतर्राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय तथा अंताराष्ट्रिय/अंताराष्ट्रीय शब्दों के प्रयोगकर्ता तीन प्रकार के लोग हैं। अंताराष्ट्रीय तथा अंताराष्ट्रिय का संस्कृत के लोग करते हैं।

सरकारी तथा सरकारी तंत्र से जुड़े लोग दूसरे श्रेणी में आते हैं, ‘अंतरराष्ट्रीय’ का प्रयोग सरकारी तथा सरकारी तंत्र से जुड़े लोगों के लिए एक बाध्यता है। सरकारी संस्थान केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय की स्थापनाओं को मानना उनकी बाध्यता है।

तीसरी श्रेणी में वे लोग आते हैं, जिनके सामने कोई बाध्यता नहीं है। वे लोग अंतर्राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय दोनों का प्रयोग अपनी-अपनी आदत के अनुसार करते हैं।

अब प्रश्न है कि यह परिस्थिति पैदा किसने की?

जाहिर है, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय की पुस्तिका देवनागरी लिपि तथा हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण के विशेषज्ञों ने।

कल को यदि निदेशालय यह निर्देश जारी कर दे कि अंतरराष्ट्रीय के स्थान पर अंतर्राष्ट्रीय का प्रयोग पूर्ववत् जारी रहेगा, तो सारी दुविधा एक पल में समाप्त हो जाएगी। निदेशालय ऐसा करता रहता है।

बाकी बातें आप तय करें कि क्या सही है – अंतर्राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय?

 

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

40, साईंपार्क सोसाइटी, वड़ताल रोड

बाकरोल-388315,

आणंद (गुजरात)

 

 

 

 



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