जब
मुझे अँगूठी
बेचनी पड़ी
इन्द्रकुमार दीक्षित
मैं
जब रोजी-रोटी कमाने के चक्कर में यहाँ वहाँ मुँह मार रहा था अर्थात सेवा में स्थिरता की
प्रत्याशा में इधर उधर भटक रहा था, तब तक
वही हमारा पर्यटन था। उसमें भी एक से एक नायाब अनुभव हो रहे थे। पढाई
एक तरह से अधूरी छोड़कर सर्व प्रथम मैं शिक्षण व्यवसाय में आया, उस समय शिक्षण कार्य कोई स्थाई जॉब नहीं था, कोई
अन्य अच्छी नौकरी मिलने तक
समय
पास करने का जरिया माना जाता था। क्योंकि
तब प्राइवेट या प्रबंधकीय व्यवस्था वाले
स्कूलों में वेतन सरकारी सहायता से नहीं मिलता था न ही स्थाई सेवा की गारन्टी ही होती
थी। हर बीस मई को सेवा समाप्ति की नोटिस मिल जाती थी।अगले साल
जुलाई में फिर वही तलाश।जो
भाग्यवान होते, पहले वाले स्कूल में फिर से जगह पा
जाते।मेरा भी करीब पाँच साल का समय इसी
तरह जाया हुआ। विद्यालय सरकारी एड पर आने
के बाद मुझे नोटिस मिल गई कि 'बिना टीचर ट्रेनिंग (बी. एड. अथवा एल टी) किए अगले सत्र से शिक्षण कार्य से
वंचित कर दिया जाएगा'। प्रिन्सिपल साहब ने बुलाकर परामर्श दिया कि '
आप कहीं से इस सत्र में बी एड की डिग्री जरूर ले लें, अगले सत्र में आपकी ट्रेंड टीचर के रूप में नियुक्ति कर ली जाएगी' फिर तो मैं बी. एड. करने के चक्कर में पड़ गया।
गोरखपुर
विश्व विद्यालय तथा बुद्ध डिग्री कॉलेज
कुशीनगर से फार्म डाल दिया,
जून में कुशीनगर की लिस्ट में नाम आ गया, पर वहाँ फीस ज्यादा होने के कारण मैं चाहता था कि वि वि
में एडमिशन हो जाय क्योंकि वहाँ
फीस कम थी और
मैं ट्रेन से आसानी से आ जा कर क्लास कर
सकता था,
इसी इंतजार में कुशीनगर में एड्मिशन की डेट समाप्त हो गई ।अब तो मैं भारी मुश्किल में पड़ गया , सोच
नहीं पा रहा था कि क्या करूँ? झिझकते हुए यह बात मैंने
ब्रह्मपुर के श्री शिव प्रसाद दुबे( लल्लू बाबू) को बताई उनकी कुशीनगर डिग्री कॉलेज के प्रबंधक सरदार सुरजीत
सिंह मजीठया उर्फ महाराज जी के साथ उठना
बैठना था।लल्लू बाबू मुझे तुरंत जीप
पर बैठाए और सरदार नगर पहुँचे। मजीठया साहब कॉलेज
के बड़े बाबू चौबे जी के नाम एक चिट्ठी देकर बोले 'इसे चौबे जी को दे देना एडमिशन हो जायेगा'।अगले दिन मैं कॉलेज
पहुँचा तो उस दिन कोई छुट्टी थी पर चौबे जी कार्यालय में बैठे हुए थे ,
मैंने पत्र उन्हें दिया तो
बोले कि आज तो छुट्टी है और हेड गौड़
साहब बनारस गए हैं, फिर कुछ सोचकर
चपरासी से बोले कि 'जाओ के
एल गुप्ता जी को बुला लाओ' मैं सामने बैठा रहा। बी. एड. विभाग के सहायक आचार्य के एल गुप्ता जी आये तो
चौबे जी ने कक्ष का ताला खुलवाकर मेरा
फ़ार्म निकलवाया और उस पर
कुछ नोट्स लिखे फिर बोले कि तुम कल या दो
तीन दिन में आकर फीस जमा कर देना। इस प्रकार मेरा बी एड में एडमीशन हुआ।
तमाम
मुश्किलें झेलते हुए 1973-74 में बी
एड पूरा हुआ ।अभी रिजल्ट जुलाई के अन्त तक आने वाला था तब तक
पुराने स्कूल में नये सत्र
के लिये ऐड
निकाल कर नये शिक्षकों की भरती हो गई जो शिक्षक बी एड करने गए थे वे
वंचित रह गए उनमें मैं भी था।अब
वेतन मिलना बंद था अपना और परिवार का खर्च
चलाने में कठिनाई होने लगी। कुछ भी निश्चित नहीं था कि रिजल्ट
आने पर नियुक्ति हो ही जाएगी। मुझे विद्यालय से घर की करीब 70 कि मी की दूरी बस से तय
करनी होती थी, उसके लिये पैसे कहाँ से आते। विद्यालय के सम्पर्क में न रहने पर पुन: नियुक्ति
होना सम्भव नहीं था।
मैंने बी एड ट्रेनिंग के दौरान
गाँव के दो तीन मित्रों से कर्ज ले रखा था इस उम्मीद में कि
नियुक्ति के बाद वेतन मिलने पर धीरे धीरे
किश्तों में लौटा दूँगा, पर यहाँ तो नियुक्ति का
ही ठिकाना नहीं था। बड़ा कठिन समय था। जीवन यापन के लिये कुछ और
कार्य करते हुए नियुक्ति के लिये प्रयास में लगे रहना जरूरी था। सो मैंने शादी में ससुराल से मिली सोने की अँगूठी घर में बिना बताए बेच दी
और उससे मिली रकम से मेडिकल के कुछ उपकरण स्टेथोस्कोप,
सिरिंज, नीडिल, होमियो पैथ का एक बाक्स,
बैग ,काटन , स्प्रिट,
पट्टियाँ, मीठी गोलियाँ, टिंकचर, कुछ दवा की शीशियाँ और मदर
टिन्क्चर खरीद लीं और जनता होमियो हाल के
नाम एक बोर्ड बनवाया । बोर्ड को घर के सामने लटकाया और दूसरे दिन से गाँव में ही प्रैक्टिस शुरू कर दी। घर के लोग चकित
कि यह क्या कर रहा है, पर मेरी मजबूरी थी, मरता क्या न करता !
हफ्ते
में दो दिन ब्रह्मपुर विद्यालय पर जाता बाकी दिन
घर आकर प्रैक्टिस करता वह भी
ज्यादातर उधारी लगता, सुई इन्जेक्शन,
तथा चोट चपेट की मरहम पट्टी से कुछ पैसे रोज मिल जाते उसी से काम चलता। उधारी पैसे सब्जी,
दूध- दही , खाने के मौसमी फल अथवा रोगी के
अच्छा हो जाने पर आधे -तीहे कर के
नकद मिलते।न कोई रजिस्ट्रेशन
का चक्कर न ही कोई मेडिकल की डिग्री,डर भी लगता कि कोई केस बिगड़ न
जाय नहीं तो लेने के देने पड़ जाते । इस बीच पत्नी को ससुराल पहुँचा दिया कि ज्यादा
खर्चे की झंझट न रहे और मैं फ़्री होकर गाँव
से विद्यालय तक आ जा सकूँ।
उधर
मेरे व्यवहार और
शिक्षण कार्य से विद्यालय के प्रबंध समिति के लोग इतने प्रभावित थे कि प्रधानाचार्य और प्रबंधक पर लगातार बी. एड. करके
लौटे अध्यापकों की पुन: नियुक्ति
के लिये दबाव बनाए हुए थे, उधर नए नियुक्त हुए
अध्यापकों से छात्र तथा अभिभावक भी संतुष्ट नहीं थे ,
वे लोग भी चाहते थे कि
पुराने अनुभवी अध्यापक ही पढ़ाएँ। इसका प्रभाव यह पड़ा
कि रिजल्ट आने के बाद नवंबर
माह में फिर से नई वैकेंसी निकाली गई, इंटरवियु हुआ और एल टी
ग्रेड में मेरी नियुक्ति तथा दो तीन
और पुराने अध्यापकों की नियुक्ति की गई। जब अनुमोदन के लिये फाइल जिला
विद्यालय निरीक्षक के कार्यालय गई तो वहाँ
पहले से नियुक्त शिक्षकों ने आपत्ति दाखिल
कर दिया।
यद्यपि
उनकी नियुक्तियाँ भी मैंनेजमेंट ने सीटी ग्रेड(
जूनियर) पर किया था। तीन चार महीने तक
जाँच चलती रही, फिर सही पाये जाने पर सत्र के
अन्तिम दिन 20 मई
को जिला विद्यालय निरीक्षक गोरखपुर
ने अनुमोदन पत्र जारी किया और हम
स्थाई शिक्षक के रूप में नियुक्ति पा सके। पूरा सत्र तो बीत ही चुका था। मई महीने की दस दिन और जून महीने की तनख्वाह जुलाई में पुन: स्कूल खुलने पर मिली तो चेहरे पर रंगत देखने को मिली।
इस बीच डाक्टरी का पेशा मेरे काम आया।
अब
नियमित अध्यापक तो बन गया पर पढ़ने पढाने की ललक के चलते प्राइवेट पढाई जारी रखा
।उन्हीं दिनों पूर्व प्रधान मन्त्री इन्दिरा गांधी जी ने देश में इमर्जेन्सी लगा दिया ।चारों ओर डर एवं दहशत का माहौल हो गया था।देश के बड़े बड़े
अनुभवी नेता जेल में डाल दिये गये।
सरकार के खिलाफ कुछ भी बोलने, लिखने
और
छापने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था इसके लिये
संविधान में भी बदलाव कर दिये गये ।हमारे इंटर कॉलेज के प्रबंधक श्री विजय नारायण दुबे RSS के
प्रचारक थे उन्हें भी जेल में डाल दिया
गया।प्रबंधक का चार्ज रेल विभाग के कर्मचारी उप प्रबंधक राम
अवध सिंह को दे दिया गया।
उस
दौरान कर्मचारियों और अध्यापकों की सेवा
शर्तों को शासन के नये नये आदेशों के अधीन अनुशासित कर दिया गया था,
बीस सूत्री योजना के तहत प्रत्येक कर्मचारी / अध्यापक
जो दो बच्चों का पिता था को नसबन्दी कराना अनिवार्य कर दिया गया था ।इसके लिये एक
घोषणा पत्र जिसमें यह लिखा था कि 'मेरे दो बच्चों( लड़का या लड़की) से अधिक नहीं हैं' पर हस्ताक्षर करके अपने नियोजक के माध्यम से विभाग को भेजना जरूरी कर दिया गया,
जिससे दो
से अधिक बच्चे वाले परेशान थे।उनकी तनख्वाह रोक दी गई। मेरी तब तक तीन पुत्रियाँ ही थीं।घोषणा पत्र में
छोटी पुत्री को छिपाकर दो ही का नाम
देकर नौकरी बचाया।इसके लिये आये
दिन धरपकड़ और जाँच पड़ताल हो रही थी। निर्बाध वेतन मिलते रहने के लिये किसी नसबन्दी कराने वाले का प्रेरक (motivator) बन कर प्रमाणपत्र देना
जरूरी था। रुपये देकर फर्जी नसबन्दी का
दौर शुरु हो गया था सो मैंने
भी एक अध्यापक जो फर्जी नसबन्दी कराए
उनके मोटीवेटर का मेडिकल प्रमाण
पत्र का जुगाड़
किया। गनीमत
हुई कि मेरा वेतन नहीं रुका।
1977 में चुनाव के बाद जब कांग्रेस को बुरी तरह हराकर जनता पार्टी की सरकार
बन गई तब इन ऊल जलूल आदेशों से मुक्ति मिली।
इस
बीच मैंने
प्राइवेट फ़ार्म भरकर प्रधानाचार्य के
अनुमति से दो साल में दर्शन शास्त्र विषय लेकर पोस्ट ग्रेजुएट की डिग्री ली। आगे 1980-
81 में इसी तरह अनुमति लेकर हिमांचल प्रदेश वि. वि. शिमला से एम. एड. डिग्री प्राप्त किया जो
माध्यमिक शिक्षा आयोग(1982-83) द्वारा अपने जनपद देवरिया
में प्रधानाध्यापक चयनित
होने में बड़ी काम आई।
फरवरी
मार्च 1984 में मेरा चयन आयोग द्वारा देवरिया जनपद के जनता हाई स्कूल परसिया बरडीहा
में हो गया जो कि उस समय सरकारी सहायता प्राप्त
नहीं था परंतु मेरे घर से देवरिया मुख्यालय मार्ग
पर मात्र 12 कि. मी. की दूरी पर था। मैं दूसरे जनपद गोराखपुर से
अपने गृह
जिले में आना चाहता था। संयोग से मार्च 1984 में उक्त विद्यालय राज्य
सरकार द्वारा जारी सहायता प्राप्त
विद्यालयों की सूची में आ गया।इसके बाद मैंने नये
विद्यालय में ज्वाइन करने का प्रयत्न शुरु कर दिया।( इसकी एक लंबी कहानी है जिसके
बारे में कभी बाद में बात की जाएगी। करीब डेढ़
वर्ष के थका देने वाले संघर्ष के बाद अपने जिले में हेड
मास्टरी तो मिली पर
मानों अंगारों पर चलने की तरह। एक
तरफ प्रधानाचार्य पद का गुरुतर दायित्व
दूसरी तरफ पारिवारिक दायित्व इधर गिरो तो
कुआँ
उधर गिरो तो खाई।ऐसे में कहीं पर्यटन अथवा
घूमने के लिये निकलने की सोच भी नहीं
सकता था।
पूरी
चाकरी अगल बगल के दो जिलों में सिमट कर
बीत गई कूप मन्डूक की तरह।
इन्द्रकुमार दीक्षित
नागरी
प्रचारिणी सभा
देवरिया
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