रविवार, 14 अप्रैल 2024

कहानी


प्यास

डॉ. मंजु शर्मा

घड़ी उठाते, पर्स और गाड़ी की चाबी संभालते हुए उसके पैर हाथ और होंठ एक साथ दौड़ रहे थे। धरर्र  की आवाज़ के साथ वह छू मंतर। अब शाम का पता नहीं और न ही आधी रात का । इसी रफ्तार से चलती है।  न .. न चलती नहीं दौड़ती है।   

पिता ने  गर्वीली आवाज में कहा कि श्रीमती जी आपको तो खुशी होनी चाहिए कि  हमारी बेटी तेज तर्रार रिपोर्टर के नाम से जानी-पहचानी और पसंद की जाती है। माँ मुस्कुरा दी। दोनों हमेशा के जुमले पर आ गए  ‘मेरी बेटी मेरा अभिमान है’।

अचानक ब्रेक के साथ जोर का धक्का लगा और गाड़ी रेवड़ (भेड़ों का झुंड) के जाने का इंतजार करने लगी।  हार्न  बजाया। हार्न  का  इन पर  कोई असर नहीं । ये तो अपनी चाल से चलेंगी । बिल्कुल कतार में क्या अनुशासन है रंजना मुस्कुरा दी।  वैसे शहर में भी तो ट्रैफिक में यही होता है हार्न, हार्न बस बजाते रहो । आवश्यक अनावश्यक। रेवड़ रेवड़ी और रेवाड़ी .. वह सोचने लगी एक मात्रा कितना गहरा अर्थ देती है । रास्ता फारिग हुआ तो गाड़ी हवा से बात करने लगी । यहाँ भीड़भड़क्का तो था नहीं कि गाड़ी धीरे से चलाए ।  अगर टीले में फँस गई तो यह सोचकर वह सतर्क हो गई । और गेयर बदल दिया ।

जेठ की चिलचिलाती धूप बदन में शूल की तरह चुभती है ।  रंजना ने पानी पीना चाहा । अरे जल्दी में पानी लाना तो भूल ही गई । वैसे कोन बड़ी बात पानी तो खरीद सकते हैं न ! कंधे उचकाए और  आगे बढ़ गई  । लेकिन रंजना का  यह विश्वास जल्दी ही धरास्याही  हो गया । कहीं पानी नहीं बस मृगमरीचिका । शायद वह रास्ता भटक गई थी । जीपीएस हमेशा खरा उरते यह भी जरूरी नहीं न । उसका गला सूखने लगा । वह पानी की तलाश में उतरी कि लू के गरम थपेड़ों ने उसे झुलसा दिया। छाया देने वाला चश्मा उतारा  उफ़! यहाँ तो आग बरस रही है । यह धूप तो आँखों को रेगिस्तान में बदलने को आतुर है। प्यास  के मारे छटपटाहट जैसे पानी बिन मीन । थोड़ा आगे गई कि एक जाँटी  (राजस्थान में पाया जाने वाला वृक्ष ) के नीचे भुने हुए तीतरों की तरह पड़े दो लोग । रंजना की आवाज से उनमें   कुछ हलचल हुई । उनके पास फावड़ा, परात और पानी का एक मटका था । उसकी नजरें पानी के मटके पर पड़ी कि जी में जी आया । मुझे पानी पीना है । दो बेजान आँखे पल्लू से झाँकी और   इस अप्रत्यासी प्रश्न से चौंक गई । अब उसने अपनी लूगड़ी (ओढनी) नीची की और बुदबुदाई । के बोल रहया हैं ये बाईसा ? रामप्रताप  ने राम-राम कर अभिवादन में हाथ जोड़े । मुझे पानी चाहिए । उसने सीधे प्यास का हवाला दिया । दोनों एक दूसरे को सूखी आँखों से देखने लगे फिर घड़े की ओर टकटकी । क्या हुआ ? देखिए! यहाँ पानी की बोतल नहीं मिल रही है और मेरा गला सूखे जा रहा है, थोड़ा सा पानी पिला दीजिए । बचपन में नल खुला छोड़ने पर दादाजी की घुड़की कानों से टकराई .. तुम लोग पढ़ लिखकर भी अनपढ़ हो । ‘पानी गए न ऊबरे मोती मानुष चून’ कहते हुए नल को बंद कर देते थे । सच में आज पानी के एक गिलास के लिए वह गिड़गिड़ा रही थी । बाईजी पाणी तो है, पण थे पीओगा ? मानो मैंने उनकी दुखती रग को छील दिया हो ? पीने के लिए ही तो माँग रही हूँ न ? वह उबल पड़ी । वे दोनों नि:शब्द । रंजना जैसे ही  चलने के लिए मुड़ी कि गंगा  की उदासी में लिपटी असहाय आवाज ने उसे रोका ‘पाणी पिवाणों तो धरम को काम है।  यह कहते हुए उसके  घायल दिल  की राह से जबरदस्ती निकलती हुई पानी की गर्म बूंदे तपती धरती पर चू पड़ी। रंजना  अनजान सी इस पहेली में उलझ गई। रामप्रताप  ने कहा, वो मैडमजी हम जात बाहर हैं न ! इसलिए सोचा कि हमारा छुआ पानी  आप कैसे ....? रंजना के माथे पर प्यास और परेशानी के पड़े बल अब सीधे होने लगे । उसने हाथ बढ़ा दिया और गटगट करती एक साँस में पानी पी गई। मानो जीवन मिल गया हो । सच यह तृप्ति तो टनों सोना पाकर भी न मिले । अब थोड़ी सी छाँव का सहारा लेकर वह उनके पास बैठ गई । यह जात बाहर क्या मतलब, समाज से बहिष्कृत ? प्रताप ने हाँ में गर्दन झुका ली। गंगा ने अपनी लुगड़ी सरका कर गोद में सोए बच्चे को दूध पिलाने लगी ।

आपका नाम क्या है ? रामप्रताप और यह गंगा है।

कहाँ रहते हैं ? यहीं गरोदा गाँव की ढाणी में। क्या करते हो ? गंगा ने कहा अब तो ठाला हाँ । मतलब ? मतबल पहले गाँव में, मनरेगा में या और किसी तरह का काम मिल जाता था अब नहीं मिलता । काम के वास्ते दूर दूर जानो पड़े है। ‘निवाला छीन लिया हमारा’।  किसने ? रंजना ने पूछा ।  कुछ देर चुप्पी छाई रही । ‘खाप पंचायत ने’ बड़ा ही शुष्क जवाब। यह सब क्यों कैसे क्या मैं जान सकती हूँ पूछते हुए अंजना ने पालथी लगा ली। अब न उसे लू झुलस रही थी और न चिलचिलाती धूप चुभ रही थी । गंगा पैर के अंगूठे से मिट्टी कुरेदने लगी । वो मुझे परेम (प्रेम) हो गया था । उसकी आवाज पापभाव और लोकलाज की तलैया में डुबकी लगाने लगी । जेठ दुपहरी में उसके नैना सावन भादो बन बरसने लगे । अंगूठे से मिट्टी कुरेदे जा रही थी मानो गंगा उसमें समा जाना चाहती हो । फिर एकाएक अंजना के मौन को गंगा की तल्खी आवाज ने तोड़ा । अब मन पर किसी का जोर तो नहीं न ! म्हाने गलती की सजा मिल गई । जुर्माना दिया। पाछे क्यूँ भूखे-प्यासे घर से दूर बिरान होना पड़ रहा है?  और सुबक पड़ी ।  रामप्रताप ने बताया कि खाप पंचायत ने दोनों को निर्वस्त्र कर सफेद झीना कपड़ा पहनाया और पूरे समाज के सामने दूध और पानी से नहलाया । अर्थात शुद्धीकरण । व्हाट नोनसेन्स ? अंजना अपने आप से खीज उठी । कल ही तो उसने चंदा मामा दूर के नहीं अब टूर के सुना था । चाँद पर पहुँचने और  रहने की बातों से उड़ी-उड़ी जा रही थी । अचानक धरती पर गिर पड़ी जिससे उसकी सोच के पंख लहूलुहान हो उठे ।

रामप्रताप ने आगे कहा गंगा उस सदमे से बाहर नहीं आई है । इसे दौरे पड़ने लगे हैं । इलाज के पैसे नहीं है । गाँव का कोई दुकानदार हमें सामान नहीं देता है। जरूरत की चीजें  मिलों दूर जाकर लानी  पड़ती  है । कुओं और हैंडपंप से पानी नहीं भरने दिया जाता है  और न ही गांवों के टेंपो से आना-जाना ।  सब पर रोक है । तीन साल से किसी शादी-ब्याह में नहीं गए । पंचायत ने फरमान जारी किया है कि किसी ने हमारी मदद की तो उन्हें भी बिरादरी से निकाल दिया जाएगा ।

तो क्या किसी ने रिपोर्ट नहीं लिखवाई ? लिखवाई थी न ! पर मजाल है कि किसी का बाल बाँका हुआ हो ! बस यह नारकीय जीवन भुगत रहे हैं मैडम जी ।

कहते कहते सिसक उठा । रंजना आज महिला दिवस पर विशेष – ‘स्त्री अधिकार और उसका सम्मान’ पर किसी संस्था में बोलने वाली थी। लेकिन कागजों पर लिखना और टीवी शो पर बोलना कितना आसान है न ! यह सोचते हुए नमस्ते के लिए हाथ जोड़कर उठने लगी । ध्यान आया कि माँ ने पार्ले जी रखा था । बच्चे के लिए पर्स से बिस्कुट निकालते हुए वे  रिसर्च पेपर्स भी निकल पड़े और लू के झोंके में उड़ गए । मुँह चिढ़ाते हुए बलुई मिट्टी में समाधिस्थ  हो गए।

 

डॉ. मंजु शर्मा

विभागाध्यक्ष (हिंदी)

चिरेक इंटरनेशनल स्कूल, हैदराबाद

1 टिप्पणी:

अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...