डॉ.
ऋषभदेव शर्मा
उन्होंने
ज़ोरों से घोषणा की:
अब
से तुम आज़ाद हो,
अपनी
मर्जी की मालिक।
मुझे
लगा:
मैं
अब अपने सारे निर्णय ख़ुद लूँगी,
इन देवताओं का बोझ कंधों पर न ढोना पड़ेगा।
मैंने
खुले आसमान में उड़ान भरी ही थी
कि
फ़रिश्ते आ गए।
बोले:
हमारे
साथ चलो।
हम
तुम्हें अमृत के पंख देंगे।
मैंने
इनकार कर दिया।
मेरा
अकेले उड़ने का मन था।
फ़रिश्ते
आग-बबूला हो गए।
उनके
अमृतवर्षी पंख ज्वालामुखी बन गए।
गंधक
और तेज़ाब की बारिश में मैं झुलस गई।
सर्पविष
की पहली ही फुहार ने मेरी दृष्टि छीन ली
और
मेरी त्वचा को वेधकर तेज़ाब की जलन
एक
एक धमनी में समाती चली गई।
मैं
तड़प रही हूँ।
फ़रिश्ते
जश्न मना रहे हैं - जीत का जश्न।
जब-जब
वे मुझसे हारे हैं,
उन्होंने
यही तो किया है।
जब-जब
मैंने अपनी राह ख़ुद चुनी,
जब-जब
मैंने उन्हें ‘ना’ कहा,
तब-तब
या तो मुझे
आग
के दरिया में कूदना पड़ा
या
उन्होंने अपने अग्निदंश से
मुझे
जीवित लाश बना दिया।
जब-जब
मैंने अपनी राह ख़ुद चुनी,
जब-जब
मैंने उन्हें ‘ना’ कहा
तब-तब
या तो मुझे धरती में समाना पडा
या
महाभारत रचाना पड़ा।
मैंने
कितने रावणों के नाभिकुंड सोखे!
कितने
दुर्योधनों के रक्त से केश सींचे!
कितनी
बार मैं महिषमर्दिनी से लेकर दस्युसुंदरी तक बनी!
कितनी
बार....
कितनी
बार…
पर
उनका तेज़ाब आज भी अक्षय है।
घृणा
का कोश लिए फिरते हैं वे अपने प्राणों में;
और
जब भी मेरे होठों से निकलती है एक ‘ना’
तो
वे सारी नफ़रत
सारा
तेज़ाब
उलट
देते हैं मेरे मुँह पर।
मैं
अब नरक में हूँ;
अंधकार
और यातना के नरक में।
अब
मुझे नींद नहीं आती
आते
हैं जागती आँखों डरावने सपने।
नहीं,
उड़ान
के सपने नहीं।
आग
के सपने…
तेज़ाब
के सपने…
साँपों के सपने…
यातनागृहों
के सपने…
वैतरणी
के सपने…
यमदूतो!
मुझे
नरक में तो जीने दो!!
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डॉ. ऋषभदेव
शर्मा
सेवा
निवृत्त प्रोफ़ेसर
दक्षिण भारत
हिन्दी प्रचार सभा
हैदराबाद
बहुत सुंदर । सुदर्शन रत्नाकर
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