शनिवार, 29 जून 2024

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ज्येष्ठ पूर्णिमा

कबीर जयंती :

कबीर के मायने .....

किसी महान साहित्यकार के सृजनात्मक अवदान व उपलब्धियों की चर्चा के प्रसंग पर, कला-जगत का एक सिद्धांत वाक्य - सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् ।’- का स्मरण स्वाभाविक है। यदि हम इस वाक्य में शामिल शब्दत्रयी को साहित्य या कला-जगत का मुद्रालेख कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, क्योंकि सभी साहित्यकारों- कलाकारों के सृजन-कर्म में इन तीनों तत्त्वों का सन्निवेश कम-ज़्यादा मात्रा में होता ही है। सम्प्रति, उक्त संदर्भ में हम पूर्व मध्यकाल के प्रमुख तीन कवियों – कबीर, तुलसी और सूर को देखें तो कबीर में सत्य’, तुलसी में शिवऔर सूर में सुन्दरतत्त्व का प्राधान्य है। इसका अर्थ यह नहीं कि इन कवियों में पाए जाने वाले मुख्य तत्त्व के साथ दो अन्य तत्त्व नहीं हैं। दरअसल सभी में तीनों तत्त्व हैं पर प्राधान्य किसी एक का है। जहाँ तक कबीर की बात है तो उनका समग्र जीवन तथा उनका काव्य सत्य की खोज और सत्य के प्रयोगों का ही प्रामाणिक दस्तावेज़ है।

भक्तिकाल की संतकाव्य परंपरा की सबसे बड़ी उपलब्धि कबीर और उनकी वाणी है। विषय वस्तु या विषय-क्षेत्र के लिहाज़ से कबीर काव्य में विस्तार व वैविध्य ज्यादा है। अध्यात्म, ब्रहम, आत्मा, मोक्ष, रहस्यात्मकता, माया, दर्शन, योग, भक्ति, गुरु महिमा, समाज दर्शन प्रभृति विषयों को लेकर उनका काव्य विकसित हुआ है।

कबीर-काव्य के मर्मज्ञ आलोचकों की प्रथम पंक्ति में डॉ. पीताम्बर बड़थ्वाल [द निगुण स्कूल ऑफ पोयट्री - 1936], पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल, डॉ. धर्मवीर, डॉ. शिवकुमार मिश्र आदि के नाम लिए जा सकते हैं जिन्होंने बड़ी गंभीरता से व्यवस्थित व विस्तार के साथ कबीर और उनके काव्य को देखने का प्रयास किया। वैसे तो पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी से पहले आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा डॉ. पीताम्बर बड़थ्वाल जैसे सुधी समीक्षकों ने कबीर-काव्य संबंधी अपनी स्थापनाएँ – मान्यताएँ प्रस्तुत कीं, अपितु सही अर्थों में कबीर को तथा उनके काव्य को साहित्य जगत में पर्याप्त ऊँचाई प्रदान करने का श्रेय पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी को ही जाता है। “हिन्दी साहित्य में अपने ढंग के ‘अद्वितीय’ सिर से लेकर पैर तक मस्तमौला, संस्कार में अक्खड़, लेकिन स्वभाव से फक्कड़, निरपख भगवान और निरपख मानुष के प्रवक्ता, वीर्यवती प्रेम भक्ति के साधक, सबसे बड़े व्यंग्यकार, वाणी के डिक्टेटर, क्रान्तिकारी आदि- एक साथ इतने संश्लिष्ट व्यक्तित्व के रूप में कबीर को प्रतिष्ठित करने वाले पहले आलोचक पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी हैं।” [भक्तिकाव्य : पुनर्पाठ, प्रो. दयाशंकर, पृ. 49]

कबीर के मामले में डॉ. शिवकुमार मिश्र एक ओर अपने से पूर्व आलोचकों की कतिपय मान्यताओं पर पुनर्विचार करते हैं, उसमें अपना कुछ जोड़ते हैं तो दूसरी ओर अपने कुछ नवीन-मौलिक मत-अभिमत भी रखते हैं। इस संदर्भ में एक उदाहरण – पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि कबीर अपने समय में अस्वीकारका बहुत बड़ा साहस लेकर आए । शिवकुमार जी वैसे तो द्विवेदी जी की इस बात का स्वीकार व समर्थन करते हैं परंतु इसमें एक नई बात जोड़ते हैं – कबीर के ‘स्वीकार’ वाली बात । अर्थात् कबीर ने परंपरा का सबकुछ अस्वीकार नहीं किया बल्कि बहुत से संदर्भों में स्वीकार वाली बात भी है। इस तरह मिश्र जी ने कबीर के कवि व्यक्तित्व के दो पहलुओं को बताया – स्वीकार और अस्वीकार । “मिश्र जी बहुत ज़ोर देकर यह रेखांकित करते हैं कि कबीर में परंपरा का जितना अस्वीकार है, उससे कहीं अधिक उसका स्वीकार है। इसलिए वे कबीर में ‘दो कबीरकी थियरी को सामने रखते हैं – एक स्वीकार बाला और दूसरा अस्वीकार वाला कबीर ।” (मार्क्सवादी समीक्षक डॉ. शिवकुमार मिश्र, डॉ. भरतसिंह झाला, पृ. 89) दरअसल कबीर काव्य में जहाँ ब्रहम, जीव, माया, रहस्यात्मकता, आत्मा-परमात्मा के अंतर्गत संयोग-वियोग, योग-दर्शन, रहस्यात्मकता, पूर्वजन्म-पुनर्जन्म, भाग्य, उलटबासियाँ जैसे संदभों में वे परंपरा के स्वीकार करने वाले व्यक्तित्व से जुड़ते हैं और यहाँ उनमें समाज सुधारक, क्रांतिकारीपन, व्यंग्य, अक्कड़-फक्कड़पन वाली बात नहीं, परंतु जहाँ उनके समाजदर्शन तथा वहाँ भी ज्यादा प्रगतिवादी, क्रांतिकारी रूप में वे ज्यादातर अस्वीकारवाले स्वभाव से जुडते हैं, और असल में उनका यही कवि व्यक्तित्व आज ज्यादा प्रासंगिक है। “मिश्र जी कबीर के स्वीकार वाले पक्ष को उनकी भक्ति भावना, उनके दार्शनिक विचार, रहस्यवाद तथा साधना पक्ष से जोडते हैं; परंतु कबीर के अस्वीकार का संबंध वे उनके समाज दर्शन से मानते हैं। वे कहते हैं – कबीर की कविता की जो सामाजिक अंतर्वस्तु है, उसमें विषमता मूलक, चली आ रही सामाजिक संरचना की अमानवीयता और उसे बरकरार रखने वाली शक्तियों की भेद-भावपूर्ण दृष्टि अपनी समूची त्रासद परिणतियों के साथ मूर्त हुई है।” (वही. पृ. 90)

हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास’ में दी गई जानकारी के अनुसार कबीर काव्य के संग्रह-प्रकाशन को लेकर मुख्य ग्रंथों में सबसे पहले तीन ग्रंथों का उल्लेख किया जा सकता है – बीजक, ग्रंथ साहब और कबीर ग्रंथावली । बीजकका महत्त्व सर्वाधिक, जो कबीर पंथ व कबीरपंथियों का एक धर्मग्रंथ ही है। ‘ग्रंथ साहबजो मूलतः सिखों का धर्मग्रंथ है। इस ग्रंथ में कबीर के नाम से 228 पद तथा 238 साखियाँ दी गई है। कबीर की रचनाओं के संपादित ग्रंथों में डॉ. श्यामसुन्दर दास द्वारा संपादित और नागरीप्रचारिणी सभा, काशी से प्रकाशित ‘कबीर ग्रंथावलीसबसे ज्यादा प्रामाणिक संकलन माना गया है।

सन्त व्यक्तित्व के सभी गुण तथा सन्त काव्य की सभी - मान्यताएँ मतलब कबीर और कबीर काव्य! कबीर काव्य में विचार या वर्णित विषय-वस्तु तथा उसकी भाषा को लेकर यदि आज कबीर की समकालीनता या प्रासंगिकता को खोजना-तलाशना हो तो उनका समाजदर्शन, सहजधर्म संबंधी विचार तथा जनभाषा एवं मुहावरेदार भाषा के परिप्रेक्ष्य में वे आज ज्यादा प्रासंगिक लगते हैं। समानता, स्वतंत्रता, न्याय का शंखनाद करने वाले कबीर आधुनिक लोकतंत्र एवं मानवाधिकार के संदर्भ में भी सटीक बैठते हैं।

आज से लगभग 600 वर्ष पूर्व कबीर का जो समाजदर्शन था, क्या  उसकी उपयोगिता आज कम है? धर्म की बनी बनाई डिसीप्लिन से बाहर ले जाकर समाज को धर्म की एक सहज-सरल एवं स्वाभाविक पहचान कराने वाले कबीर, धार्मिक व साम्प्रदायिक भेदभाव का विरोध करते हुए साम्प्रदायिक सद्‌भाव-भाईचारे की सुगन्ध फैलाने वाले कबीर, धर्म व समाज में व्याप्त पाखण्ड, कुरीतियों, अन्धविश्वासों, ऊँच-नीच, छुआ-छूत, आदि पर प्रहार करते एक समाज सुधारक के रूप में एक आदर्श समाज व्यवस्था के आकांक्षी कबीर की प्रासंगिकता स्वयंसिद्ध है। “प्रगतिशील चेतना के विद्रोही कवि कबीर का स्वभाव ही है कि कोई भी बात जो तर्कसम्मत न हो, बुद्धिगम्य न हो, चैज्ञानिक न हो उसे वे एक सिरे से खारिज़ करते हैं। इसे एक आश्चर्य या विडम्बना कहना चाहिए कि एक अनपढ़-अशिक्षित कवि वैज्ञानिक अभिगम की बात करता है और उस निकष पर जो भी खरा नहीं उतरना उसे लपेटना है, लथाड़ता है, उस पर उ‌लाहना देता है।”

धर्म के संबंध में कबीर सहज धर्म के हिमायती थे। इनका यह सहज धर्म कहीं न कहीं मानवधर्म एवं लोकहित की भावना से ही जुड़ा है। घर-संसार छोड वैराग्य धारण करके ही धर्म, भक्ति व ईश्वर साधना संभव हो, इस तरह की मानसिकता कबीर की नहीं है।

वैसे कोई भी अतीत का कवि वर्तमान में शत-प्रतिशत प्रासंगिक हो ही नहीं सकता । कबीर काव्य का बहुत सारा अंश आज जहाँ प्रासंगिक है। वहीं कुछ अंश ऐसा भी है जिसकी प्रासंगिकता पर प्रश्न उठ सकते हैं। हमने पहले ही इस बात का उल्लेख किया है कि अपनी सामाजिक चेतना को लेकर ही कबीर आज के संदर्भ में ज्यादा प्रासंगिक है। इस संदर्भ में कबीर की जरूरत आज भी महसूस कर रहे है। प्रो. पारूकांत देसाई के एक लम्बे काव्य की प्रारंभिक पंक्तियाँ याद आती हैं –

 

“कबिरा तेरी आज भी जरूरत है,

उतनी ही, शायद उससे भी ज्यादा

क्योंकि जिस युग में तू पैदा हुआ था

अपने अंधेपन में आज से ज्यादा टक्कर नहीं ले सकता।”

 

कबीर-काव्य के कुछेक अंश –

 

केसन कहा बिगारिया जो मूंडो सौ बार ।

मन को कुछ न मूडिए जामें विषय-विकार ।।

***

न्हाये धोये क्या भया, जा मन मैल न जाए।

मीन सदा जल में रहे, धोए बास न जाए ।।

***

नागे फिरे जोग में होई बन का मृग मुकति गया कोई ।

मूंड मुडाये जो सिद्धि होई, स्वर्ग ही भेड न पहुँची कोई ॥

***

ऊँचे कुल का जनमिया करनी ऊंच न होय ।

सुबरन कलस सुरा भरा साधू निन्दत होय ।।

***

माया मुई न मन मुवा, मरि-मरि जात सरीर ।

आसा त्रिस्नां ना मुई, यूं कह गया कबीर ॥

***

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहि ।

सब अंधियारा मिट गया, जब दीपक देख्या मांहि ॥

***

कबीरा ते नर अंध है, गुरु को कहते और ।

हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठे नहीं ठौर ।।

***

साँई इतना दीजिए जा में कुटुम्ब समाय ।

मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाय ।।

***

 

 


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