महानायक
बाबा साहेब डॉ. आम्बेडकर
(
उपन्यास- मोहनदास नैमिशराय)
विमलकुमार
चौधरी
मोहनदास
नैमिशराय दलित साहित्य लेखन परंपरा के प्रमुख चिंतक एवं सशक्त लेखक रहे हैं । चमार
गेट बस्ती में बचपन का जीवन तथा सामाजिक परिवेश ने अपने समुदाय की वास्तविक
सामाजिक विभीषिका को सृजनात्मक रूप देने में महत्वपूर्ण योगदान दिया । उनके
साहित्यिक सर्जन को देखे तो सफदर एक बयान ( कविता-संग्रह-1980),अदालतनामा(नाटक-1989),
क्या मुझे खरीदोगे( प्रथम उपन्यास-1990), दलित उत्पीड़न विशेषांक-1990, भारत रत्न डॉ. भीमराव आम्बेडकर-1990, बाबा साहेब
ने कहा था (विचार-सार-1991), डॉ. आम्बेडकर और उनके संस्मरण-1992, आम्बेडकर डायरेक्टरी-1993,
हिंदी दलित साहित्य-2011, भारतीय दलित आंदोलन का इतिहास (चार भागों में-2012) आदि
अनेक पुस्तकों का लेखन-संपादन तथा चिन्तनात्मक स्तंभ-लेखन किया है । विशेष तो ‘क्या
मुझे खरीदोगे’(प्रथम उपन्यास-1990), ‘मुक्ति पर्व’ (उपन्यास-1999), ‘झलकारी बाई’(उपन्यास-2003),
‘आज बाजार बंद है’(उपन्यास-2004) आदि जीवनीपरक उपन्यास लिखे हैं । इसी क्रम में
आम्बेडकर के जीवन पर लिखा गया ‘महानायक बाबा साहेब डॉ. आम्बेडकर’ प्रथम
ऐतिहासिक उपन्यास है । किसी व्यक्ति के जीवन से जुड़े जीवनीपरक तथ्यों का लेखन तो
बहुत सारे मिलते हैं मगर किसी एक व्यक्ति के जीवन के बारे में ऐतिहासिक क्रम के
साथ जब साहित्यिक स्वरूपों में आकार दिया जाता है तब लेखक के लिए एक अलग ही चुनौती
होती है । मोहनदास नैमिशराय ऐसे ही चुनौतीपूर्ण विषयों के बारे में मजबूत तरीके से
नियमित लिखते रहे हैं ।
रामजी सकपाल सूबेदार के बेटे भीमराव का
जन्म मध्यप्रदेश के महू छावनी ( मध्यप्रदेश) में १४ अप्रैल १८९१में हुआ था ।
इतिहास गवाह है कि समाज, जाति, वर्गभेद, धर्म का सीमांकन, राजनीतिक परिवेश को
बदलकर वे महानायक तक कैसे पहुँचे । मोहनदास नैमिशरायने डॉ. भीमराव के जीवन से जुड़ी
क्रमिक धटनाओं- संघर्ष, अनेक प्रसंग, विविध पड़ावों की दास्ताँ एवं सामाजिक
उतार-चढ़ाव को विस्तार देकर सन् २०१२ में जीवनीपरक ऐतिहासिक उपन्यास ‘ महानायक बाबा
साहेब डॉ. आम्बेडकर’ लिखा । उपन्यास की कथावस्तु का प्रारंभ होने से पूर्व ‘दो
शब्द’ में उपन्यासकार ने लिखा है – “ बाबा
साहेब डॉ. आम्बेडकर के जन्म और जन्म होने के समय उनके परिवार की सामाजिक
परिस्थितियों के साथ महार जाति के गौरवशाली इतिहास से उनका रू-ब-रू होना जरूरी है ।”
महार जाति के इतिहास के संदर्भ में उपन्यासकार का संकेत इतिहास को जानने के लिए
विवश कर देनेवाला प्रश्न खड़ा कर दिया है । आगे भीमराव के बचपन के स्कूलों में नामकरण
का इतिहास, कैंप स्कूल-सतारा, हाई स्कूल-सतारा, एल्फिन्स्टन कॉलेज-बंबई के कैटलॉग
में सरनेम की रूपान्तर की सूची दी है जो एक स्कूली जीवन में बदलती हुई दस्तावेजी
प्रक्रिया का निर्देश है । भीमराव के पिताजी को दापोली में रहना, बच्चों की शिक्षा
हेतु सतारा आ बसना, भीवा का रामीबाई के साथ विवाह, अध्यापक नारायण मल्हार जोशी,
फारसी भाषा के मास्टर खुदाबक्श बेहेरामजी इरानी, एल्फिन्स्टन कॉलेज-बंबई में
प्रीवियस की क्लास में दाखिला, पिता का निधन, कोलंबिया विश्वविद्यालय में प्रवेश,
पीएच.डी. की उपाधि, गाँधी का विचार-स्तवन, सामाजिक-राजनीतिक उतार-चढ़ाव का जिक्र भूमिका
में किया गया है । लेखक ने उपन्यास का
कथा-विस्तार होने से पूर्व इतिहास के पन्नों को भीमराव के जीवन तथा तत्कालीन समाज
व्यवस्था को बराबर टटोला है । इसी संदर्भ में आगे लिखा है – “सवालों और समस्याओं
से रु-ब-रु होने वाले उस अजेय पुरुष की यह संघर्ष कथा है, जिसके सिर पर एक दिन
स्वाधीन भारत के संविधान बनाने का मुकुट रखा गया । और वे करोडों भारतवासियों के
महानायक कहलाए ।” बाबा साहेब के जीवन
संघर्ष, सामाजिक प्रतिरोध, दलित अस्मिता, राजनीतिक उथल-पुथल से गुजरता हुआ यह पहला
ऐतिहासिक उपन्यास जीवनीपरक होते हुए भी भारतीय इतिहास की दृष्टी से नया खोज कहा जा
सकता है ।
अस्पृश्यता की लड़ाई, जातीय घृणा, जातिभेद
का व्यवहार, आर्थिक-धार्मिक समस्या के साथ भीमराव का 1916 में भारत लौटना , 1918
में बम्बई के सिडन हम कॉलेज में राजनीतिक- अर्थ व्यवस्था के पद पर प्रोफेसर की
नियुक्त होना, 1920 में ‘मूकनायक’ का प्रकाशन, महाड अधिवेशन, 4 फरवरी 1933 को
गाँधीजी से भेंट, 1935 के चुनाव और श्रमिक आंदोलन, नागरिक अख़बार से सम्बन्धित
पत्र, जनता पत्र को जारी रखने के लिए आर्थिक सहयोग हेतु पत्र, देश में प्रथम
केन्द्रीय मंत्री मंडल के गठन की शुरुआत, संविधान सभा का द्वितीय अधिवेशन, डॉ.
आम्बेडकर का बौद्ध धर्म स्वीकारना तथा 6 दिसंबर 1956 के दिन दिल्ली में बाबा साहेब
का महानिर्वाण होना, दलित एवं उनके अनुयायियों का शोकातुर होना, पार्थिव शरीर की
उपस्थिति में बड़ी संख्या में लोगों ने बौद्ध धर्म को स्वीकारना आदि अनेक क्रमिक
घटनाओं-कार्यों से कथा-विस्तार हुआ है । विशेष तो रमाबाई का पात्र, महात्मा गाँधी,
महाराजा सयाजीराव गायकवाड, शारदा, कबीर, श्रीमती सरोजिनी नायडू, सुदामा और रत्तू
जैसे महामानव के जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण व्यक्तिओं के बारे में यथा स्थान उल्लेख करना
उपन्यास की ऐतिहासिकता है । वैसे कथा का विस्तार डॉ. आम्बेडकर के जीवनक्रम के साथ
तो चलता ही है लेकिन भारतीय समाज व्यवस्था
में एक दलित जाति एवं अछूत कहे जाने वाले लोग और उनकी सामाजिक पीड़ा का दर्द उपन्यास को अधिक प्रासंगिक बनाता है ।
मोहनदास नैमिशरायने स्वयं अपने समाज की
दयनीय स्थिति एवं समानता के लिए उन पर हो रहे सामाजिक अत्याचार, दुःख-दर्द को
महसूस किया है । उन्हीं कारणों से सामाजिक
त्रासदी, लोगों की विविध समस्याएँ , अपने अस्तित्व की लड़ाई, पहचान के रंग, आत्मा सम्मान की बेला, संघर्ष के पड़ाव, सामाजिक
दायित्व का आधार जैसे पहलुओं का यथेष्ठ वर्णन करना इस उपन्यास की अलग ही विशेषता
रही है । पुस्तक के अंत में संदर्भ भी
दिये गये हैं, जिसमें हिंदी, मराठी, अंग्रेजी, पत्र-पत्रिकाओं की सूची शामिल है ।
उपन्यास के प्रकाशन हेतु जिन साथियों-संस्थानों का आर्थिक सहयोग मिला उनका विवरण तो
है ही साथ में विक्रय हेतु पाठकों तक पहुँचाने के लिए डिस्ट्रीब्यूटर के नामों का
उल्लेख भी है । उपन्यास के प्रथम प्रकाशन के करीब एक साल बाद बारहवां संस्करण का
प्रकाशित होना उपन्यास की उपादेयता एवं समाज जीवन के लिए कितना महत्वपूर्ण रहा
है उसका प्रमाण है । उपन्यास जैसी गद्यविधा
पर जीवनक्रम को शब्द-देह में उतारना कठिन कार्य तो है ही साथ ही ऐतिहासिक विचार का
आलेखन करना विशेष कठिन है और इस कठिन कार्य को सफलतापूर्वक पार करने में मोहनदास
नैमिशराय को अवश्य सफलता मिली है । वस्तुतः पाठकों बीच जिस तरह से इस उपन्यास को
लोकप्रियता मिली है जो इसकी गुणवत्ता को
भी प्रमाणित करती है ।
विमलकुमार
चौधरी
पीएच.डी.
शोध छात्र
स्नातकोत्तर
हिंदी विभाग
सरदार
पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभविद्यानगर
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