बुधवार, 30 अक्तूबर 2024

खण्ड-2

युग सृष्टा-युग दृष्टा : स्वामी विवेकानंद

Sisters and Brothers of America.” 

(सिस्टर्स एण्ड ब्रदर्स ऑफ अमेरिका)

इतना सुनते ही पूरा सभागृह तालियों से गूँज उठा। जी हाँ! आत्मीयता भर देने वाले यह शब्द शिकागो धर्म सम्मेलन (11सितंबर,1893) में एक भारतीय संन्यासी के भाषण के आरंभिक शब्द थे। भारत में यूँ तो अनेक संत-महात्मा-संन्यासी हुए हैं लेकिन इस तरह के प्रभावी  शब्द प्रयुक्त करने वाले इस संन्यासी को हम संन्यासी कहें या आधुनिक भारत का निर्माता अथवा दिग्दर्शन करने वाला या फिर इन्हें हम आधुनिक भारत को किस मार्ग पर चलना चाहिए वह मार्ग दिखाने वाला कहें। आधुनिक संन्यासियों की सूची में शीर्षस्थ नाम है – स्वामी विवेकानंद। शिकागो के धर्म सम्मेलन के इसी भाषण के साथ विवेकानंद के दर्शन का आरंभ हुआ। विवेकानंद का दर्शन भारत का दर्शन कहा जा सकता है। शंकराचार्य के वेदान्त दर्शन को ही इन्होंने हिन्दू दर्शन कहते हुए इसे नये ज़माने के हिसाब से परिवर्तन करते हुए एक नये रूप में प्रस्तुत करते हुए ‘नव वेदान्त’ (Neo-Vedanta) दर्शन कहा। शंकराचार्य ने अपने दर्शन में बहुत ही गहरे अर्थों वाले सूत्र प्रयुक्त किए थे, उसे सरलीकृत रूप में प्रस्तुत करते हुए विवेकानंद ने अपने वेदान्त दर्शन के सिद्धांत दिए, जिसे इन्होंने इस शिकागो के सम्मेलन में अपने भाषणों द्वारा लोगों तक पहुँचाया एवं सम्पूर्ण विश्व में युग सृष्टा-युग दृष्टा के रूप में अपनी पहचान बनाई।

इसमें कोई संदेह नहीं कि विवेकानंद ने भारत की गरिमामय तस्वीर सबके सामने प्रस्तुत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अपने शिकागो वाले भाषण में उन्होंने हिन्दू एवं हिन्दुत्व को बहुत ही अच्छे से प्रस्तुत करते हुए अंग्रेजों द्वारा हिन्दू /भारतीयों के बारे में फैलाई गई गलत-नकारात्मक भ्रांतियों को दूर किया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के अनुसार – “यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िये। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पायेंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।”

इन्होंने केवल अपने जीवन उत्थान के लिए ही नहीं बल्कि राष्ट्र का आत्म उत्थान करने के लिए साधना की। दरअसल हमारे विद्वानों द्वारा दिए गए ‘स्वराज’ शब्द में चेतना भरने का कार्य विवेकानंद ने किया। उन्होंने नारी, शूद्र, दरिद्र, पतित प्रभृति वर्ग को जगाने के लिए यह कार्य शिक्षा के माध्यम से किया। अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के पदचिह्नों पर चलते हुए नवजागरण का कार्य किया। इन्होंने भारत को पतित अवस्था से उठाकर उच्च अवस्था तक पहुँचाया।

अपने गुरु रामकृष्ण परामहंस के पद चिह्नों पर चलते हुए विवेकानंद ने भी मानवता को सर्वोपरि माना, उनके अनुसार – ‘नर सेवा ही नारायण सेवा है।’ वे मनुष्यों को उनके दुःखों से मुक्त करना चाहते थे। वे मनुष्य को अज्ञान एवं दुःख से मुक्ति दिलाना चाहते थे। सभी धर्म हमें एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं – यह सिद्धांत भी उन्होंने अपने गुरु से ग्रहण किया। गौतम बुद्ध की तरह विवेकानंद ने भी ‘सभी के लिए मोक्ष’ के सिद्धांत पर जोर दिया। विवेकानंद के शिक्षा को सदैव प्राथमिकता दी, उनके अनुसार शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो मनुष्य में मानवता का निर्माण करें। उनका मनाना था कि शिक्षा से मनुष्य का शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक अर्थात सम्पूर्ण विकास हो। शोधकर्ता सत्य प्रकाश मोहता ने अपने शोध ‘स्वामी विवेकानंद के नव्य वेदान्त दर्शन और उनके शैक्षिक विचारों की वर्तमान प्रासंगिकता’ में अपने विचार प्रस्तुत करते हुए लिखा – ‘आत्मबोध को वर्तमान शिक्षा का अंग बनाया जाना चाहिए तभी हम मानव को पुनः मानव बनाने में सफल हो पाएँगे। जिससे विश्व में व्याप्त अनेकानेक समस्याओं का समाधान स्वतः ही हो जाएगा और व्यक्ति के अंदर होने वाला यह परिवर्तन अंततः समाज को उत्तरोत्तर श्रेष्ठता की ओर अग्रसित करेगा।”

यूँ तो विवेकानंद वेदांती थे लेकिन उन्होंने सगुण और निर्गुण दोनों को बराबर का महत्त्व दिया। उन्होंने कहा कि ब्रह्म को समझना किसी साधारण मनुष्य के लिए संभव नहीं है। अपनी बौद्धिक-आध्यात्मिक-मानसिक क्षमता के अनुसार मनुष्य सगुण की उपासना पहले करता है और फिर निर्गुण तक पहुँचता है।

फ्रांसीसी लेखक रोमां रोलां के शब्दों में – “उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असम्भव है, वे जहाँ भी गये, सर्वप्रथम ही रहे। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता था। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी। हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देख ठिठक कर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा – ‘शिव!’ यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो।”

रोचक प्रसंग

1

गंगा नदी में शव बहाने का प्रचलन पहले से चला आ रहा है।  आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति जो अपने सगे-संबंधियों के शव को ठीक तरह से अंतिम संस्कार करने का प्रबंध नहीं कर पाते थे तो शव को गंगा जी में बहा देते थे और कहते थे ये तो कच्छ-मच्छ के लिए है। इसलिए गंगा जी में काफी शव तैरते नज़र आते थे। एक बार विवेकानंद गंगा के किनारे खड़े थे। उसी समय एक युवक ने गंगा जी में छलांग लगाई और वह तैरता हुआ दूसरे किनारे पर आ पहुँचा जहाँ विवेकानंद खड़े थे। इस पर विवेकानंद ने कहा ये जो लोग गंगा में तैर रहे हैं आप उनसे विपरीत दिशा में तैरकर क्यों आए? इस पर उस युवक ने कहा अरे ये लोग तैर नहीं रहे, ये तो मरे हुए लोग है जो गंगा के बहाव के साथ बह रहे हैं। मैं तो ज़िंदा हूँ, मैं तैरकर नदी पार करके आया हूँ। इस बात ने विवेकानंद को चिंतन करने पर मजबूर कर दिया और उन्होंने इस पर अपना विचार-मंत्र दिया कि – ‘समय की धारा प्रवाह के साथ जो बहते हैं वो तिनके के समान है, शव के समान है।’ यानी अंग्रेजों ने जो धारा चलाई है जो उनके साथ बह रहे हैं उनकी आत्मा मर चुकी है, शरीर भी मर चुका वह ही धारा प्रवाह के साथ चल रहे हैं।  

2

एक बार विवेकानंद शिकागो जाने के लिए श्रीरामकृष्ण परमहंस की पत्नी शारदामणि जी से वह विदेश जाने की आज्ञा लेने गए। उस समय माता रसोई घर में थीं। विवेकानंद ने उनके समक्ष उपस्थित होकर कहा कि मैं विदेश जाना चाहता हूँ। आपकी आज्ञा लेने आया हूँ। माता ने कहा कि यदि मैं मना कर दूँगी तो क्या तुम नहीं जाओगे? यह सुनकर विवेकानंद कुछ नहीं बोले। तब शारदामणि माता ने उनसे सामने रखा चाकू माँगा। विवेकानंद ने उन्हें चाकू दे दिया। तभी माता ने कहा कि तुमने मेरा यह काम किया है इसलिए तुम विदेश जा सकते हो। विवेकानंद को कुछ समझ में नहीं आया। तब माता बोली कि यदि तुमने चाकू की नोंक अपने हाथ में रखी और मूठ मेरी तरफ कर दी। इसका मतलब तुम तैयार हो। तुम मन, वचन और कर्म से किसी का बुरा नहीं करोगे इसलिए तुम जा सकते हो।

***

स्वामी विवेकानंद

वास्तविक नाम – नरेंद्रनाथ दत्त

जन्म –  12 जनवरी 1863 (कलकत्ता)

पिता – विश्वनाथ दत्त

माता –  भुवनेश्वरी देवी

गुरु – रामकृष्ण परमहंस

संस्थापक –  रामकृष्ण मिशन

मृत्यु –  4 जुलाई, 1902 (बेलूर मठ)

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