शुक्रवार, 31 मई 2024

विशेष

माँ : सतत बहता स्नेह निर्झर

डॉ. पूर्वा शर्मा

‘रमणीयार्थप्रतिपादक: शब्द: काव्यम्।साथ ही, ज्यादा भावुकतापूर्ण उक्तियों में कही जाने वाली बातों के चलते काव्यानुशासन- साहित्यानुशासन में माँ की तुलना अन्य से या माँ की कतिपय उपमाएँ संभव हैं।  हमारी चर्चा की तो शुरुआत ही इसी शब्द-शैली में हुई है –

कभी ना सूखे

सतत ही बहता

स्नेह निर्झर (माँ)।

 अन्यथा ‘माँ’ एक ऐसा शब्द, एक ऐसा एहसास, एक ऐसा रिश्ता है जिसकी किसी और से तुलना या जिसके लिए कोई उपमा मुश्किल है। माँ की तुलना या माँ की उपमा और माँ की परिभाषा...सिर्फ माँ!

हम एक शब्द हैं तो वह पूरी भाषा है
हम कुंठित हैं तो वह एक अभिलाषा है
बस यही माँ की परिभाषा है।

शैलेश लोढ़ा

देश, प्रांत, संस्कृति चाहे कोई भी हो; माँ की महिमा अन‌मोल है। माँ की बात करते ही एक शेर स्मृति में कौंध जाता है –

चलती फिरती हुई आँखों से अजाँ देखी है,

मैंने जन्नत तो नहीं देखी है माँ देखी है।

मुनव्वर राणा

स्त्री-जीवन से संबद्ध विविध वास्तविकताओं में, एक वास्तविकता यह भी है कि प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक भारतीय समाज, संस्कृति व साहित्य में स्त्री के गौरव व महत्त्व की स्वीकृति तथा प्रशंसा बराबर होती रही है। “भारतीय साधकों, महर्षियों तथा मनीषियों ने नारी के सौन्दर्य, कोमलता तथा मधुरता में महाशक्ति का प्रकाश देखा है। उनके मतानुसार नारी शक्ति-स्वरूपिणी है, क्योंकि उसमें ऐश्वर्य, माधुर्य, स्नेह, ममता, प्रेम, त्याग आदि अनेक कोमल तथा शांत गुण-समूह विद्यमान है।” (समकालीन हिन्दी कहानियों में नारी के विविध रूप, डॉ. घनश्याम दास भुतड़ा, पृ. 100)

माता, पत्नी, पुत्री, भगिनी प्रभृति रूपों में एक आदर्श को लिए हुए स्त्री सदैव हमारे जीवन को, हमारे समाज को संस्कारित व सुशोभित करती रहती है। हम जानते हैं कि स्त्रियों को देवीशब्द से संबोधित करने का संस्कार भारतीय संस्कृति में ही है, जो स्त्री को एक दैवीरूप में या परम आध्यात्मिक शक्ति के रूप में देखने-मानने का ही प्रमाण है।

वैसे तो नारी के सभी रूपों की अपनी-अपनी एक खास अहमियत है, फिर भी नारी के नाना रूपों में सर्वाधिक महत् व गौरवशाली रूप, साथ ही एक अर्थ में शाश्वत रूप माँ का है। हम यूँ कह सकते हैं कि नारी का सारतत्व माँ ही है। यह रूप है ही ऐसा जिसके चलते सृष्टि का ऐसा एक भी प्राणी नहीं मिलेगा जो इस रूप से प्रभावित न हुआ हो। माँ की भूमिका का निर्वहन करते हुए भी वह एक दोस्त, हमदर्द, पिता, बड़े भैया जैसे कई किरदार भी निभाती है। मनोज मुंतशिर के शब्दों में –

अजीब है मेरी माँ

रंग बदलने में माहिर!

 

मैं उदास नज़र आऊँ,

तो दोस्त हमदर्द बन जाती है

कोई गलती करूँ तो बाबूजी की तरह सख्त

और घबराऊँ तो बड़े भैया की तरह सरपरस्त

 

ये कैसा करिश्मा है

जो बाकी लोग नहीं कर पाते

माँ अकेली हर रिश्ते की जगह भर देती है

पर दुनिया के सारे रिश्ते मिलके

एक माँ की जगह नहीं भर पाते!

(काव्य-संग्रह -जो मेरी नस-नस में है...)

दरअसल मातृत्व स्त्री जीवन की चरम सफलता एवं सार्थकता है। “संतान को जन्म देना, उसका लालन-पालन करना, अन्तिम क्षण तक उसकी रक्षा करना और आजीवन उसकी उन्नति में योग देना – मातृत्व का यही आदर्श है, यही उसका शाश्वत रूप है। जीवन भर की साधना और तपस्या से माता  अपने वात्सल्य को चरितार्थ करती है। एक शब्द में, वह अपने समस्त व्यक्तित्व को अपनी संतान में लय कर देती है।” (दृष्टव्य - हिन्दी उपन्यास में नारी चित्रण, बिन्दु अग्रवाल, पृ. 214-215)

संतान को जन्म देना और उसकी परवरिश करना ही नहीं बल्कि अपनी संतान के गंतव्यों की वीथियाँ बनने के साथ-साथ उसकी प्रगति में सदैव सहयोगी और मार्गदर्शक की भूमिका का निर्वाह करना भी मातृत्व का परम उद्देश्य है। और यही तो है स्त्री जीवन के इस उदात्त रूप की पहचान।

पितुरप्यधिका माना गर्भधारण पोषणात् ।

अतोहि त्रिषु लोकेषु नास्ति मातृ समो गुरुः ।।

वेद व्यास

माता का महत्त्व पिता से भी अधिक है, कारण स्पष्ट है कि माँ अपने गर्भ में संतान को धारण करती है और अपने रक्त, रस और शरीर के साथ-साथ भावनाओं और संस्कारों से भी उसका पालन-पोषण करती हैं। इसलिए तीनों लोकों में माता के समान कोई गुरु व मार्गदर्शक हो ही नहीं सकता।

बेशक, हमारे जीवन में माँ का स्थान सर्वोच्च है। हमारे शास्त्रों में तो माँ को पृथ्वीस्वरूपा कहा गया है। एक संतान के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित करने वाली माँ की तुलना किसी और से नहीं हो सकती। मातृत्व के बारे में कवि रोबर्ट ब्राउनिंग लिखते हैं – सभी प्रकार के प्रेम का आदि उद्‌गम स्थल मातृत्व है और प्रेम के सभी रूप इसी मातृत्व में समाहित हो जाते हैं। प्रेम गहन, अपूर्व अनुभूति है, पर शिशु के प्रति माँ का प्रेम एक स्वर्गीय अनुभूति है।

कोई भी संतान माँ की महिमा, मातृशक्ति की गरिमा, अपने ऊपर माँ के ऋ‌ण से अनभिज्ञ नहीं है। माँ के प्रेम, ममता, वात्सल्य, करुणा, त्याग जैसे महान गुणों के लाभ से वंचित नहीं है। फारसी के एक कवि ने लिखा   है –

ज़ेर-ए-कदम वालिदा, फिरदौस वही (माँ के चरणों के नीचे स्वर्ग है।)

हम जानते-देखते ही हैं कि सामान्य से सामान्य और बड़े से बड़े लोग अपने निर्माण में माँ के योगदान की भूरि-भूरि प्रशंसा करते रहते हैं। सभी ने अपने ऊपर माँ के ऋण को नतमस्तक स्वीकार किया है।

इस लिए चल न सका कोई भी ख़ंजर मुझ पर

मेरी शह-रग पे मिरी माँ की दुआ रक्खी थी

नज़ीर बाकरी

“महान विजेता नेपोलियन ने भी अपनी समस्त सफलताओं का श्रेय अपनी माँ को देते हुए कहा था कि राष्ट्र के उत्थान के लिए अच्छे नागरिकों का विकास करना और कोई नहीं यहाँ कि माताएँ ही कर सकती हैं। चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस का भी कथन था कि समाज को सुधारना है तो परिवारों को सुधारो । और परिवारों का सुधार तथा सुसंस्कृत परिवारों का निर्माण अच्छी माताएँ ही कर सकती हैं। विश्व के सभी धर्म प्रवर्तकों, श्रेष्ठ चिंतकों, समज-सेवियों तथा मानवता के शुभचिंतकों ने माँ की ममता और मातृशक्ति की गरिमा की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। इसमें भारतीय मनीषियों ने मातृशक्ति को जो महत्त्व प्रदान किया है वह तो अनुपम और अद्वितीय ही है।” (इक्कीसवीं सदी, नारी सदी, पं. श्रीराम शर्मा, पृ. 2.21)

संसार में आया हर व्यक्ति माँ से अधिक और किसी का ऋणी नहीं है। माँ केवल जन्मदात्री ही नहीं, अपितु जीवन निर्मात्री भी है। संतान को जन्म देने के बाद आजीवन धैर्य एवं सहिष्णुता के साथ उसके सुख की कामना करती है। अत: उनके ऋण से उऋ‌ण होना हमारे सामर्थ्य के बाहर की वस्तु है। किसी शायर ने ठीक ही कहा है –

जिस ने इक उम्र दी है बच्चों को

उस के हिस्से में एक दिन आया

माँ की ममता कभी नहीं घटती। माँ का वात्सल्य कभी नहीं सूखता। अपने बच्चों के प्रति माँ का यह स्नेह निर्झर सतत बहता ही रहता है। उसकी सहिष्णुता का भी कोई पार नहीं। परिस्थितियाँ चाहे अनुकूल हो या फिर प्रतिकूल, पर संतानहित ही उसका एकमात्र लक्ष्य होता है। कठिन से कठिन परिस्थितियों में तथा बड़े से बड़े विरोध में भी माँ अपने इस ममतामय एवं वात्सल्यमय दायित्व को नहीं भूलती। अपनी संतानों के उज्ज्वल भविष्य निर्माण के लिए सदैव तत्पर रहने वाली माँ की बच्चों के चरित्र निर्माण में भी महती भूमिका रहती है।

माँ के उदात्त व्यक्तित्व का ही एक अति उम्दा गुण है कि संतान की ओर से कभी-कभी अपमान व उपेक्षा होने के बावजूद उस माँ के प्रेम-वात्सल्य में कमी नहीं आती। समाज में हम ऐसी कई माताओं को देखते हैं जो अनेकों कष्टों-पीड़ाओं को सहते हुए अपने बेटों-बेटियों की परवरिश करती हैं, उन्हें हर तरह से योग्य बनाती है और बाद में उनसे ही इन्हें दुःख मिलता है। वृद्धाश्रमों में तो इस तरह की कहानियों को हम देखते सुनते ही रहते हैं। स्त्री के मातृरूप की ये भी एक बड़ी त्रासदी है या कहिए कि इनके लिए एक अभिशाप। लेकिन ऐसे त्रासद हालात में भी माँ की महानता यह है कि अपनी संतान के दुर्व्यवहार से उसे दुःख तो होता है पर माँ कभी ऐसी संतानों को बद् दुआ नहीं देती, उन्हें कोसती नहीं, बल्कि अपने भाग्य पर ही रोती है। यही है माँ के वात्सल्य एवं ममता की पराकाष्ठा । मातृत्व की महानता है –

कुपुत्रो जायेत कवचिदपि कुमाता न भवति ।।

गुण और दोष दोनों का मिश्रित रूप होने के कारण मनुष्य के स्वभाव व व्यवहार में अच्छाई और बुराई दोनों का प्रभाव दिखाई देता है। कभी-कभी इन्सानी फ़ितरत में दोषों की अधिकता व गंभीरता के चलते परिवार, समाज, रिश्ते तथा स्वयं के अस्तित्व एवं अहमियत को ज्यादा नुकसान होता है। मातृत्व की चर्चा के प्रसंग में भी हम यह न भूलें कि समाज में कभी-कभी माताओं द्वारा अपने संतानों के साथ किये गये अमानवीय कृत्यों से मातृत्व कलंकित होता है, जो कि ऐसी घटनाएँ अपवाद ही कही जा सकती है, पर होती है, यह सत्य है। हम यह भी देखते हैं कि इस तरह की घटनाओं में ज्यादातर माताओं की कोई न कोई मजबूरी इन्हें इस तरह के कार्य के लिए प्रेरित करती है। मातृत्व को कलंकित करने वाली कतिपय घटनाएँ, जो हमारे सामने आती हैं जिनमें कभी-कभी विवाह पूर्व माता बनने पर लोकलाज के कारण माता द्वारा अपने ही बच्चे को लावारिस अवस्था में कहीं छोड़ देना। कभी-कभी विवाहित स्त्रियों द्वारा भी किसी कारणवश अपनी संतान को अपने से दूर कर देना। स्त्री की स्वयं की या उस परिवार की, लड़की की अपेक्षा लड़के की चाह के चलते कन्याभ्रूण की हत्या।  

माँ के बारे में जितना भी कहा जाए, लिखा जाए उतना कम है। माँ पर, मातृत्व पर, माँ के एहसानों पर,   माँ की महिमा और महानता पर दुनिया भर के सैकड़ों सर्जकों ने बड़े विस्तार से और बड़ी संजीदगी से अपनी लेखनी चलाई है लेकिन यह विषय ही ऐसा है, माँ की कहानी ही ऐसी है कि इसे कितना भी कहो-सुनाओ कभी पूरी नहीं होगी! हम कितना भी लिखने का प्रयास करें माँ के प्रेम को, उसके वात्सल्य को, उसके बलिदानों को, उसके भावों आदि को पूर्णतः लिपिबद्ध करना मुश्किल है। माँ के लिए इतना ही कहा जा सकता है –

 

मैंने धरती पर कविता लिखी है
चन्द्रमा को गिटार में बदला है
समुद्र को शेर की तरह
आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया।
सूरज पर कभी भी कविता लिख दूँगा,
माँ पर नहीं लिख सकता कविता।

चंद्र कान्त देवताले

*** 

डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा

 

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर आलेख। सुदर्शन रत्नाकर

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  2. मां साक्षात अनेक भुजाओं और विशाल हृदय वाली देवी होती है । सभी माताओं को नमन । - रवि शर्मा इंदौर

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