1
पेंशन
डॉ. शिप्रा मिश्रा
“अम्मा! तुम भी ना... कर दी ना देर! तुम्हें तो समझाना बेकार
है। एक दिन घंटी नहीं डोलाती तो कौन-सा पहाड़ टूट पड़ता। जानती हो न बैंक में
कितनी लंबी लाइन लगी रहती है..तो भी बैठ गई भोग लाने...”
माँ तो बस दम साधे निर्विकार
भाव से बैंक की सीढ़ियों पर एक हाथ को रेलिंग के सहारे दूसरे हाथ को अपनी छोटी-सी
लाठी का सहारा देती हुई अपने को ऊपर की ओर ढकेलती
हुई किसी तरह चढ़ी जा रही थी।
कई बार ऊपर उम्मीद से बेटे को
देखती..शायद चार कदम पीछे उतर कर उसे पकड़ ले लेकिन वह जानती थी हर बार की तरह आज
भी उम्मीद करना बेकार है।
सचमुच आज बैंक में बहुत भीड़
थी। सोमवार का दिन था और कई दिनों के बाद बैंक खुला था तो भीड़ होना जायज़ भी था।
घंटों लाइन में खड़े होने के
बाद रुपये मिले। माँ उन रुपयों को जी भर देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाई। संज्ञा
शून्य सी न जाने कब तक खडी़ रहती..बेटे की बातों ने जैसे उसे नींद से उठाया –
“ये बीस रुपये रख लो माँ! बस पकड़ लेना। इधर-उधर मत चली
जाना.. कथा कहानी बतियाने। कंडक्टर से बोल देना अच्छे से चढ़ा देगा और उतार भी
देगा। दस रुपये से ज्यादा भाड़ा मत दे देना पिछली बार की तरह। दस रुपए के बताशे ले
लेना पोते के लिए। तुम तो एकदम से सठिया गई हो!”
माँ समझ गई थी हर बार की तरह आज भी उसके पेंशन से बहू की
पाजेब और बच्चों की मिठाइयाँ आएँगी और वह आज की रात बिना कुछ खाए ही काटेगी। उसके
पैर घिसटते हुए बस स्टैंड की ओर बढ़े जा रहे थे।
***
2
इंटरव्यू
इंटरव्यू लेने के लिए सामने लगभग सात-आठ लोग बैठे थे। वे
आपस में कुछ डिस्कस कर रहे थे। शालीनता ने तो रात-रात भर जग कर पूरी तैयारी की थी।
दिन में समय निकालना उसके लिए दूभर है। उस वक्त शालीनता के दिमाग में कई ख़यालात
एक साथ गडमड हो रहे थे -
“गैस बंद करना कहीं भूल तो नहीं गई। कान की बालियाँ तो तकिये
के नीचे ही भूल आई। हे भगवान! जाने मिलेगी भी या नहीं। माता जी ने तो कोफ्ते बनाने
को कहा था। उफ्फ.. तैयारी तो की नहीं। अब आज फिर से डाँट सुननी पड़ेगी।”
प्रश्न से उसका ध्यान भंग हुआ..
“तो आपने हिन्दी में पीएच. डी. की है। बहुत अच्छा..आपके प्रिय कवि कौन हैं?”
“जी! सूर्यकांत त्रिपाठी निराला..”
“बहुत सुन्दर..उनकी एक रचना सुनाइए।”
शालीनता कुछ देर तक जड़वत बैठी रह गई। क्षण भर पहले ही तो
वह कहाँ- कहाँ घूम कर आई थी। कुछ जवाब नहीं सूझा..
“कुछ तो बोलिए!”
“जी क्षमा चाहूँगी.. कुछ याद नहीं आ रहा। अचानक न जाने दिमाग
को क्या हो गया? कृपया
कोई अन्य प्रश्न पूछ लें।”
“नेक्स्ट.....”
हताश होकर कमरे से बाहर निकलते ही बिजली की तरह पंक्तियाँ
कौंध गईं..
“वर दे वीणा वादिनि वर दे..”
उसे तो पूरी कविता याद है। कई बार उसने इसे गाया भी है।
फिर..
उसे लगा उसकी वरदायिनी माँ तेल,
मसाले, कोफ्ते, झाड़ू, बर्तन, पोंतडे़, मच्छरदानियों के नीचे दबी- कुचली जा रही हैं। न जाने कई मन
पत्थरों को हटाने में न जाने कितनी सदियाँ लगेंगी। खैर..यह नौकरी भी हाथ से गई।
डॉ. शिप्रा मिश्रा
बेतिया, प.चंपारण (बिहार)
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