डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र
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योजक वाक्य
हिन्दी व्याकरणों में वाक्य का वर्गीकरण
दो आधारों पर किया गया है -
अर्थ के आधार पर तथा रचना के आधार पर।
वाक्य के उन भेदों से आप सभी परिचित
हैं।
परंतु हिन्दी वाक्यों के तीन और भेद हैं, जिनकी चर्चा परंपरागत व्याकरण की पुस्तकों में नहीं किया जाता।
वे भेद हैं -
योजक वाक्य
को-वाक्य
क्रियाप्रधान वाक्य
कर्ता, पूरक तथा योजक क्रिया
से बने वाक्य को योजक वाक्य कहा जाता है।
कर्ता, पूरक तथा योजक क्रिया
योजक वाक्य के अनिवार्य घटक होते हैं। इनमें से किसी एक के अभाव में वाक्य पूरा
नहीं होता। वाक्य-रचना खंडित हो जाती है। वाक्य का आशय स्पष्ट नहीं हो पाता।
योजक वाक्य की क्रिया वाक्य के कर्ता
तथा पूरक को जोड़ने का काम करती है। इसलिए उसे योजक क्रिया कहा जाता है।
योजक वाक्य में योजक क्रिया की
केन्द्रीय भूमिका होती है। इसी लिए इस वाक्य नाम योजक वाक्य पड़ा है।
योजक वाक्य में एक ओर कर्ता होता है, दूसरी ओर क्रिया होती है तथा बीच में कोई पूरक शब्द होता है।
पूरक के रूप में तीन प्रकार के शब्दों
का प्रयोग होता है -
संज्ञा
विशेषण
क्रियाविशेषण
इसी आधार पर योजक वाक्यों के तीन भेद
बनते हैं -
1. जिस वाक्य में पूरक के रूप में कोई
संज्ञा होती है, उस वाक्य को
संज्ञात्मक योजक वाक्य कहा जाता है -
रामलाल वकील है।
शीला अध्यापिका है।
भोलू मजदूर है।
संज्ञात्मक योजक वाक्य में कर्ता तथा
पूरक एक ही पदार्थ के संकेतक होते हैं। जैसे - रामलाल ही वकील है तथा वकील ही
रामलाल है। रामलाल तथा वकील दो व्यक्ति नहीं हैं।
2. जिस वाक्य में पूरक के रूप में कोई
विशेषण शब्द आता है, उस वाक्य को विशेषणात्मक योजक वाक्य कहा
जाता है -
शीला सुंदर है।
चाय मीठी है।
कपड़ा गीला है।
विशेषणात्मक योजक वाक्य में पूरक कर्ता
का विशेषण होता है। जैसे - ऊपर के वाक्यों
में कर्ता शीला का विशेषण सुंदर है, चाय का विशेषण मीठी है
तथा कपड़ा का विशेषण गीला है।
जिस वाक्य में पूरक के रूप में कोई
क्रियाविशेषण आता है, उस वाक्य को क्रियाविशेषणात्मक योजक वाक्य
कहा जाता है। जैसे -
किताब आलमारी में है।
माँ छत पर हैं।
पैसे जेब में हैं।
क्रियाविशेषणात्मक योजक वाक्यों में
पूरक (कोई क्रियाविशेषण) किसी विशेष परिवेश/स्थान में कर्ता की उपस्थिति/मौजूदगी
सूचित करता है।
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अनुस्वार तथा अनुनासिक के उच्चारण-स्थान
सबसे पहले अनुस्वार तथा अनुनासिक की अवधारणा को समझना होगा।
ये दोनों दो धरातलों की अवधाणाएँ हैं। परंतु व्याकरण लेखक इन दोनों की चर्चा
एक साथ करते हैं। जो कि गलत है।
अनुस्वार का संबंध लेखन से है तथा अनुनासिक का संबंध उच्चारण है। इसी कारण
दोनों की चर्चा एक साथ नहीं की जा सकती।
अनुस्वार उस बिंदी का नाम हो, जो पंचमाक्षरों के बदले में विकल्प से किसी वर्ण के ऊपर
लगाई जाती है।
जबकि ‘उच्चारण’ के आधार पर हिन्दी के स्वर अनुनासिक होते हैं।
जिन स्वरों के उच्चारण में पूरी हवा मुखमार्ग से बाहर निकलती है,
उन्हें मौखिक स्वर कहा जाता है तथा जिन स्वरों के उच्चारण
में हवा नाक तथा मुख दोनों रास्तों से बाहर निकलती है,
उन्हें अनुनासिक स्वर कहा जाता है।
हिन्दी के सभी मौखिक स्वरों का अनुनासिक उच्चारण होता है।
परंपरागत देवनागरी लिपि में अनुनासिक स्वरों के लिखने की व्यवस्था नहीं है।
हिन्दी में मौखिक स्वर वर्णों (अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ) के ऊपर चंद्रबिन्दु लगा
कर अनुनासिक स्वर लिखे जाते हैं। चंद्रबिन्दु अनुनासिक स्वरों की पहचान है अँ आँ
इँ ईँ उँ ऊँ एँ ऐँ ओँ औँ। यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि जिन स्वरों की मात्राएँ
शिरोरेखा के ऊपर होती हैं, उनके साथ चंद्रबिन्दु के स्थान पर केवल बिंदी लगाई जाती है,
जिसे मैं ‘चंद्रबिन्दु का लघुरूप’ कहता हूँ।
अब बात करते हैं अनुस्वार तथा अनुनासिक स्वरों के उच्चारण-स्थान की। अनुस्वार
तथा अनुनासिक स्वरों का कोई ‘एक’ उच्चारण स्थान नहीं है।
विचारणीय है कि उच्चारण स्थान ध्वनियों तथा वर्णों का होता है। अनुस्वार कोई
एक ध्वनि नहीं है, कोई एक वर्ण नहीं है। अनुस्वार ङ् ञ् ण् न् तथा म् का सामूहिक प्रतिनिधि है।
शब्द के बाहर अनुस्वार का कोई अस्तित्व नहीं है।
मतलब यह कि अनुस्वार का उच्चारण शब्द की बनावट पर निर्भर करता है।
शब्द में अनुस्वार के बाद जो वर्ण आता है, उस वर्ण का उच्चारण स्थान ही उस शब्द में आए अनुस्वार का
उच्चारण स्थान होता है। जैसे –
पंख,
गंगा, कंघा में आए अनुस्वार का उच्चारण स्थान कंठ है।
चंचल पंछी, पंजा,
झंझा में आए अनुस्वार का उच्चारण न् के रूप में होता है।
हिन्दी में न् का उच्चारण स्थान बदल गया है। भले ही हम उसे दंत्य कहते हैं। परंतु
न् उच्चारण स्थान अब वर्त्स है। उच्चारण करके देखिए।
टंटा,
कंठ, डंडा में आए अनुस्वार का उच्चारण स्थान चंचल पंछी में आए अनुस्वार के जैसा ही
है। अर्थात् वर्त्स।
संत,
छंद आदि में आए अनुस्वार का उच्चारण स्थान भी पूर्ववत्
(चंचल,
कंठ के जैसा) है। अर्थात् वर्त्स।
कंप,
कंबल में आए अनुस्वार का उच्चारण स्थान दोनों ओठ का मिलन
स्थल है।
संयम में आए अनुस्वार का उच्चारण स्थान तालु है।
संरक्षा (र), संलग्न (ल), संशय
(श),
संसार (स) में आए अनुस्वार का उच्चारण स्थान वर्त्स है।
संहार (ह) में अनुस्वार का उच्चारण स्थान कंठ है।
आशय सह कि अनुस्वार का कोई एक उच्चारण स्थान नहीं है।
ऐसे ही –
विभिन्न मौखिक स्वरों का उच्चारण स्थान ही अनुनासिक स्वरों का उच्चारण स्थान
होता है।
आँ एक अनुनासिक स्वर है। इसका उच्चारण स्थान कंठ।
इँ/ईँ का उच्चारण स्थान तालु है।
ओँ का उच्चारण स्थान ओठ है।
डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र
40,
साईंपार्क सोसाइटी, वड़ताल रोड
बाकरोल-388315,
आणंद (गुजरात)
सरल ढंग से ज्ञानवर्धक जानकारी । सुदर्शन रत्नाकर
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