शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

आलेख

 


हिन्दी

सुरेश चौधरी

संविधान के अनुच्छेद 8 में वर्णित भाषाओं की सूची जब देखते हैं तो हमें हिंदी के साथ उसकी सहचरी भाषाओं का वर्णन नहीं मिलता मात्र मैथिली छोड़ कर। अतः हम कह सकते हैं कि हिंदी में समाहित सभी सहचरी भाषाओं को हिंदी के साथ जोड़ कर देखना होगा, अन्यथा हिंदी का इतिहास तो मात्र 200 वर्ष पुराना भी नहीं है। आज की हिंदी की बात करें तो इसका पहला समाचार पत्र कोलकाता से 1826 में “उदंत मार्तण्ड” निकला था पहला उपन्यास 1882 में लाल श्रीनिवास दास ने “परीक्षा गुरु” नाम से लिखा था, हिंदी में प्रथम कहानी 1803 में सैयद इंशा अल्ला खान की “रानी केतकी की कहानी”  मानी जाती है। इस प्रकार हम देखते हैं वर्तमान हिंदी का उद्भव 1800 ईसवीं के पश्चात ही हुआ है। इसके पूर्व हिंदी की सहचरी भाषाएँ थी और उनमें ही साहित्य सृजन हुआ। अब जब सहचरी भाषाओं की बात करें तो मुख्यतः ये हैं अवधी, ब्रज, कन्नौजी, बुंदेली, बघेली, हाड़ौती, भोजपुरी, हरियाणवी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, नागपुरी, खोरथा, पंच परगनिया, कुमाउनी, मगही, मेवाती। इसके क्षेत्र की बात करें तो वर्तमान के हिमांचल, उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड का कुछ क्षेत्र और बिहार आते हैं।

उपरोक्त भाषा के साहित्य को हिंदी के साहित्य से जोड़ते हैं तो विभिन्न साहित्यकारों ने काल विभाजन चार प्रकार से किया है।

1.व्यक्ति विशेष के अनुसार जैसे भारतेंदु युग, प्रसाद युग इत्यादि।

2. प्रवृति के आधार पर, जैसे भक्तिकाल, रीतिकाल, छायावाद, प्रगतिवाद।

3. विकास वादिता के आधार पर जैसे आदिकाल, मध्य काल, आधुनिक काल।

4. घटनाओं के आधार पर जैसे राष्ट्रीय धारा, स्वातंत्र्योत्तर, स्वच्छन्दता वाद इत्यादि।

अब अलग अलग चिंतकों और शोधकर्ताओं ने इन काल को अलग अलग नापा है। 700 ई. से 1400 ई. तक आरम्भिक काल या वीरगाथाकाल फिर 1700 तक भक्ति काल, 1900 तक रीतिकाल 1984 तक आधुनिक काल तत्पश्चात प्रगतिवाद ।

मेरा अपना मानना है कि 700 से 1030 तक हिंदी के किसी प्रमुख काव्य का कोई विवरण नहीं मिलता सर्वप्रथम पृथ्वीराज रासो का विवरण है जो 1165 के मध्य लिखा गया बताते हैं।

चूँकि 700 के बाद संस्कृत के भी बहुत महत्वपूर्ण ग्रन्थों का विवरण नहीं है, अतः 700 से 1100 तक का काल संधि काल कहा जा सकता है और निर्विवाद रूप से यह तय है कि 700 ई तक संस्कृत साहित्य की मुख्य भाषा थी। यूँ तो ईसा से 500 वर्ष पूर्व पालि और प्राकृत को हम देख पाते हैं जो संस्कृत से अपभ्रंश होकर आयी थी । मुख्य रूप से पालि में बौद्ध एवं जैन ग्रन्थ पाए गए हैं ।

700 से 1100 का समय मैं संधिकाल इसलिये भी कहता हूँ क्योंकि किसी भाषा के रूपांतर होने में एक बड़े कालखण्ड का होना आवश्यक है। यूँ तो 700 के बाद श्री हर्ष, राजशेखर, वाणभट्ट इत्यादि देखने को मिलते हैं।

सातवीं सदी तक संस्कृत सामान्य रूप से जनमानस की मुख्य भाषा थी , जो ग्यारहवीं  सदी आते आते केवल आचार्यों की भाषा रह गयी और उसके जगह हिंदी की सहचरी क्षेत्रीय भाषाओं ने स्थान ले लिया। ग्यारहवीं सदी के आसपास सर्वप्रथम यवनों के आक्रमण का भी विवरण है। उसके पहले सातवीं सदी में आक्रमण का विवरण मिलता है। यूँ देखें तो सातवीं सदी से ग्यारहवीं सदी के मध्य का साहित्य ही नहीं वरन इतिहास भी चुप चुप सा है। इसी लिए कहा जाता है कि साहित्य इतिहास का साक्षी होता है।

ईसा पूर्व 500 वर्ष में जब प्राकृत और पालि आयी तो वह संस्कृत के साथ साथ बोली जाने लगी । क्योंकि संस्कृत के शब्द कुछ क्षेत्रों में उच्चारण में स्पष्ट नहीं थे “जैसे धर्म को धम्म , दुष्कृतम दुक्कडम , जैनियों का एक त्योहार आता है जिसमे वे मिच्छामि दुक्कडम कह कर क्षमा मांगते हैं यह वाक्यांश मिथ्यामि दुष्कृतं का रूप ही है इस प्रकार शब्द  परिवर्तित होते गए। इन प्राकृत भाषाओं में क्षेत्रीय भाषाओं का समावेश होने लगा और यदि बोलचाल में आने लगी जो कि प्राकृत का ही रूप थी मुख्य रूप से ये सुरसैनि, मैथिली ,इत्यादि इत्यादि थी। 1100 ईस्वी के पास अपभ्रंस भाषा ने स्थान ले लिया जो कि संस्कृत पालि और प्राकृत की अपभ्रंश भाषा थी और यही आरम्भ था आधुनिक हिंदी बनने का । जबकि आधुनिक हिंदी जो कि खड़ी बोली कही जाती है वह भारतेंदु के कालखंड में सृजित हुई और द्विवेदी, शुक्ल इत्यादि के आते आते परिपक्व हो शृंगारित हुई।

राष्ट्र संघ में कुल २१२ देश हैं उनमे केवल ५४ देशों में अंग्रेजी बोली जाती है, और ये वे देश हैं जहाँ  कभी ब्रिटिश सत्ता थी जिन्हें कामनवेल्थ कंट्रीज भी कहते हैं,  अमेरिका छोड़।  एक विश्व की बड़ी पत्रिका बेब्बल ने आँकडे दिए उसके अनुसार सर्वाधिक  बोली जाने वाली भाषा मंडारिन है अगर अन्य चीनी भाषा को जोड़ दें तो १२० करोड़ लोग बोलते हैं, दूसरे नंबर पर स्पैनिश आती है जिसे ४० करोड़ बोलते हैं, अंग्रेजी तीसरे नंबर पर जिसे ३६ करोड़ बोलते हैं, हिंदी के कोई अधिकारिक आँकडे नहीं हैं, अतः अनुमान से यह चौथे नंबर पर रखी गई है;  मेरे अनुसार अगर हिंदी और हिंदी समूह को जोड़ दें तो लगभग 90 करोड़ लोग इसे बोलते हैं,  और इस तरह यह दूसरे नंबर पर है ।  बंगला को सातवें और पंजाबी को दसवें स्थान पर रखा गया है ।  इतनी प्रचुर मात्रा में बोली जाने वाली भाषा क्यों उपेक्षित है, क्यूँ हम मजबूरन हिंदी दिवस मनाते हैं, किसी दिवस का मनाना क्या घोषित करता है की अब इसे बचाना है, १४ सितम्बर १९४९ में यह पारित किया गया की हिंदी को राजभाषा माना जाय, और १५ वर्षों में अंग्रेजी को हटा कर मुख्य राजभाषा हिंदी कर दी जाय ।  इसका विरोध इतना हुआ खास कर दक्षिण के राज्यों से की अंग्रेजी को मुख्य राजभाषा मानना पड़ा, तब पुनः १९६० में यह प्रस्ताव पारित हुआ कि १५ वर्षों में अंग्रेजी को सहायक राजभाषा और हिन्दी को मुख्य राजभाषा बनाई जाय ।  पर वही ढ़ाक के तीन पात, संविधान के अनुच्छेद ३४३ से ३५१ तक राजभाषा के बारे में विस्तार से दिया गया, १९६८ में राजभाषा संकल्प पत्र लिखा गया, जिसमें हिन्दी की अनिवार्यता पर जोर दिया गया, इतना सब कुछ होने पर भी हिंदी बस १४ सितम्बर  को पूजनीय रह गयी ।  क्या कारण है यह हमें सोचना होगा, सरकार ने हर केन्द्रीय कार्यालय में एक राजभाषा विभाग बनाया और उसका मुखिया एक हिन्दी का जानकार रखा गया, क्या यह कदम हिन्दी लाने में सफल हुआ, कदापि नहीं ।  हिंदी के शब्द कोष का निर्माण एक उच्च समिति ने किया, परन्तु शब्दों का जो अनुवाद हुआ वह जन मानस से बहुत दूर रहा, शब्दों की सरलता जब तक न हो कैसे लोग इसे अपनाएँगे, अंग्रेजी या अन्य भाषा के प्रचलित शब्द को तो अपनाना ही पड़ेगा, जैसे रेल गाड़ी, कंप्यूटर, मोबाइल फोन, ईमेल इत्यादि अगर इनकी जगह शुद्ध हिन्दी अनुवाद रखेंगे तो लोग हंसी का पात्र बनायेंगे ।  दूसरे, हिंदी प्रसार समिति या अन्य संस्थाएँ केवल औपचारिकता मात्र रह गयी, जड़ को मजबूत करने की बजाय बस पत्तों को सींचने में लगी हैं, कौन दोषी है? भारत में हिन्दी साहित्य के प्रोत्साहन हेतु दो संस्थाएँ महत्वपूर्ण हैं, एक तो साहित्य अकादमी दूसरी ज्ञानपीठ परन्तु दोनों राजनीति के चपेटे में हैं, विश्व हिंदी सम्मलेन में सरकार उन लोगों को ही आमंत्रित करती है जो उनके चहेते होते हैं और उन्हें ही पुरष्कृत किया जाता है ।  आज वास्तविकता तो यह है कि किसी हिंदी के अच्छे रचनाकार की पुस्तक बिना सरकारी सिफारिस के १००० प्रतियाँ भी बिक जाय तो बड़ी उपलब्धि होगी, दूसरी और अंग्रेजी साहित्य की करोड़ों प्रतियाँ  बिकती हैं, इसका कारण यह कभी नहीं हो सकता की हिंदी में अच्छे लिखने वाले नहीं ।  मुख्य कारण है हिंदी को प्रोत्साहित करने के लिए आयोजकों को प्रायोजक नहीं मिलते ठीक वैसे ही जैसे खेलों में केवल क्रिकेट को प्रायोजक मिलते हैं अन्य खेल उपेक्षित हैं ।  हिन्दी का कवि अगर कहता है कि मेरा मुख्य व्यवसाय कविता लिखना है तो लोग हेय दृष्टि से देखते हैं, क्या लिखना मुख्य व्यवसाय नहीं हो सकता ? जरूरत है सरकारी गैर सरकारी सभी संगठनों को आगे आकर इसे बढाने की इसे प्रोत्साहित  करने की, हर शहर गाँव में सम्मलेन हों प्रतिभाओं को बढ़ावा दिया जाय , रॉक, ऑर्केस्ट्रा के लिए जब लोग दस दस हज़ार की टिकटें खरीद सकते हैं तो कवि सम्मलेन और ग़ज़ल के कार्यक्रमों को क्यूँ नहीं रोचक बना कर आम जनता तक खास कर युवाओं तक पहुँचाया जाय ।  जब युवा इस तरफ आकर्षित होंगे तो अपने आप प्रायोजक भी मिलेंगे और हिंदी का प्रसार भी होगा और लोग हिंदी जानने और समझने के लिए अग्रसर होंगे ।  आशा है भारत सरकार भी इस विषय में गंभीरता से विचार करेगी ।  

आज से ४०-५० वर्ष पूर्व हम अंग्रेजी स्कूल में बच्चों को नहीं भेजते थे, कोई कोई अपर मध्यम वर्ग या धनाढ्य  वर्ग ही इन विद्यालयों में शिक्षा के लिए भेजते थे, अब एक कुली भी, एक रिक्शा वाला भी, एक मजदूर भी यही चाहता है कि उसके बच्चे अंग्रेजी स्कूल से पढ़ें, मध्य वर्ग तो हिंदी माध्यम के नाम से यूँ मुँह बिचकाता है मानो कोई गाली दे दी गयी हो, क्या इसमें माता पिता का दोष है, जी नहीं उनका कोई दोष नहीं, हर माता-पिता अपने बच्चों का उज्जवल भविष्य चाहते हैं, दोष है समाज के रक्षकों का जिन्होंने हिंदी को हेय बना दिया है, व्यापार के हर क्षेत्र में, समाज के हर क्षेत्र में अंग्रेजी यूँ आ रही है मानो हिन्दी बोलने वाले बड़े पापी हों, दूसरा दोष हमारी सरकार का है निश्चय रूप से अंग्रेजी स्कूल में विद्यार्थी शिक्षा के साथ अनुशासन, संस्कार भी पाते हैं, क्यूँ न हम ऐसे शिक्षा संस्थानों का निर्माण करें जो ऐसी व्यवस्था दें, १९५४ में श्रीकृष्ण सिंह और बाबू राजेन्द्र प्रसाद ने ऐसे शिक्षा संस्थान की परिकल्पना की थी और झारखण्ड के रमणीय वन के मध्य नेतरहाट विद्यालय का निर्माण किया जहाँ आज भी गुरुकुल विधा से शिक्षा दी जाती है जहाँ शिक्षा का माध्यम हिंदी व अंग्रेजी दोनों है, यह बात कम लोगों को मालूम होगी की जितने भी आईएस, आईपीएस, आईआईटी,  मेडिकल की स्पर्धा में टॉप १० में इस विद्यालय के छात्र ही रहते हैं, भारत सरकार या राज्य सरकारें क्यूँ नही ऐसे शिक्षा संस्थान स्थापित करती, ऐसे संस्थानों से मैं कहता हूँ कि निश्चय ही हिंदी जन जन तक पहुँचेगी और हमारा नया भारत विश्व में हिंदी की पताका लहराएगा ।

अंत में एक बात आती है, राष्ट्र संघ में ६ भाषाएँ अधिकारिक रूप से स्वीकार्य हैं , अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिश, चीनी, रुसी और अरबी ।  एक चीनी को छोड़ दें तो कोई भी भाषा ६०-७० करोड़ द्वारा नहीं बोली जाती।  रुसी तो मात्र १७ करोड़ लोगों की भाषा है, क्यूँ नहीं हम हिंदी को राष्ट्र संघ में स्थान दिलवा सके, कारण स्पष्ट है जब हम स्वयं जाकर वहाँ अंग्रेजी में भाषण देंगे तो कौन हमें स्वीकार करेगा, किसी भी भाषा को स्वीकृत करने के लिए ११७ देशों का समर्थन चाहिए वह हम कभी जुटा नहीं पाए ।  हिंदी को उचित सम्मान देने हेतु विश्व के हर राजनैतिक या गैर राजनैतिक मंच पर हिंदी में बोल कर मजबूती से हमें अपना पक्ष रखना होगा ।

एक बात अंत में, हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना है तो बिंदी की अस्मिता को बचाना होगा एक जन आंदोलन द्वारा क्यों न देश मे जितनी भी हिंदी संस्थाएँ हैं वे एक नारा अपने मुखपटल पर  डालें

भारत को भारत कहना होगा

हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना होगा।”

अंत में हिंदी वन्दना विष्णुपद छंद में

 

हटा यवनिका बुद्धि पटल से, करें शुद्ध  विचार

राष्ट्र  चेतना  अभिवंजित है,  राष्ट्र  भाषा सार

शब्द शब्द से वाणी बनती, मुखरित व्यापक तू

लिपिबद्ध करूँ कैसे जननी, संस्कृत  मापक तू

 

वन्दे   भाषा   वन्दे  भारत,  निज  प्रतिष्ठा  गान

वन्दे  संसृति  वन्दे  काव्या,  वन्दे  विनित  ज्ञान

हे   मात्रभाषा   राष्ट्रभाषा,  करूँ  मैं  अभिमान

उन्नत   भारत  देव  धरा   है,  उन्नत  हिंद  शान।  

 


सुरेश चौधरी

एकता हिबिसकस

56 क्रिस्टोफर रोड

कोलकाता 700046

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