भाषा-अर्जन : एक तात्त्विक अनुशीलन
डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र
कहते हैं, इस जीव-सृष्टि में
- यानी जल में, थल में, नभ में - लाखों
प्रकार के प्राणी हैं। उनमें कुछ अतिसूक्ष्म हैं, तो कुछ अतिविशाल। मनुष्य भी उन्हीं प्राणियों में से
एक प्राणी है। जल और थल में रहने वाले प्राणियों में अधिकतर प्राणी शरीर की
विशालता और बल में मनुष्य से कई गुना अधिक शक्तिशाली हैं। फिर भी मनुष्य इस
जीव-सृष्टि का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण प्राणी है। ऐसा कैसे? इस प्रश्न का एक ही
उत्तर है। मनुष्य के पास बुद्धि है। वैसे बुद्धि तो सभी प्राणियों में थोड़ी-बहुत
होती ही है। परंतु मनुष्य की बुद्धि उन सबसे बहुत अधिक है। फिर प्रश्न होगा कि
मनुष्य की बुद्धि का आधार क्या है? तो उसका एक ही आधार है, और वह है भाषा। कहने को तो भाषा सभी प्राणियों के पास
होती है। परंतु यह भी सत्य है कि मनुष्य की भाषा अन्य प्राणियों की भाषा से बहुत
भिन्न है। इसीलिए भाषाविज्ञानियों ने भाषा के दो वर्ग बनाए हैं - मानव भाषा और मानवेतर भाषा। भाषाविज्ञान के अध्ययन का विषय मानव भाषा है। मानव
भाषा मानवेतर भाषा से क्यों और कैसे भिन्न है, क्यों श्रेष्ठ है, वह अलग अध्ययन का विषय है।
मानव समाज या मानव जाति का
अस्तित्व ही भाषा पर टिका हुआ है। भाषा के बिना मानव समाज की कल्पना नहीं की जा
सकती। कहा गया है कि भाषा के बिना समाज नहीं; और समाज के बाहर भाषा नहीं। मनुष्य के पास भाषा नहीं
होती, तो वह अन्य
प्रणियों की तरह झुंड तो बना सकता था, परंतु समाज नहीं बना सकता था। मानव जाति का सारा वैभव, उसकी सारी
उपलब्धियाँ भाषा पर टिकी हुई हैं। मनुष्य का सारा ज्ञान-विज्ञान, धर्म-दर्शन, साहित्य भाषा में
ही है।
अगला प्रश्न यह उठता है कि
मनुष्य को भाषा की यह शक्ति - भाषा की यह संपदा मिली कैसे? भाषा के संबंध में पढ़े-लिखे लोगों में तथा बिना
पढ़े-लिखे लोगों में एक सामान्य धारणा पाई जाती है कि प्रत्येक मानव शिशु अपने
माता-पिता की भाषा लेकर पैदा होता है। परंतु यह सच नहीं है। कोई भी मानव शिशु कोई भाषा लेकर पैदा नहीं होता। हाँ, वह भाषा सीखने की
अद्भुत क्षमता लेकर अवश्य पैदा होता है। किसी भी सामान्य मानव शिशु को, समाज में रहते हुए,
भाषा सीखने से रोका नहीं जा सकता। किसी नवजात मानव शिशु को उसके माता-पिता से अलग
करके किसी भिन्न भाषाभाषी माता-पिता को सौंप दिया जाए, तो वह शिशु अपने नये यानी पालक माता-पिता की ही भाषा
सीखेगा। उसके जन्मदाता माता-पिता की भाषा का कोई लक्षण उसमें नहीं रहेगा। परंतु
दूसरी तरफ प्रत्येक मानवेतर प्राणी अपने माता-पिता की भाषा लेकर पैदा होता है।
आधुनिक भाषाविज्ञान के प्रादुर्भाव काल के भाषा-चिंतक इस सार्वभौम सचाई से अवगत हो
चुके थे कि विश्व के किसी कोने में पैदा हुआ कोई सामान्य (जो किसी विकलांगता का
शिकार न हो) बच्चा चाहे वह किसी भी जाति का हो, किसी धर्म भी का हो, किसी भी भौगोलिक, सामाजिक या आर्थिक परिस्थिति का हो, वह किसी भी भाषा को
सीखने में सक्षम होता है। वह जिस भाषा के संपर्क में आता है, उसे सीख ही लेता
है।
मानव प्राणी की इस सार्वभौम
विशेषता ने इस प्रश्न को जन्म दिया कि भाषा की उत्पत्ति कैसे हुई? यह भी ध्यातव्य है
कि सभी धर्मों और पौराणिक कथाओं में भाषा की उत्पत्ति संबंधी अद्भुत कथाएँ दी गई
हैं। विश्व भर के दार्शनिकों ने भी इस गंभीर विषय पर अपने-अपने तर्क दिए हैं।
शाश्वत रूप से उलझी इस समस्या पर लिखी गईं सर्वोत्तम रचनाओं पर पुरस्कार भी दिए
जाते रहे हैं। उस दौरान अनेक सिद्धान्तों की परिकल्पना की गई। जैसे - दैवी
उत्पत्ति का सिद्धांत, विकासवाद का सिद्धांत, मानव आविष्कार का सिद्धांत, अनुकरण सिद्धांत, डिंग डांग सिद्धांत, इंगित सिद्धांत आदि। भाषा की उत्पत्ति के संबंध में
ऐसी आश्चर्यजनक अटकलें लंबे समस तक लगाई जाती रहीं। मनुष्य चूँकि बुद्धिशाली
प्राणी है। वह तर्क कर सकता है। वह जिज्ञासा कर सकता है। खुद की उत्पत्ति के बारे
में जिज्ञासा करते हुए उसके मन में भाषा की उत्पत्ति के बारे में जानने की
जिज्ञासा पैदा हुई। इस तरह हम कह सकते हैं कि भाषा की उत्पत्ति के बारे में
जिज्ञासा मनुष्य की अपनी उत्पत्ति और अपनी प्रकृति में रुचि के कारण पैदा हुई।
चूँकि मनुष्य और भाषा का आपस में बहुत गहरा संबंध है, इसलिए यह माना जाता था कि यदि यह पता चल जाए कि भाषा
कैसे, कब और कहाँ उत्पन्न
हुई, तो संभव है कि उसके
सहारे यह पता चल सके कि मनुष्य कैसे, कब और कहाँ पैदा हुआ। परंतु भाषा के संबंध में इतने
सवालों के जवाब ढूँढ़ना इतना सरल न था। इसी कारण भाषा-चिंतकों को लगने लगा कि भाषा
की उत्पत्ति के बारे में कोई अंतिम तथा ठोस निष्कर्ष नहीं निकला जा सकता। यही कारण
था कि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के वे विद्वान् जो ठोस विज्ञान (भौतिक
विज्ञान/पदार्थ विज्ञान) में रुचि रखते थे, वे भाषा की उत्पत्ति के बारे में होने वाली चर्चाओं
का उपहास करने लगे थे। परिणामतः वर्ष १८८६ में, पेरिस की भाषाविज्ञान सोसाइटी ने इस विषय से संबंधित
किसी भी शोध-पत्र को ‘गैरकानूनी’ घोषित करने का
प्रस्ताव पारित किया। सन् १९११ में उस प्रस्ताव की पुनः पुष्टि की गई। परन्तु उस
प्रस्ताव से उस दिशा में प्रयास बंद नहीं हुए। हालाँकि कभी कुछ हासिल भी नहीं हुआ।
अब मूल प्रश्न यह कि मानव शिशु जब कोई भाषा लेकर पैदा नहीं होता तो वह भाषा सीखता
कैसे है?
इस प्रश्न का उत्तर है – मानव शिशु अपने
परिवार तथा पारिवार के बाहर के भाषा-परिवेश से अनुकरण प्रक्रिया के माध्यम से भाषा
सीखता है। हम सभी जानते हैं कि भाषा कुछ नियमबद्ध ध्वनियों का समुच्चय है।
भाषा-व्यवहार में हम क्या करते हैं? कुछ ध्वनियों का उच्चारण करते हैं। परंतु उच्चरित
ध्वनियाँ तब तक भाषा का रूप नहीं लेतीं, जब तक वे किसी अर्थ से नहीं जुड़तीं। अर्थ से जुड़ने
के लिए ध्वनियाँ एक विशेष अनुक्रम में एक दूसरे के साथ मिल कर शब्दों का निर्माण
करती हैं। ध्वनियाँ अपने आपमें अर्थहीन होती हैं। परंतु उन अर्थहीन ध्वनियों से अर्थवान् शब्द बनते हैं। फिर
अर्थवान् शब्द कुछ विशेष नियमों के तहत परस्पर जुड़कर वाक्य की रचना करते हैं और
वाक्य वक्ता के आशय को व्यक्त करने में समर्थ होते हैं। यह प्रक्रिया सभी मानव
भाषाओं में समान होती है। परंतु ध्वनि से शब्द, शब्द से वाक्य बनाने वाले नियम सभी भाषाओं के अलग-अलग
होते हैं, तभी तो अलग-अलग
भाषाएँ अस्तित्व में आती हैं।
अब फिर मानव शिशु के भाषा सीखने
की प्रक्रिया पर आते हैं। यह तो स्थापित सत्य है कि कोई भी मानव शिशु कोई भाषा
लेकर पैदा नहीं होता। परंतु वह भाषा सीखने की अद्भुत क्षमता लेकर अवश्य जन्म लेता
है। और भी अद्भुत बात यह कि वह संसार की कोई भी भाषा सीख सकता है। जिस भाषा के
संपर्क में वह रहेगा, वह भाषा वह सीख लेगा। आप उसे भाषा सीखने से रोक नहीं सकते।
मनोविज्ञानियों का यह निष्कर्ष
है कि जन्म के साथ ही मानव शिशु के भाषा सीखने की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है।
हमारी पाँच इंद्रियों में एक इंद्रिय श्रवणेन्द्रिय है। उसमें यदि कोई विकार नहीं
है, तो नवजात शिशु अपने
आसपास बोली जाने वाली भाषा की ध्वनियों को जन्म से ही सुनने लगता है। वे ध्वनियाँ
उसकी चेतना में, उसके मस्तिष्क में
स्थान बनाने लगती हैं। यह भी प्रमाणित हो चुका है कि मानव मस्तिष्क की कुछ
कोशिकाएँ केवल भाषा के लिए बनी हैं। यह बात स्पष्ट की जा चुकी है कि जो ध्वनियाँ
मानव शिशु सुनता है, वे अस्त-व्यस्त नहीं होतीं। वे व्यवस्थित होती हैं। नियमबद्ध होती हैं। उन
ध्वनियों के साथ भाषा के नियम शिशु मस्तिष्क में अपना स्थान बनाने लगते हैं। उसके
लिए बच्चे को कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता। मनोविज्ञानियों का यह मानना है कि ढाई
से तीन वर्ष की उम्र तक मानव शिशु के मस्तिष्क में उसकी प्रथम भाषा (मातृभाषा) के
आधारभूत नियम अपना स्थान बना लेते हैं। मनोविज्ञानियों ने उस प्रक्रिया को ‘भाषा-अर्जन’ (लैंग्वेज
एक्विजीशन) नाम दिया है। भाषा-अर्जन सायास नहीं होता। अनायास होता है। भाषा-अर्जन
भाषा सीखने की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसी लिए हम कह सकते हैं कि किसी बच्चे
को उसकी प्रथम भाषा (मातृभाषा) सिखाई नहीं जाती। वह अपने भाषा-परिवेश से स्वयं सीख
लेता है। ग्रहण कर लेता है। यह सीखना या ग्रहण करना सायास या जागरूकता पूर्वक
बिल्कुल नहीं होता। उसे तो पता भी नहीं चलता कि वह भाषा सीख रहा है। जैसे राख के
ढेर में छिपे लोहे के कण राख पर घूमने वाले चुंबक पर अनायास चिपक जाते हैं, वैसे ही बाह्य जगत
में गुंजायमान भाषा-ध्वनियों और उनको संघठित करने वाले नियमों को मानव मस्तिष्क
(शिशु मस्तिष्क) अपनी ओर खींच लेता है और इस प्रकार मानव शिशु भाषा सीखने में
समर्थ होता है।
डॉ.
योगेन्द्रनाथ मिश्र
40, साईंपार्क सोसाइटी, वड़ताल रोड
बाकरोल-388315,
आणंद
(गुजरात)
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