डॉ. भावना ठक्कर
दक्खिनी
मूलत: हिन्दी का ही एक रूप है। इसका प्राचीन नाम हिन्दी (‘यों
देखत हिन्दी बोल’
– शाही मीराजी, 15वीं सदी अंतिम
चरण) तथा ‘हिंदवी’
(यों मैं हिंदवी कर आसान – शेख अशरफ,
1503 ‘नौसर हार’
में) मिलता है। इसके लिए दकनी,
दक्खनी, देहलवी,
गूजरी, हिंदुस्तानी,
जबाने हिंदुस्तान,
दक्खिनी उर्दू, मुसलमानी,
दक्खिनी हिंदुस्तानी आदि नाम भी मिलते हैं। यह मूलत: दिल्ली के आसपास की 14वीं –
15वीं सदी की लोकभाषा है। इसी भाषा में मसऊद,
खुसरो, फ़रीदुद्दीन
शकरगंजी आदि ने अपनी हिन्दी कविताओं को लिखा था।
15वीं 16वीं सदी में यह भाषा फ़ौज,
फ़कीरों तथा दरवेशों के साथ दक्षिण भारत में पहुँची और वहाँ वह प्रमुख रूप से
मुसलमानों में तथा कुछ हिन्दुओं में जो मूल उत्तर भारत के थे प्रचलित हो गयी। डॉ.
सुनीतिकुमार चटर्जी ने इसे हिंदुस्थानी नहीं किन्तु उसकी सहोदर भाषा अवश्य माना
है। यदि भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो यह मूलत: प्राचीन खड़ीबोली का ही एक
रूप है, जिसमें पंजाबी,
हरियाणी, ब्रज तथा कुछ अवधी
के रूप भी हैं। इतना ही नहीं दक्षिण में जाने के बाद इस पर कुछ मराठी का भी प्रभाव
पड़ा है। यहाँ यह बात ध्यान में रखना आवश्य है कि उत्तरी भारत कि इन पंजाबी,
हरियाणी, ब्रज तथा अवधी
भाषाओं के रूपों के मिलने का अर्थ यह नहीं कि इन सबका इस पर प्रभाव है। वस्तुत: उस
काल की भाषा ही इस तरह मिश्रित थी। संत कवि कबीर के साहित्य में भी इसी मिश्रित
भाषा का रूप पाया जाता है। बाद में यह स्वतंत्र होकर अपने पैरों पर खड़ी हुई।
18वीं सदी के अंत तक आते-आते इस
दक्खिनी को बहमनी वंश के तथा अन्य राजाओं का राज्याश्रय प्राप्त हुआ,
तब इसमें पर्याप्त साहित्य भी लिखा गया। इसमें गद्य साहित्य भी लिखा गया। खड़ीबोली
गद्य का प्राचीनतम् प्रामाणिक ग्रंथ ‘मिराजुल
आशिकीन’ भी इसी दक्खिनी
में मिलता है, जिसके लेखक है-
ख्वाजा बंदानवाज़ (1318-1432)। बाद में वजही ने भी अपनी कुतुवमुश्तरी (1638ई.) में इसका
प्रयोग किया है- ‘दखिन
में जो दखिनी मीठी बात का’।
दक्खिनी सहित्यकारों में अब्दुल्ला,
निजामी, गुलामअली,
गवासी, बेलूरी आदि
प्रमुख हैं।
दक्खिनी का प्रमुख क्षेत्र दक्षिण
भारत का बीजापुर, गोलकुंडा,
अहमद नगर आदि तथा बरार,
बंबई, मध्य प्रदेश आदि हैं।
ग्रियर्सन ने अपने भाषा सर्वेक्षण में दक्खिनी बोलनेवालों की संख्या लगभग साढ़े
छत्तीस लाख बतायी थी।
उर्दू साहित्य का प्रारम्भ भी मूलत: दक्खिनी
से हुआ है। उर्दू के प्रथम कवि वली ही दक्खिनी के अंतिम कवि वली औरंगाबादी है। इस
तरह से दक्खिनी को उर्दू की जननी भी कह सकते हैं। फिर भी भाव और भाषा की दृष्टि से
दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है। दक्खिनी की लिपि भले ही फारसी है किन्तु
शब्दावली की दृष्टि से देखें तो इसमें सामान्य हिन्दी की भाँति ही भारतीय परंपरा
के शब्द हैं। अरबी-फारसी के शब्द उर्दू की तुलना में बहुत कम है। दक्षिण क्षेत्र
में प्रयुक्त होने के कारण ही इसका नाम दक्खिनी है। आज हिन्दी का प्रयोग करने वाले
‘हिन्दी’
या ‘दक्खिनी हिन्दी’
कहकर ही इसे अपनी भाषा और इसके साहित्य को अपने साहित्य अंग मान रहे हैं । वहीं
दूसरी तरफ उर्दू वाले ‘क़दीम
उर्दू’ या ‘दक्खिनी
उर्दू’ कहकर इसे अपना
अंग मान रहे हैं।
एक बात यह भी सामने आई है कि दक्खिनी
को बाद में ‘रेख्ता’
भी कहा जाने लगा था। किन्तु बात ऐसी नहीं थी। दक्खिन के अंतिम काल के कवियों खासकर
वली आदि ने ‘रेख्ता’
का काव्य की एक विशेष शैली के रूप में प्रयोग किया था।
दक्खिनी भाषा में हुए परिवर्तन की
दृष्टि से देखें तो –
- उर्दू
भाषा का इस पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है।
- कुछ
पुराने रूप विकसित होकर अर्थ में ही बदलाव आ गया है।
- शब्द
समूह की दृष्टि से क्षेत्रानुसार इसमें तमिल,
तेलुगू, कन्नड आदि भाषाओं
का प्रभाव पड़ा है।
कुल मिलाकर कह सकते हैं कि ‘दक्खिनी हिन्दी’ हिन्दी का ही एक रूप है। दक्खिनी भाषा का साहित्य भी हिन्दी के निकट है अर्थात् दक्खिनी भाषा और साहित्य की आत्मा हिन्दू परंपरा की तथा पूर्णतया भारतीय है।
डॉ.
भावना ठक्कर
शिक्षिका
सी.
एम. पटेल हाईस्कूल, फांगणी, पेटलाद
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