संत
रविदास
प्रो. हसमुख
परमार
समाज में मनुष्यता का प्रचार और उसकी
स्थापना करना ही संत का मूल स्वभाव, संतत्व की बुनियादी पहचान तथा संत आचरण का
मुख्य ध्येय रहा है । पूरे विश्व में भारत वर्ष को गौरवान्वित करने वाली उसकी कुछ
अति विशेष प्राप्तियों-उपलब्धियों में यहाँ के ॠषि-मुनियों, संत-महात्माओं व
भक्तों का जीवन व उनकी वाणी भी बहुत महत्त्वपूर्ण है । भारतभूमि पर युगों-युगों से
उच्च कोटि के संतों-भक्तों का अवतरण होता रहा है । भक्ति, ज्ञान, दर्शन तथा आचरण
में प्रेम, धैर्य, दया, विवेक, सत्य, सेवा, अहिंसा, क्षमा, परोपकार प्रभृति गुणों
को प्रकट कर समाज में एकता और समानता का प्रतिनिधित्व करने वाले भारतीय संतों की
परंपरा में मध्यकालीन निर्गुण संतों का महत्व कुछ ज्यादा ही रहा है । “भारतीय
साहित्य क्षेत्र में संतों का योगदान तो अपूर्व है ही, सांस्कृतिक नेता के रूप में
भी इनका स्थान अप्रतिम है । भावात्मक एकता का जो प्रयास आज देश के जागरूक लोगों
द्वारा हो रहा है, गत पाँच शताब्दियों से वही प्रयास इस देश के संतों द्वारा ही
होता आया है । संतों का यह सांस्कृतिक आंदोलन अखिल भारतीय है ।” (मध्यकालीन हिन्दी
और गुजराती निर्गुण काव्य, डॉ. पी.एस.भोई, ‘भूमिका’ से)
संत
कबीर की दृष्टि से –
निरबैरी
निहकामता, साईं सेती नेह ।
विषया
सूँ न्यारा रहे, संतन का अंग एह ।।
संतजन के परोपकारी स्वभाव के बारे में
गरीबदास कहते हैं –
वृक्ष
नदी अरु साधुजन तीनों एक सुभाव ।
जल
न्हावे फल वृक्ष दे साधु लखावे नाँव ।।
उक्त उम्दा गुणों
से संपन्न हमारे संत-भक्त व्यक्तित्वों का सामाजिक समरसता में अप्रतिम योगदान रहा
है । इनकी वाणी व व्यवहार भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर है । ये सभी संत ज्ञान,
भक्ति और दर्शन के साथ-साथ मनुष्यता के भी बडे आदर्श व्याख्याता थे ।
भारतीय
संत परंपरा में, विशेषतः मध्यकालीन हिन्दी निर्गुण संत कवियों में संत रविदास या
संत रैदास का विशिष्ट स्थान है । माघ पूर्णिमा को संत रैदास की जन्म
जयंती मनाई जाती है । वैसे अन्य कई संत कवियों की भाँति संत रैदास के जन्मवर्ष
व जीवनवृत्त को लेकर भी विद्वानों में
मतैक्य नहीं है । ‘ रैदास की परिचई’ में
जन्मकाल का उल्लेख नहीं है । ‘भक्तमाल’ और डॉ.भण्डराकर के अनुसार उनका जन्म 1299
ई. में हुआ । भगवतव्रत मिश्र ने उनका जन्म 1398 ई. में बताया, और डॉ.गोविंद त्रिगुणायत
सं.1471 में रैदास के जन्म को मानते हैं । जनश्रुति के अनुसार संत रविदास ने 126
या 120 वर्ष की आयु प्राप्त की थी । आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मतानुसार रामानंदजी के बारह शिष्यों में रैदास भी माने
जाते हैं जो जाति के चमार थे और कबीरदास के समान वे भी काशी के रहने वाले कहे जाते
हैं । रैदास की जाति तथा उनके काशी निवासी होने की बात की पुष्टि हेतु शुक्ल जी
उनके कुछ पद रखते हैं, यथा-
· कह रैदास
खलास चमारा ।
· ऐसी मेरी
जाति विख्यात चमार ।
·
जाके कुटुंब सब ढोर ढोवंत
फिरहिं अजहुँ
बनारसी आसपास ।
आचार सहित बिप्र करहिं डंडउति
तिन तनै
रविदास दासानुदासा ।।
रैदास के रामानंदजी के शिष्य होने के बारे
में एक मत है कि “ अनन्तदास द्वारा लिखित ‘परिचई’ और प्रियादास के ‘सटीक भक्तमाल’
के अनुसार रैदास को स्वामी रामानंद ने दीक्षा दी थी, किन्तु रैदास की रचनाओं में
कहीं भी रामानंद का उल्लेख न होने से इस
विषय में शंका होती है । ” ( हिन्दी साहित्य का इतिहास, सं. डॉ.नगेन्द्र, पृ. 146
) हाँ, कुछ अध्येताओं का अनुमान यह जरूर है कि बनारसी निवासी होने के कारण
रैदास स्वामी रामानंद के महत्व से परिचित-प्रभावित होकर उनके शिष्य हो गये होंगे ।
ज्ञान, उज्ज्वल चरित्र, उम्दा आचरण आदि
किसी विशेष जाति, वर्ग या लिंग से ही संबद्ध नहीं होता । कबीर कहते हैं-
जाति न
पूछो साधो की, पूछ लीजिए ज्ञान ।
मोल करो
तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ।।
दरअसल व्यक्ति का महत्त्व उसका किसी विशेष
जाति में जन्म लेने-होने से नहीं, अपितु उसके कर्म, ज्ञान, गुण-संस्कार, सद् विचार
से होता है
रविदास
जन्म से कारनै होत न कोउ नीच
नकर कूँ
नीच करि डारि है
ओछे करम
की कीच ।
जातिगत भेदभाव का विरोध करते हुए मध्यकालीन
संत कवियों ने प्रेम, एकता, समानता व भाईचारा का संदेश दिया । ज्ञान और भक्ति के
साथ-साथ समाजसुधार का भी कार्य कर रहे इन संतों की सूची में संत रविदास का नाम भी
विशेष उल्लेखनीय है । “ मध्ययुगीन साधकों में रैदास अथवा रविदास का विशिष्ट स्थान
है । निम्न वर्ग में समुत्पन्न होकर भी उत्तम जीवन शैली, उत्कृष्ट साधना पद्धति और
उल्लेखनीय आचरण के कारण वे आज भी भारतीय धर्म-साधना के इतिहास में सादर स्मरण किये
जाते हैं । ( हिन्दी साहित्य का इतिहास,
सं- डॉ. नगेन्द्र, पृ.146 )
संत रविदास की वाणी, अर्थात उनके पदों को लेकर
उनके नाम से कोई स्वतंत्र ग्रंथ उपलब्ध नहीं है । इनके विविध पद दो ग्रंथों में
संकलित हैं- ‘संतबानी सीरीज’ में ‘बानी’ नाम से तथा ‘आदि गुरु ग्रंथ साहिब’ में
लगभग चालीस पद ।
ज्यादातर संतों-भक्तों ने गृहस्थ जीवन को
अपनी भक्ति व साधना के मार्ग में बाधक नहीं माना । कबीर आदि संतों के सदृश रैदास
भी गृहस्थ थे, और गृहस्थ जीवन जीते हुए भी उन्होंने अनेक सिद्धियाँ-सामर्थ्य
प्राप्त किया । अध्येताओं-शोधार्थियों के अध्ययन के माध्यम से इस बात की जानकारी
मिलती है कि रैदास की पत्नी का नाम लोना तथा उनका एक पुत्र जिनका नाम विजयदास था ।
अपने गृहस्थ व व्यावहारिक जीवन के साथ साथ भक्ति-अध्यात्म-साधना के प्रति समर्पित
इस महात्मा के व्यक्तित्व ने अगणित लोगों को ज्ञान व उपदेश हेतु आकर्षित किया ।
ऐसे लोगों के साथ संत रैदास का सत्संग क्रम बराबर चलता रहता था । “ संत रैदास
सच्चे ईश्वर भक्त थे । वे पूजा किये बिना जल तक ग्रहण न करते थे । आपने अपने ही स्थान
पर भगवान का मंदिर बनाया जिसमें निरंतर भजन, कीर्तन तथा उपदेश होते रहते थे ।
उन्होंने अपने गुरुभाई कबीर, धन्ना, पीपा
आदि के साथ मिलकर भारत का भ्रमण किया और निराशाग्रस्त जनता को आशा का संदेश पहुँचाया ।...... उनके
अनेकों शिष्य हुए जिनमें प्रसिद्ध भक्त नारी मीराबाई भी एक थीं ।” (महापुरुषों के
प्रेरक जीवन प्रसंग, पं.श्रीराम शर्मा, पृ. 2.3)
यह
उक्ति भारतीय जन समुदाय में बड़ी प्रसिद्ध है –
‘मन चंगा
तो, कठौती में गंगा’
एक कहावत के रूप में प्रयुक्त होने वाला यह
कथन मनुष्य के मन की पवित्रता व आचरण की शुद्धता को बखूबी बताता है, और अंतःकरण की
शुद्धता-भावों-विचारों की निर्मलता से जुड़े मंत्र रूपी इस कथन को कहने वाले थे संत
रविदास ।
तत्कालीन परिस्थितियों के अनुकूल संत रैदास ने
हिन्दू धर्म का महत्त्व, ईश्वर में प्रबल आस्था व विश्वास तथा गुलामी का विरोध आदि
से संबंधित उनके पद भारतीयों में एक जागरुकता का संदेश प्रचारित कर रहे थे, जिसकी
प्रासंगिकता आगे भी बनी रही ।
·
हरि-सा हीरा छोडि के, करै आन की आस ।
ते नर नरकै जायँगे, सत भाषै रैदास ।।
· पराधीन का दीन क्या, पराधीन वेदीन ।
पराधीन पर दास को, सब ही समझैं हीन ।।
इसमें कोई संदेह नहीं कि अपने स्वभाव, आचरण,
मान्यताएँ, अपने धार्मिक सामाजिक सरोकारों
को लेकर लगभग सभी निर्गुण संत कवियों में एक ख़ास प्रकार की साम्यता रही है,
किन्तु अपनी शैली को लेकर कुछ संत कवियों
में कहीं कहीं भिन्नता जरूर दिखती है ।
जैसे कबीर, रैदास और दादू, इन तीनों की जब बात करते हैं तो जैसे कबीर के मतानुयायी
होने पर भी दादूदयाल में कबीर जैसी अक्खड़ता तथा आक्रमकता बिल्कुल नहीं है, उसी तरह
रैदास के बारे में कहा जाता है कि “ कबीर के कटु प्रहारों के समकालीन ही रैदास
मधुर तथ्यों से समाज को समझा रहे थे । निष्कलुष कर्मण्य जीवन के माध्यम से उनका
विनयितापूर्ण स्वर ही उनके काव्य में अभिव्यक्ति पा सका है । ” ( बृहत् साहित्यिक
निबंध, डॉ. यश गुलाटी, पृ. 353 )
असल में सादा जीवन और उच्च विचार वाले ये संत
कवि बड़ी निर्भीकता से सामाजिक असमानताओं- विषमताओं का, धार्मिक बाह्याडंबरों-
बाह्यविधानों का विरोध करते हैं । इनका मनुष्यता का स्वर बड़ा बुलंद रहा । “ इनकी
जीवन दृष्टि मूलतः मानवतावादी थी इसलिए छीपी, दर्जी, नाई, जुलाहा, चमार और राजा
सभी एक भक्ति सूत्र में पिरोये जाकर ‘सन्त माला’ के जगमगाते ‘माणिक’ बन गए । गत छह-सात
शताब्दियों में भारत में हजारों संत-समुदायों ने जन्म लिया, लेकिन इस मानवतावादी
दृष्टि से कोई भी दूर न रह सका । धर्म, अर्थ, कर्म व जाति के आधार पर मानव-समाज का
विभाजन किसी ने भी स्वीकार न किया । ” (वही, पृ. 356)
जातिगत भेदभाव, ऊँच-नीच की भेद रेखा मिथ्या
ज्ञानजन्य है । सभी एक ही माटी से बने-गढे हैं, आकार भले भिन्न, पर मूलतः सभी एक
हैं । संत रैदास कहते हैं-
एकै माटी
के सभ भांडे
सभ का
एकवै सिरजनहार
रविदास
व्यापै एकै घट भीतर
सभ कौ एकै
घडै कुम्हार ।
संत
रविदास के कुछ और प्रसिद्ध पद देखिए-
·
प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी,
बाकी अंग अंग बास समानी ।
·
प्रभु जी तुम मोती हम धागा,
जैसे सोने मिलत सुहाग ।
·
जब हम होते तब तू नाहीं, अब तू ही, मैं
नाहीं ।
अतल अगम जैसे लहरि मई उदधि, जल केवल
जलमाहीं ।।
·
माधव क्या कहिए प्रभु ऐसा, जैसा मानिए होई न तैसा ।
नरपति एक सिंहासन सोइया, सपने भया भिखारी
।।
अछत राज बिछुरन दुखु पाइया, सो गति भई
हमारी ।
·
हम जानौं प्रेम प्रेमरस , जाने नौबिधि भक्ति
स्वांग देखि सब ही जग लटके आपन पौर बधाई ।
प्रो.
हसमुख परमार
स्नातकोत्तर
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