डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र
भाषा के दो आधार हैं - मन और मस्तिष्क। मन मनुष्य की चेतना
का हिस्सा है तथा मस्तिष्क शरीर का हिस्सा है। इस तरह मन का स्वरूप अमूर्त तथा
मस्तिष्क का स्वरूप जैविक है। भाषा के मानसिक स्वरूप का अध्ययन भाषाविज्ञान की
शाखा मनोभाषाविज्ञान के अंतर्गत किया जाता है तथा उसके जैविक स्वरूप का अध्ययन ‘स्नायविक भाषाविज्ञान’
(nuerolinguistics) के अंतर्गत किया जाता है। भाषा के जैविक (बायोलॉजिकल)
कार्य तथा भाषा-अधिगम (हम भाषा कैसे सीखते हैं) और भाषा-प्रयोग से संबंधित
मस्तिष्क की बनावट का अध्ययन ‘स्नायविक भाषाविज्ञान’
में किया जाता है। परंतु यह विषय अभी प्रारंभिक अवस्था में
है।
मस्तिष्क हमारे शरीर का सर्वाधिक जटिल अवयव है। वह हमारे
शरीर की समस्त संज्ञानात्मक क्षमताओं (कॉग्नेटिव एबिलीटि) एवं क्रियाओं का केंद्र
है। 18वीं शताब्दी के अंत तक यह तय नहीं हो पाया था कि मस्तिष्क के कौन-से हिस्से
में कौन-सी क्षमता मौजूद है। उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में ‘गाल’ तथा ‘स्पर्जीम’ नामक विद्वानों ने ‘लोकेलाइजेशन’ का सिद्धांत प्रस्तुत किया,
जिसमें यह दावा किया गया कि मनुष्य की विविध प्रकार की
क्षमताएँ मस्तिष्क के किस हिस्से में मौजूद हैं,
यह खोजा जा सकता है। इसी क्रम में उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य
में इस बात की संभावना व्यक्त की गई कि मस्तिष्क और भाषा के सीधे संबंध का पता
लगाया जा सकता है। आगे इसी दिशा में निरंतर प्रयत्न होते रहे।
मस्तिष्क हमारी खोपड़ी में स्थित होता है और उसमें करोड़ों की
संख्या में स्नायु कोशिकाएँ (नर्व सेल्स) तथा उतनी ही संख्या में स्नायु तंतुएँ
(फाइबर) होती हैं, जो कोशिकाओं को जोड़ती हैं। स्नायु कोशिकाओं से मस्तिष्क का
सतह निर्मित होता है, जिसे वल्कल (कोर्टेक्स) कहते हैं। वल्कल के नीचे भूरा और
सफेद पदार्थ होता है। मस्तिष्कीय वल्कल (सेरिब्रल कोर्टेक्स) शरीर का निर्णयकर्ता
अवयव (डिसीजन मेकिंग ऑर्गन) होता है। बोधात्मक अवयवों (सेंसरी ऑर्गन्स) द्वारा
मस्तिष्क सारी सूचनाएँ प्राप्त करता है। इसी में मन की सारी स्मृतियाँ संचित होती
हैं। तंत्रिकाविज्ञानियों का मानना है कि इसी भूरे पदार्थ के किसी हिस्से में
हमारी भाषा का सार्वभौम व्याकरण (भाषिक क्षमता) स्थित है।
हमारा मस्तिष्क दो भागों में बँटा होता है,
जिन्हें मस्तिष्कीय गोलार्ध (सेरिब्रल हेमिंस्फेयर) कहते
हैं - बायाँ गोलार्ध (लेफ्ट हेमिंस्फेयर) तथा दायाँ गोलार्ध (राइट हेमिंस्फेयर)।
बायाँ गोलार्ध वृहद् मस्तिष्कीय गोलार्ध (मेजर हेमिंस्फेयर) या वृहद् मस्तिष्क कहा
जाता है तथा दायाँ गोलार्ध लघु मस्तिष्कीय गोलार्ध या लघु मस्तिष्क कहा जाता है।
एक बड़ा रोचक तथा विलक्षण तथ्य यह है कि बायाँ गोलार्ध हमारे शरीर के दायें हिस्से
के क्रिया-कलापों को संचालित करता है तथा दायाँ गोलार्ध हमारे शरीर के बायें
हिस्से के क्रिया-कलापों को संचालित करता है। कोई काम करने के लिए बायें हाथ को
निर्देश दायें गोलार्ध से मिलता है तथा दायें हाथ को बायें गोलार्ध से। दोनों
गोलार्ध स्नायविक तंतुओं (नर्व फाइबर) के एक विशेष समूह द्वारा,
जिसे ‘कार्पस कलोजम’ कहा जाता है, आपस में जुड़े होते हैं। दोनों गोलार्धों के अपने विशिष्ट
कार्य हैं। विविध प्रयोगों से यह पता चला है कि दक्षिण हस्तक (राइट हैंडेड)
व्यक्तियों में उनका बायाँ गोलार्ध भाषा तथा भाषण क्रिया का संचालन करता है;
जबकि वामहस्तक (लेफ्ट हैंडेड) व्यक्तियों में,
हालाँकि उनकी संख्या कुल आबादी की 7% से अधिक नहीं बताई जाती,
दायें गोलार्ध द्वारा भाषा तथा भाषण-क्रिया का संचालन होता
है। निरीक्षणों द्वारा यह पाया गया है कि किसी व्यक्ति के मस्तिष्क का बायाँ
गोलार्ध, किसी कारण से, क्षतिग्रस्त हो जाता है,
तो उस व्यक्ति को भाषा एवं भाषा-प्रयोग संबंधी कठिनाइयाँ
होने लगती हैं। परंतु यदि दायाँ गोलार्ध क्षतिग्रस्त होता है,
तो ऐसी कोई कठिनाई नहीं होती। आर्नस्टीन ने अध्ययन और
प्रयोग द्वारा यह निष्कर्ष निकाला है कि लिखित शब्द को बायें गोलार्ध में पहुँचाने
के लिए जब दायीं आँख की तरफ से दिखाया जाता है,
तब व्यक्ति को शब्दों को पहचानने में अधिक सुविधा होती है;
और गलतियाँ कम होती हैं। परंतु जब बायीं आँख की तरफ से
दिखाया जाता है, तब शब्दों को पहचानने में बहुत कठिनाई होती है;
और गलतियाँ ज्यादा होती हैं। इसी तरह आर्नस्टीन ने ईईजी
(इलेक्ट्रोइन्सेफोलोग्राम) परीक्षण द्वारा यह निष्कर्ष निकाला कि व्यक्ति को जब
कुछ बोलने के लिए कहा जाता है, तब विद्युत क्रियाएँ (इलेक्ट्रिकल एक्टीविटीज) बायें
गोलार्ध में बढ़ जाती हैं और जब स्थानिक कार्य (spatial activities) करने को कहा जाता है,
तब विद्युत क्रियाएँ बायें गोलार्ध की अपेक्षा दायें
गोलार्ध में तीव्र हो जाती हैं। इससे साबित होता है कि बायें गोलार्ध द्वारा ही
भाषा एवं भाषण-क्रियाएँ संचालित होती हैं।
मस्तिष्क के बायें गोलार्ध की भाषा एवं भाषण क्रिया को
नियंत्रित करने वाला क्षेत्र तीन भागों में बँटा होता है - 1.
वर्निक क्षेत्र, 2. ब्रोका क्षेत्र तथा 3.
आर्कुएट फैसिकुलस। कार्ल वर्निक ने वर्निक क्षेत्र का पता
लगाया था तथा पॉल ब्रोका ने ब्रोका क्षेत्र का पता लगाया था। आर्कुएट फैसिकुलस
ब्रोका क्षेत्र तथा वर्निक क्षेत्र को जोड़ने वाली तंत्रिका तंतुओं का समूह होता
है। ये तीनों मिलकर भाषा एवं भाषण-क्रिया को नियंत्रित एवं संचालित करते हैं।
ब्रोका क्षेत्र में उच्चारणात्मक संकेत (आर्टिकुलेटरी कोड) संचित होते हैं,
जो किसी शब्द का उच्चारण करने में विविध उच्चारण अवयवों की
मांसपेशियों के क्रम का निर्धारण करते हैं। इसी तरह वर्निक क्षेत्र में
श्रवण-संकेत (ऑडिटरी कोड) तथा शब्दों के अर्थ संचित होते हैं। जब किसी शब्द का उच्चारण करना होता है,
तब सबसे पहले वर्निक क्षेत्र में संचित शब्द-संकेत (वर्ड
कोड) उत्तेजित होता है तथा आर्कुएट फैसिकुलस के माध्यम से ब्रोका क्षेत्र में
पहुँचता है। वहाँ वह उच्चारण संकेत को उत्तेजित करता है। फिर वह संकेत गति क्षेत्र
(मोटर एरिया) में पहुँचता है और उच्चारण अवयवों को उत्तेजित करता है,
जिससे ध्वनि-संकेतों के रूप में शब्द उच्चरित होते हैं।
इसी तरह यदि लिखे हुए शब्द का उच्चारण करना हो,
तो सबसे पहले उस लिखे हुए शब्द का ‘तंत्रिका आवेग’ (नर्व इम्पल्स) ‘दृष्टि-क्षेत्र’ (विजुअल एरिया) में पहुँचता है। फिर वहाँ से वह एंगुलर गाइरस
में पहुँचता है, जो उस लिखित शब्दरूप को वर्निक क्षेत्र में पहुँचाता है,
जहाँ उसे उपयुक्त श्रवण-संकेत मिलता है तथा उसका अर्थ भी
समझ में आता है। फिर वह संकेत ब्रोका क्षेत्र में पहुँचता है,
जहाँ उसे उच्चारणात्मक संकेत मिलता है,
जो गति क्षेत्र को उत्तेजित करके उच्चारण अवयवों से शब्द का
उच्चारण कराता है।
ब्रोका क्षेत्र के क्षतिग्रस्त होने पर व्यक्ति की
भाषण-क्रिया (स्पीच) प्रभावित होती है; परंतु उसे लिखी हुई या बोली हुई भाषा को समझने में कठिनाई
नहीं होती। इसके विपरीत यदि ब्रोका क्षेत्र सही-सलामत रहता है और वर्निक क्षेत्र
क्षतिग्रस्त होता है, तो भाषा-बोध (लैंग्वेज कंप्रिहेन्सन) की क्षमता समाप्त हो
जाती है। फिर भी, व्यक्ति शब्दों का उच्चारण ठीक ढंग से कर लेता है। यदि
एंगुलर गाइरस क्षतिग्रस्त होता है, तो व्यक्ति लिखित शब्द को नहीं पढ़ सकता;
परंतु बोले हुए शब्द को समझने में तथा शब्द को बोलने में
उसे दिक्कत नहीं होती। ये सभी निष्कर्ष व्यापक हो सकते हैं,
परंतु इन्हें आत्यंतिक नहीं कहा जा सकता। परीक्षणों और
प्रयोगों से इनके अपवाद भी सामने आए हैं।
डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र
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