शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

कविता

हरिप्रिया छंद



निज भाषा

सुधा त्रिपाठी

अजब गजब लगी होड़, आँचल क्यों दिया छोड़,

माँ से मुँह चले मोड़, करते अपमानित।

माँ की सुन लो पुकार, निज भाषा प्रसार,

कर आदत में सुधार, होंगे सम्मानित।।

 

 

हिंदी की रहे जोर, निज भाषा करे शोर,

स्वर्णिम सी हुई भोर, शब्द भाव गाकर।

मचले दिल में उमंग, भावों की हो तरंग,

मानो बाजे मृदंग, मातु शरण आकर।।

 

हिंदी की बनो शान, नित जग में बढे़  मान,

श्रद्धा से मिले ज्ञान, प्यारी है भाषा।

सदा रहे हमें ध्यान, बनी रहे आन-बान,

हिंदी को मिले मान, सब की है आशा।।

 

छंदों की है कतार, बरसे रस की फुहार।

भावों का गहन सार, दुनिया भी जाने।

भारत की बनी ताज, हर दिल पर  करे राज,

हमें सदा रहे नाज, जाग लोहा माने।।

 ***


सुधा त्रिपाठी

वडोदरा


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

सितंबर 2025, अंक 63

  शब्द-सृष्टि सितंबर 2025 , अंक 63   विचार स्तवक आलेख – विश्व स्तर पर शक्ति की भाषा बनती हिंदी – डॉ. ऋषभदेव शर्मा कविता – चाय की चुस्की म...