भारतीय साहित्य और भारतीयता
प्रो. शिवप्रसाद शुक्ल
भारतीय साहित्य की विविधता से आप सब परिचित हैं । लिपि,भाषा
के विकास के साथ आचार्य कौत्स, पाणिनि, कात्यायन, नागेश भट्ट आदि भाषा चिंतन करते
हैं तो आचार्य भरत से लेकर राजपण्डित जगन्नाथ तक भारतीय काव्यशास्त्र तैयार करते
हैं तो उदयानाचार्य एवं भाष्कराचार्य तर्कशास्त्री भाषाचिंतन को आगे बढ़ाते हैं। षड्
दर्शन आस्तिक एवं तीन नास्तिक दर्शनों की परिणति भारतीय साहित्य, संस्कृति, धर्म, समाज
एवं सभ्यता के विविध आयामों को खोलते हैं। यह बात अलग है कि बौद्ध, पालि एवं
तिब्बत की दशा दिशा से हम सब भली प्रकार परिचित हैं । वेद, उपनिषद, आरण्यक, पुराण
एवं स्मृति आदि भारतीय भाषा, दर्शन एवं समाज आदि की संरचना कहीं न कहीं भारतीयता
के ही प्रतिबिंब हैं । जैसे-जैसे सभ्यता, संस्कृति
एवं साहित्य विकसित होते गए, भारतीयता का सूर्य देदीप्यमान होता गया । जाति प्रथा
के चलते हम गुलाम भी बने । इसीलिए तुलसी ने लिखा ‘सबसे कठिन जाति अपमाना’ को देखते
हुए आर्यावर्त के टुकड़े होते गए। भारतीय साहित्य लिखित होने के कारण दृश्य है जबकि
भारतीयता अदृश्य है । वैश्वीकरण के चक्कर में भारतीयता की ऐसी तैसी अँधेरनगरी, भारत
दुर्दशा, चितकोबरा, चित्रलेखा, मैला आँचल, कितने पाकिस्तान, काला पादरी, फाँस, माटी
राग, कलिकथा बाया बाईपास, हिन्दू, सनातन, रामराज्य आदि के माध्यम से पढ़ देख सकते
हैं । कठोर जाति प्रथा या लालच या स्ववित्तपोषी संस्थाओं के चलते धर्मांतरण आज भी
हो रहा है। ‘स्वधर्मं निधनं श्रेय परधर्मः
भयावह’ भले ही लिखा गया हो ,भारतीय लोग
इतने सत्ता लोलुप होते हैं कि धर्म, भाषा एवं विचारधारा बदलते रहते हैं । यहाँ
संस्कृत भाषा ने राष्ट्रीयता, भारतीयता, संस्कृति, सभ्यता एवं साहित्य को जो ऊँचाई
दी, जैसे ही क्षेत्रीय लिपि एवं भाषा आई आर्यावर्त के टुकड़े -टुकड़े कर दिए । भले
एस राधाकृष्णन लिखते रहें कि ‘Indian
literature is one but written in many Indian languages’ अस्मिता मूलक विमर्श के आने से भारतीय साहित्य की तमाम
खूबियों को देखा समझा जा सकता है । भारतीय पृष्ठभूमि दिन-प्रतिदिन बदलती जा रही है
।’ घर में नहीं चना क चूर बेटवा माँगई मोतीचूर’ वाली कहावत चरितार्थ हो रही है । वैश्वीकरण,निजीकरण,बाज़ारीकरण
एवं उदारीकरण के चलते भारतीय समाज, संस्कृति एवं साहित्य आमूल चूल परिवर्तित हो
रहे हैं । यदि स्ववित्तपोषी संस्थानों पर अंकुश नहीं लगाया गया तो धर्मांतरण बढ़ेगा
और लोकतंत्र बहुमत की चाल चलेगा तो भारतीयता की ऐसी तैसी हो जाएगी । धर्मांतरण पर
ही प्रेमचंद ने ‘खून ए सफेद ‘या ‘जिहाद’ कहानी लिखी भूमि अधिग्रहण को लेकर
‘रंगभूमि’ उपन्यास लिखा । रणेन्द्र ने ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ , ‘गायब होता देश’ या ‘महुआ माझी’, ‘मैं
बोरिशाइल्ला’, ‘मरंग गोडा नीलकंठ हुआ’ लिखती रहें , कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है । सरकार
Special Economical Zone[SEZ]या Green Economical Zone[GEZ] के नाम उपजाऊ या जंगली ज़मीनों को औने पौने भाव में Industrial Zone में बदलती जा रही है । धन, शराब एवं
स्त्री का प्रयोग धर्म, शिक्षा एवं राजनीति में बढ़ने से भारतीय समाज की दशा दिशा
देख सकते हैं । डॉ कैलाश नाथ पांडेय का उपन्यास ‘अंतर्द्वन्द्व’ को पढ़ देख एवं समझ
सकते हैं । आदम गोंडवी के शब्दों में ‘तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
/मगर ये आँकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है’ या अष्टभुजा के शब्दों में ‘कविजन खोज
रहे अमराई । /जनता मरे,मिटे या डूबे इनने ख्याति कमाई । /शब्दों का माठा मथ -मथकर
कविता को खट्टाते । /और प्रशंसा के मक्खन कवि चाट-चाट रह जाते ।। /सोख रहीं गहरी
मुश्किलें, डाँड हो रहा पानी । /गेहूँ के पौधे मुरझाते,है अधबीच जवानी ।। /बचा-खुचा
भी चर लेते हैं, नीलगाय के झुंड । ऊपर से हगनी-मुतनी में, खेत बन रहे कुंड ।। /कुहरे
में रोता है सूरज केवल आँसू-आँसू । /कविजन उसे रक्त कह-कहकर लिखते कविता धाँसू ।। ’
अतीत पर गर्व करना अच्छा है परंतु वर्तमान भारतीय साहित्य
एवं भारतीयता का तटस्थ मूल्यांकन अपेक्षित है । राष्ट्रीयता एवं भारतीयता एक दूसरे
के पूरक हैं । इसलिए भारतीय साहित्य एवं भारतीयता को मानवीय लोकतान्त्रिक धरातल पर
लाना आवश्यक है ।
प्रो. शिवप्रसाद शुक्ल
हिन्दी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय 211002
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