शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

कविता

महाकुंभ

अनिता मंडा

दूर दूर तक भीड़ ही भीड़

नदी, जल, अमृत, अमरता

 

मुक्ति किससे? स्वयं से?

अमर कौन? नश्वर देह?

 

साल दर साल बढ़ता ही जाता है

धरा का ताप

हम सूर्य पूजते

पेड़ों को पूजते

नदियों को पूजते

अभी भी खोज रहे हैं अमृत

 

और अमृत है कि साल दर साल

फिसलता ही जा रहा है हमारे हाथों से

 

अपने प्यार को हमने सहेजा कम

पूजा अधिक

बचा तो क्या ही पाएँगे

 

देवताओं और दानवों ने

अमृत के लिए लड़ते हुए

अपना ही अमर होना क्यों चुना

सिखाना था मानवता का पाठ

धरती को बचाना

 

बहते पानी के साथ बह रही हैं प्रार्थनाएँ

तैर रहे आकांक्षाओं के दीप

बहती हवा में गूँज रहे हैं मंत्रोच्चार

 

मिट्टी पर बने पाँवों के निशान भी बह रहे हैं

हताशा निराशा रोग शोक भी बह जाएँ तो बेहतर

 

बोतलों में बंद संगम का जल

जा रहा है घर-घर

नदी की छोटी-छोटी यात्राएँ ऐसे भी होती हैं

 

देर रात तक अग्नि पका रही है अन्न

दिन-रात का एक सा गगन

न सूरज में ताप है न चन्दा में चाँदनी

 

पंचतत्व में विलीन होने को आतुर पंचतत्व

क्या सच में खोज रहे हैं अमृत

अदृश्य अमृत।

*** 




अनिता मंडा

दिल्ली


3 टिप्‍पणियां:

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