शनिवार, 29 जून 2024

दिन कुछ ख़ास है!

30 मई

हिन्दी पत्रकारिता दिवस : उदन्त मार्तण्डके बहाने.....

 

खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो,

जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो।

अकबर इलाहाबादी

पत्रकारिता! मतलब – कलम के सिपाहियों का बड़ा साहस • समाज के, हमारे जीवन के ज्ञानवर्धन, मनोरंजन, उद्‌बोधन, दिशानिर्देश व यथार्थबोध का आधार • सामाजिक-राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना का आदर्श  • सम्प्रेषण का सशक्त माध्यम • लोकतंत्र का ठोस व शक्तिशाली चौथा स्तंभ....। दरअसल इस क्षेत्र की, इस माध्यम की क्षमता-सामर्थ्य, इसके आदर्श-उद्देश्य व दायित्व, इसके स्वरूप-वैशिष्ट्य को देखते हुए यह सूची और भी लम्बी हो सकती है।

गाँधी जी के विचार से “The objective of Journalism is service.” यह महज़ रोजी-रोजगार का ज़रिया ही नहीं, सेवा है। और यह मानव सेवा ही पत्रकारिता का मूल उद्देश्य है। यही इसके उदात्त-आदर्श चरित्र का मुख्य गुण। हिन्दी के प्रख्यात पत्रकार बाबूराव विष्णु पराडकर भी इस बारे में कहते हैं – “सच्चे भारतीय पत्रकार के लिए पत्रकारिता केवल एक कला या जीवीकोपार्जन का साधन मात्र नहीं होना चाहिए, उसके लिए वह कर्तव्य-साधन की एक पुनीत वृत्ति भी होनी चाहिए। पत्रकारिता एक मिशन है और एक मिशन के अंतर्गत जनता की सेवा-भावना ही प्रधान होती है।”

असल में किसी भी राष्ट्र व समाज के प्रमुख आधारों में से एक आधार – पत्रकारिता है। राष्ट्र व समाज को गति देने, मतलब राष्ट्रीय-सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक चेतना के निर्माण व उन्नयन-विकास में वह अपनी अहम् भूमिका अदा करती है।

30 मई, यानी हिन्दी पत्रकारिता दिवस। आज ही के दिन हिन्दी का पहला पत्र (साप्ताहिक) उदन्त मार्तण्ड का प्रकाशन हुआ। “उदन्त मार्तण्ड का प्रकाशन हिन्दी भाषा-भाषी उत्तर प्रदेश के निवासी पं. युगल किशोर शुक्ल ने कलकत्ता से 30 मई, सन् 1826 को किया था। पत्र के मुख्य पृष्ठ पर उदन्त मार्तण्डशीर्षक के नीचे संस्कृत की एक पंक्ति इस प्रकार मुद्रित रहती थी –

उदन्त मार्तण्ड

अर्थात्

दिवाकान्त कान्ति विनाहवान्त मन्तं

न चाप्नोति तद्जगत्यज्ञ लोकः।

समाचार सेवामृते ज्ञप्तमाप्तुं

न शक्तोति तस्यात्म करोमीति यत्नः।”

(भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और उत्तर प्रदेश की हिन्दी पत्रकारिता, डॉ. ब्रह्मानंद, पृ. 26)

लोकहित की पुनीत भावना से प्रेरित होकर इस पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ, अत: देशवासियों का हित संपादन ही इस पत्र का पहला और प्रमुख उद्देश्य रहा। इस बारे में संपादक पं. युगल किशोर शुक्ल ने अपने संपादकीय में लिखा भी था कि – हिन्दुस्तानियों के हित के हेतु इस पत्र का प्रकाशन हुआ। हिन्दी के प्रथम पत्र में संपादकीय टिप्पणी में कही यह बात एक प्रतिज्ञा थी जो हिन्दी पत्रकारिता के प्रारंभ व विकास के मूल में रही।

कलकत्ता के कोलूटोला मुहल्ले से प्रकाशित हिन्दी का यह प्रथम पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ आर्थिक संसाधनों की कमी, पर्याप्त ग्राहकों का अभाव तथा कतिपय सरकारी प्रतिबन्धों की वजह से 04 दिसम्बर, 1827 को, यानी लगभग डेढ़ वर्ष तक नियमित प्रकाशित होने के बाद बंद हो गया। अपने इस पत्र के बंद होने की व्यथा को संपादक महोदय ने पत्र के अंतिम अंक में लिखीं निम्न पंक्तियों में व्यक्त की –

आज दिवस लौं उग चुक्यो मार्तण्ड उदन्त

अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अब अंत ।

आर्थिक समस्या से जूझते हुए अंततः उदन्त मार्तण्ड का प्रकाशन तो बंद हो गया, परंतु एक पत्रकार की, एक संपादक की अपने कार्य के प्रति प्रतिबद्धता व निष्ठा का अंत तो बिल्कुल ही नहीं। “आर्थिक कठिनाइ‌यों के कारण हिन्दी के आदि पत्रकार पं. युगल किशोर शुक्ल ने ‘उदन्त मार्तण्डका प्रकाशन बंद कर दिया था, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि आर्थिक कठिनाइ‌यों ने उनकी निष्ठा को ही खंडित कर दिया था। यदि उनकी निष्ठा टूट गयी होती तो कदाचित् पुनः पत्र  प्रकाशन का वे साहस न करते। हम जानते हैं कि पं. युगल किशोर शुक्ल ने 1850 में सामदण्ड मार्तण्डनामक नया पत्र प्रकाशित किया था।” (भारत में हिन्दी पत्रकारिता, डॉ. रमेश जैन, पृ. 26 )

‘उदन्त मार्तण्डके प्रथम हिन्दी पत्र होने की चर्चा के प्रसंग में एक और बात की भी जानकारी मिलती है जिसमें डॉ. जे. एच. आनन्द ने उदन्त मार्तण्ड’ से पहले ‘दिग्दर्शनऔर गास्पल मैगेजीनदो पत्रों की बात की। उन्होंने रामपुर मिशन केन्द्र द्वारा प्रकाशित पत्र ‘दिग्दर्शन’ (1818) जिसके संपादक क्लार्क मार्शमैन थे तथा इसके संस्करण हिन्दी, बंगला तथा अंग्रेजी तीनों में प्रकाशित होते थे तथा कलकत्ता की एक अन्य मिशनरी से ‘गास्पल मैगजीन’ (1819) नामक पत्रिका जिसके हिन्दी, बंगला नथा अंग्रेजी तीनों भाषाओं में निकलने की बात बताते हुए इन दोनों पत्रों को उदन्त मार्तण्ड से प्राचीन सिद्ध करने का प्रयास किया।

डॉ. आनन्द का उक्त मत हिन्दी मत्रकारिता जगत में मान्य नहीं है। इसमें कोई संदेह-शंका नहीं कि उदन्त मार्तण्डही हिन्दी का प्रथम पत्र है और यही तथ्य प्रसिद्ध व सर्वस्वीकृत है। “वस्तुतः  ‘दिग्दर्शन’ सिरामपुर के मिशनरियों की धार्मिक पत्रिका थी, परंतु इसके हिन्दी संस्करण का जो उल्लेख डॉ. आनन्द ने किया है, उसकी पुष्टि में उन्होंने प्रमाण भी नहीं प्रस्तुत किया है क्योंकि स्वयं उन्हीं के शब्दों में – “दिग्दर्शन को बंगला संस्करण उपलब्ध हैं, पर अब तक हिन्दी संस्करण की एक भी प्रति उपलब्ध नहीं हो सकी। अत: दिग्दर्शनका प्रश्न संदिग्ध है। ‘गास्पल मैगजीन’ की प्रति डॉ. आनन्द ने प्रस्तुत की है, पर यह भी द्विभाषीय पत्रिका है। अतः हिन्दी जन चेतना संवाहिका की उदन्त मार्तण्डकी स्थिति प्रथम पत्र के रूप में यथावत् है।” (प्रयोजनमूलक हिन्दी, डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय तथा डॉ. प्रमिला अवस्थी, पृ.131)

यह भी एक रोचक तथ्य ही कहा जाएगा कि हिन्दी का प्रथम पत्र उदन्त-मार्तण्ड’ का प्रकाशन (1826) अहिन्दी भाषी प्रदेश बंगाल (कलकता) से हिन्दी भाषी (पं. युगल किशोर शुक्ल) के संपादन में हुआ और हिन्दी भाषी क्षेत्र का पहला पत्र ‘बनारस अखबार’ (1845) प्रकाशन बनारस से मराठी भाषी गोविन्द रघुनाथ थत्ते के संपादन में हुआ।

“हिन्दी भाषी क्षेत्र का पह‌ला हिन्दी पत्र ‘बनारस अखबारहै जो सन् 1845 में बनारस से प्रकाशित हुआ था। इसके संपाद‌क मराठी भाषी गोविन्न रघुनाथ थत्ते थे, किन्तु पत्र पर पत्र के प्रधान उद्योक्ता शिवप्रसाद सितारे हिन्द का ही वर्चस्व था।” (भारत में हिन्दी पत्रकारिता, डॉ. रमेश जैन, पृ.25)

इस तरह कलकत्ता-बंगाल ही हिन्दी पत्रकारिता की जन्मभूमि रही। 1826 ई. में यहाँ पं. युगल किशोर शुफ्ल ने उदन्त मार्तण्डके द्वारा हिन्दी पत्रकारिता का बीज बपन किया, वह प्रस्फुटित हुआ और यहाँ से वह अग्रसरित होते हुए अपने बहुमुखी-बहुआयामी रूप में हमारे राष्ट्र, हमारे समाज, हमारे जीवन, हमारी संस्कृति, साथ ही देश-दुनिया के विविध क्षेत्रों की यथातथ्य स्थिति से हमें आज अवगत करा रही है।

जैसा कि हम जानते हैं, कि पत्र-पत्रिकाओं के छपने-प्रकाशित होने की अवधि, विषय वस्तु के वैविध्य तथा संचार माध्यमों के विकास को लेकर वर्तमान में इसका दायरा काफी विस्तृत व बहुआयामी हुआ। प्रिंट मीडिया में दैनिक समाचार पत्र से लेकर साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक, अर्ध-वार्षिक, वार्षिक पत्रिकाओं की संख्या में वृद्धि हुई। साथ ही दूरदर्शन व आकाशवाणी और पिछले कुछ वर्षों से तो सोशल मीडिया की भी, इसके विकास में उल्लेखनीय भूमिका रही है। विषय क्षेत्र की दृष्टि से जीवन का ऐसा कोई पक्ष नहीं, कोई ऐसा अंग नहीं जो पत्रकारिता से आज अछूता रहा हो। पत्र-पत्रिकाओं की पहुँच आज समाज, राजनीति व साहित्य तक ही नहीं बल्कि कला, कृषि, संस्कृति, शिक्षा, विज्ञान, खेल, फिल्म प्रभृति तक बराबर रही है।

हिन्दी पत्रकारिता का तीव्रगामी और बहुमुखी विकास हमारे लिए बहुत अच्छी बात है। अपने आदर्श व दायित्त्वों के अनुसार जनमानस को ज्ञान व सूचनाओं से लाभान्वित करने के साथ-साथ जनता में विशेष चेतना-जागरूकता व संस्कार का संचार करते हुए अपने आदर्श व उज्ज्वल चरित्र को प्रमाणित कर रही पत्रकारिता प्रशंसा के पात्र है।

इसी सच्चाई के साथ-साथ, पत्रकारिता के इन उज्ज्वल व आदर्श पक्षों की सराहना करते हुए हम यह भी न भूलें कि पत्रकारिता का अधिक व्यावसायिक होना, नीर-क्षीर विवेक, तटस्थता-निष्पक्षता को भुलाना, जनहित-जनसेवा से ज्यादा निजी सुख-सुविधाओं की चिंता करना, राजनीतिक दबावों में रहना, युगीन परिवेश से दूर रहना, विषय वस्तु की गुणवत्ता को अनदेखा करना, एकांगी दृष्टिकोण रखना आदि ऐसे दोष हैं जिससे पत्रकारिता को बचाना बहुत जरूरी है, क्योंकि इन दोषों के आने पर पत्रकारिता की छवि को दाग लगने, उसकी महत्ता के कम होने की पूरी संभावना रहती है।

हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता

प्रारंभ से ही साहित्यिक पत्रकारिता, सर्जकों तथा समीक्षकों-चिंतकों की अभिव्यक्ति को बड़े पाठक वर्ग तक पहुँचाने का एक बड़ा माध्यम रहा है। साहित्य सृजन तथा उससे संबंधी शोध समीक्षा के प्रकाशन व प्रचार-प्रसार के साथ विविध साहित्यिक आंदोलनों-विमर्शों, साथ ही भाषा परिष्कार व प्रचार के प्रयत्नों को सफल-सार्थक बनाते हुए असंख्य सर्जकों-समीक्षकों-चिंतकों को साहित्य जगत में स्थापित करने में साहित्यिक पत्रकारिता की बहुत बड़ी भूमिका रही है। बेशक हिन्दी भाषा व साहित्य के विकास में, साहित्य में युगप्रवर्तन तथा विविध प्रवृत्तियों से परिचित कराने में, विचार-धाराओं के उन्मेष में तथा नई साहित्यिक प्रतिभाओं को खोजने तथा उन्हें एक मजबूत मंच देने में हिन्दी की साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं की महती भूमिका रही। कविता, कहानी, एकांकी, निबंध, शोध, समीक्षा आदि से संबंधित ऐसी पुस्तकों की संख्या बहुत ज्यादा होगी। जो पुस्तकाकार से पहले इनकी विषय-वस्तु पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई। आलोचना के संबंध में तो कहते हैं कि आलोचना प्रक्रिया का संबंध कई रूपों में साहित्यिक पत्रकारिता से रहता है। आलोचना संबंधी गतिविधि क्रमशः पत्र-पत्रिकाओं से तेज होती है।

भारतेन्दु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रसाद, पंत, निराला, प्रेमचंद, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, मुक्तिबोध, यशपाल, नामवर सिंह, हरिशंकर परसाई आदि जितने बड़े सर्जक- लेखक थे, उतने ही कुशल संपादक भी। साहित्य सृजन के साथ-साथ पत्रकारिता भी उनके जीवन का अभिन्न अंग रहा। पत्रकारिता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता व समर्पण भाव के चलते उनके संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं का हिन्दी साहित्य के विकास में बड़ा योगदान रहा। हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता में ऐसी असंख्य पत्रिकाएँ हैं जो अपनी स्तरीयता के कारण हिन्दी साहित्येतिहास में एक बड़े आदर्श व मानक रूप में देखी जाती है। मसलन – कवि वचन सुधा, हरिश्चंद्र मैगजीन, हिन्दी प्रदीप, आनंद कादंबिनी, विशाल भारत, सरस्वती, माधुरी, जागरण, हंस, इन्दु, मतवाला, चाँद, धर्मयुग, आलोचना, भाषा, वागर्थ, वर्तमान साहित्य प्रभृति ।

पिछले दो-तीन दशकों की समयावधि में हम बराबर देख रहे हैं कि ‘दिन दुगनी रात चौगुनी’ के हिसाब से हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं की संख्या में वृद्धि हुई है और हो रही है। भारतभर से, अनगिनत छोटे-बड़े शहरों से हिन्दी पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा है। स्तरीयता-गुणवत्ता को लेकर भी इन पत्रिकाओं में मानो एक होड़, लगी हुई है, अतः हर संपादक अपनी पत्रिका की स्तरीयता को और ज्यादा गाढ़ी करने में प्रयासरत है। हम यह भी जानते-देखते हैं कि आज गूगल व सोशल मीडिया का वर्चस्व काफ़ी ज्यादा है। ऐसे में वेब पत्रकारिता या ई-पत्रकारिता का विकास भी स्वाभाविक है। अलग-अलग विषय-क्षेत्रों की तरह हिन्दी साहित्य संबंधी ई-पत्रिकाओं की संख्या भी आज बहुत बड़ी है। हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास-विस्तार, प्रचार-प्रसार में यह वेब पत्रकारिता भी आज एक महत्वपूर्ण दायित्व का निर्वाह कर रही है।

 

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