बुधवार, 30 अक्तूबर 2024

खण्ड-2

 


श्री अरविंद घोष

(15 अगस्त, 1872- 05 दिसंबर, 1950 )

आधुनिक भारत का एक महान आध्यात्मिक व्यक्तित्व श्री अरविंद घोष की अध्यात्म के साथ-साथ योग, ध्यान, दर्शन, साहित्य सृजन, स्वतंत्रता संग्राम तथा अध्यापन के क्षेत्र में भी महती देन रही । सुमित्रानंदन पंत के शब्दों में- “श्री अरविंद हमारे विराट वैज्ञानिक युग के अध्येता तथा व्याख्याता हैं । जो युग अपनी आधिभौतिक सम्पदा में इतना संपन्न है वह प्राणों तथा मन की संपदा में तथा सर्वोपरि आध्यात्मिक संपदा में भी उसी प्रकार पूर्ण तथा समृद्ध होकर इस देशकाल में बँटी-देशों, जातियों, धर्मों संप्रदायों में विदीर्ण मानवता को अटूट ज्ञान के आलोक पाश में सदैव के लिए बाँध कर पृथ्वी पर मानवीय एकता का राज्य स्थापित कर सके, यही उनकी लोकमंगलकारी, विश्वकल्याणकारी दृष्टि का आशय है ।” पंत ये भी कहते हैं कि “दार्शनिक, दृष्टा, योगी और उच्च कोटि के कवि, श्री अरविंद एक में अनेक और अनेक में एक है ।” ( उद्धृत- ‘अभिदेशक’ पत्रिका, फरवरी-2024)

योगाभ्यास, आत्मचिंतन, गीता, उपनिषद, वेद आदि के गंभीर अध्ययन-अध्यापन व चिंतन से गुजरते हुए इस अध्यात्म गुरु ने समाज के समक्ष एक महान आदर्श व संदेश प्रस्तुत किया ।

एक साहित्य सृष्टा के रूप में उन्होंने विविध काव्य शैलियों की रचनाओं के साथ ‘सावित्री’ जैसी महान कालजयी रचना का सृजन किया । इस सृजन कर्म के साथ साथ उन्होंने पत्रकारिता-संपादन तथा अनुवाद के क्षेत्र में भी कार्य किया । भर्तृहरि के ‘नीतिशतक’ तथा कालिदास की ‘विक्रमोवर्शी’ रचनाओं का उन्होंने भावानुवाद किया ।

श्री अरविंद के योग एवं दर्शन ने तो दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया । अंग्रेजी, हिंदी तथा बंगला तीनों भाषाओं में श्री अरविंद घोष ने लेखन कार्य किया । उनकी पुस्तकों में – कर्म योगिनी, धर्म, द लाइफ ऑफ डिवाइन, लेटर्स ऑन योग, सावित्री, द सीक्रेट ऑफ द वेदाज, एस्से ऑन द गीता, द सिथेंसिस ऑफ योगा विशेष उल्लेखनीय है ।

पांडिचेरी आश्रम श्री अरविंद के ‘एकात्मयोग’, ‘पूर्णयोग’ ( पूर्णयोग का लक्ष्य ही है मनुष्य जीवन का दिव्य जीवन में रूपांतरण करना ) के विकास का मुख्य केन्द्र रहा । “श्री अरविन्द हमें समझाते हैं कि यह दिव्य जीवन प्राप्त करने हेतु हमें संसार त्याग करके अरण्य में जाने की अनिवार्यता नहीं है । हमारा, समग्र जीवन ही योग है (All Life is yoga) इस योग में बाह्य कर्मकांड, विधि निषेध की जरूरत नहीं है । लेकिन साधक के लिए कामवासना का त्याग, मद्यपान और तम्बाकू एवं राजनीति का निषेध दर्शाया गया है । ये तीन व्यवधान हैं, जो हमें अदिव्यता की ओर ले जाती हैं ।” (शब्द-सृष्टि’ जून-2021, डॉ. परम पाठक के आलेख से)

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