मंगलवार, 31 दिसंबर 2024

लघुकथा

 


1

तेरा मेरा साथ रहे

अनिता मंडा

धन और धर्म में बहस छिड़ी हुई थी। धन को अभिमान हो गया कि सारा संसार उसी को पूछता है, जन्म से लेकर मृत्यु तक कोई ऐसा कार्य नहीं जहाँ धन की आवश्यकता ना हो। धन ने धर्म को मुँह चिढ़ाते हुए कहा “धर्म तुम किस गुमान में हो देख रहे हो ना! आठों पहर सब मेरी ही इच्छा रखते हैं। मैं चाहूँ तो बैर करवा दूँ, भाई-भाई को दुश्मन बना दूँ। मेरे बिना राजा भी रंक बन जाए।”

धर्म को धन का यह अभिमान अच्छा नहीं लगा। वह उसे पास ही के एक कथा-पंडाल में ले गया जहाँ व्यास-पीठ पर विराजमान कथा-वाचक कह रहे थे “धर्म से ही संसार चलायमान है, पृथ्वी की धूरी धर्म पर ही टिकी हुई है। धर्म ना हो तो मानव को जंगली बनने में एक क्षण भी नहीं लगेगा। भाँति भाँति के कर्तव्यों ने ही इंसान को धर्म के रास्ते पर बाँध रखा है। माया तो ठगिनी है माया के मोह का त्याग करना चाहिए।” कथावाचक की बातों से धर्म के मन को शांति मिली। वह गर्व से गर्दन सीधी करके खड़ा हुआ। लेकिन धन के मुँह पर व्यंग्य भरी मुस्कान चौड़ी होती जा रही थी। जैसे ही कथा पूरी हुई जजमान महँगी-महँगी मालाएँ अर्पित करने लगे। महँगे-महँगे वस्त्रों की भेंट कथा वाचक जी को दी। पहले से तय मोटी धनराशि उन्हें दी। और बड़ी गाड़ी में बिठाकर भोजन करवाने घर ले गए। फिर इतने पकवान परोसे कि सबका एक-एक कौर चखने से ही पेट फटने लग गया।

जजमान साहब की कोठी में करोड़ों की साज-सजावट थी। कहीं मंदिर तीर्थ जाते तो जजमान जी को प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। भारी भीड़ से दूर उन्हें चोर-दरवाजे से भगवान के दर्शन करवा दिए जाते। धन के  चेहरे की व्यंग्य मुस्कान कड़कती बिजली सी चमकने लगी। धर्म ने वहाँ से चलने में ही समझदारी समझी।  लेकिन धन को अभी अपनी अकड़ दिखाने से संतोष नहीं हुआ था। वह धर्म को और क्षुब्ध करना चाहता था। तो वह भी साथ हो लिया। रास्ते में देखा एक बेईमान व्यापारी के घर छापा पड़ा हुआ था। थोड़ी दूर चले ही थे कि एंबुलेंस का कानफोड़ू  सायरन सुनाई देने लगा। हड़बड़ा कर दोनों एक तरफ हुए। शहर के प्रतिष्ठित धनाढ्य व्यापारी को हृदयाघात हुआ था। उनको अस्पताल में पंक्ति में नहीं लगना पड़ा डॉक्टर को पहले से ही फोन चला गया था। एंबुलेंस पहुँचते ही वह इलाज में जुट गए। धन ने फिर एक बार साबित कर दिया कि वही श्रेष्ठ है। दोनों अस्पताल में चहल-कदमी करते जा रहे थे। एक कोने में दिखा दो-चार मूर्तियाँ रखी हैं। लोग आँखें मूँदें प्रार्थना कर रहे थे। एक बेटा अपने असहाय पिता को डॉक्टर को दिखाने ला रहा था।

धर्म ने थोड़ी राहत की साँस ली। दोनों टहलते हुए बाहर ठंडी हवा खाने निकल आए। नकली दवाइयों के कारण हृदयाघात से पीड़ित  व्यापारी को नहीं बचाया जा सका।

धर्म ने थोड़ा गंभीर होते हुए कहा “यार धन मैं मानता हूँ तुम ताकतवर हो लेकिन इतना तो है कि तुम तभी फलदाई हो जब मैं साथ होता हूँ।” इस बार धन ने भी गंभीर होकर सोचा “हाँ यार! यह तो मैं भी मानता हूँ। यहाँ तो मुझे तुमसे सहमत होना पड़ेगा।”

तेरा मेरा साथ रहे” गाते हुए दोनों हाथ पकड़े नाचते जा रहे थे।

***

2

लकी

हितेश का ईडब्ल्यूएस कोटे से एक बड़े प्राइवेट स्कूल में दूसरी कक्षा में नामांकन हुआ था। शुरू-शुरू में उसका कोई दोस्त नहीं बना। सारे बच्चे उससे दूरी बनाकर रखते थे। तभी उनकी क्लास में एक नया बच्चा ईशान आया। दो-चार दिन में ही उसे पता लग गया कि हितेश से सारे बच्चे दूरी बनाकर रखते हैं। परंतु ईशान को यह सब अच्छा नहीं लगा।

एक दिन हितेश अकेला बैठा लंच कर रहा था तभी ईशान चलकर उसकी टेबल के पास आ गया और अपना लंच-बॉक्स खोलकर उसके पास रख दिया। “इतना टेस्टी अचार अकेले ही खायेगा? मुझे नहीं देगा?” ईशान ने कहा। सकुचाते हुए हितेश ने टिफिन आगे कर दिया। ईशान अब रोज़ ही हितेश से टिफिन शेयर करने लगा। हितेश का साधारण अचार-परांठा ईशान को बहुत स्वादिष्ट लगता। ईशान हितेश के लिए तरह-तरह की स्वादिष्ट चीजें लाता। ऐसी-ऐसी लज़ीज चॉकलेट, केक, नूडल्स आदि जिन्हें चखना तो दूर हितेश ने कभी देखा भी नहीं था।

ईशान अपने ड्राइवर के साथ अलग-अलग कारों से स्कूल आता था। हितेश उसे कार से उतरते देखता तो बहुत ललचाता क्योंकि वह कभी कर में नहीं बैठा था। कार तो दूर वह तो कभी बाइक-स्कूटी पर भी नहीं बैठा था। उसके पिता गरीब थे वह उसे रोज साइकिल से स्कूल छोड़ने आते थे। ईशान को जब पता चला हितेश कभी कार में नहीं बैठा है तो स्कूल खत्म होने के बाद वह अपने ड्राइवर से कहकर हितेश को थोड़ी दूर चक्कर कटवा कर लाया। हितेश बहुत उत्साहित था। उसने कहा “ईशान तुम्हारी कार तो हमारे घर से भी बड़ी है” ईशान के चेहरे पर एक मुस्कान आई पर वह जल्दी ही उदास हो गया। “हितेश तू बहुत लकी है तुझे रोज तेरे पापा स्कूल छोड़ने आते हैं।” जाने क्या था ईशान के कहने में कि सुनकर हितेश उदास सा हो गया। उसे नहीं समझ आया कि क्या कहे। उसकी आँखें इधर-उधर कुछ ढूँढने लगी। उसे लगा काश वह ईशान को कुछ दे सकता।

***

अनिता मंडा

दिल्ली

9 टिप्‍पणियां:

  1. दोनो लघुकथाएँ सुन्दर। 'लकी' हृदयस्पर्शी लघुकथा। अनिता जी को बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  2. दोनों ही लघुकथाएं दिल को छूती हुई ... बधाई!

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही खूबसूरत रचनाएं
    नव वर्ष मंगलमय हो 🌷

    जवाब देंहटाएं
  4. दिल को छूने वाली कहानियाँ … बहुत बढ़िया 🌸

    जवाब देंहटाएं
  5. ज्योत्स्ना शर्मा4 जनवरी 2025 को 4:13 pm बजे

    बहुत भावपूर्ण , मर्मस्पर्शी , प्रभावी लघुकथाएँ । बधाई अनिता मंडा जी

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुंदर, भावपूर्ण मर्मस्पर्शी रचनाओं के लिए हार्दिक बधाई। सुदर्शन रत्नाकर

    जवाब देंहटाएं
  7. आप सभी का हार्दिक आभार।

    जवाब देंहटाएं
  8. दोनों लघुकथाओं ने अपनी गहराई और भावनात्मकता से प्रभावित किया ।
    इन लघुकथाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे पाठक को जीवन की छोटी छोटी घटनाओं पर सोचने पर मजबूर करती हैं और जीवन के प्रति एक नए दृष्टिकोण को मानस पटल पर अंकित करती हैं। लेखिका को साधुवाद..

    जवाब देंहटाएं

फरवरी 2025, अंक 56

  शब्द-सृष्टि फरवरी 202 5 , अंक 5 6 परामर्शक की कलम से : विशेष स्मरण.... संत रविदास – प्रो.हसमुख परमार संपादकीय – महाकुंभ – डॉ. पूर्वा शर्...