मंगलवार, 26 मार्च 2024

विवेचन


हिंदी साहित्य का शेक्सपीयर : रांगेय राघव

डॉ. नीरजा गुरर्मकोंडा

[1]

जीवन शक्ति अपरिमित

 

“रंग-भेद से बनी सभ्यता

वर्ग-भेद से विकल समाज

जन्म-भेद से सुख दुःख मिलते

जीवन भर विकृत अभिशाप

अधिकारों के अहंकार में

जीवन नित्य नई पीड़ा

यहाँ ज्ञान का दीपक धुंधला

जलता है, कायर कीड़ा

(अजेय खंडहर)

कहकर अपने आक्रोश को व्यक्त करने वाले रचनाकार हैं रांगेय राघव। बहुमुखी प्रतिभा के धनी रचनाकार रांगेय राघव (तिरुमल्लै नंबाकम वीर राघव आचार्य, 17 जनवरी, 1923-12 सितंबर, 1962) का जन्म वैर निवासी तिरुमल्लै नंबाकम रंगाचार्य और कनकवल्ली के घर तीसरी संतान के रूप में हुआ। उनके पिता रंगाचार्य के पूर्वज पूर्व श्रीमुश्नम, दक्षिण आरकॉट से जयपुर नरेश के निमंत्रण पर जयपुर गए। वैर तथा निकटवर्ती बरेली (भरतपुर) की जागीर उन्हें दी गई थी। वहाँ सीता-राम के मंदिरों की स्थापना के बाद पूजा-अर्चना का दायित्व भी उन्हीं को सौंपा गया था। उनके पूर्वज वहीं के होकर रह गए। राघव के पिताजी रंगाचार्य संस्कृत, तमिल, हिंदी, फारसी और ब्रज भाषा के प्रकांड पंडित थे। फारसी में कविता भी करते थे। उनके संबंध में सुलोचना रांगेय राघव का कथन है कि “संस्कृत के एक श्लोक का अर्थ समझाने बैठते तो कभी-कभी व्याख्या कई-कई दिनों तक चलती रहती।” (रांगेय राघव ग्रंथावली, भाग 1, भूमिका)। उनकी पत्नी कनकवल्ली भी विदुषी थीं। तमिल, कन्नड और ब्रज भाषा की ज्ञाता थीं। साहित्य में अपार रुचि रखती थी। यदि कहें कि वीर राघव को साहित्य विरासत में मिला तो गलत नहीं होगा। वीर राघव के पिता को राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने के कारण 1928-29 के दौरान बारह वर्ष के लिए राज्य से निष्कासित कर दिया गया था। जागीर भी कोर्ट के हवाले हो गई। उसी समय वीर राघव को अपने पिता से अंग्रेजों के विरोध और राष्ट्रीय प्रेम के संस्कार मिले। उनकी शिक्षा-दीक्षा आगरा में संपन्न हुई। उनके पिता की इच्छा पहले से ही यही थी कि राघव गाँव के मंदिर का आचार्यत्व संभाले। लेकिन प्रगतिशील विचारों वाले पुत्र को यह स्वीकार्य नहीं था। माता-पिता ने भी अधिक जोर नहीं दिया। प्रो. हरिहरनाथ टंडन के निर्देशन में ‘भारतीय मध्यकाल का मनन : गोरखनाथ’ जैसे नए विषय पर उन्होंने शोध किया था। 1949 में उन्होंने डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की।

इस दौरान एक बहुमुखी लेखकीय व्यक्तित्व का निर्माण हो रहा था। इसका प्रारंभ चित्रकला से हुआ। चित्र बनाने वाले वीर राघव ने एक दिन अचानक ही कविता का सृजन किया। इस संबंध में 1954 जनवरी-फरवरी के ‘साहित्य संदेश’ में प्रकाशित उनका यह मत उल्लेखनीय है – “चित्रकला का अभ्यास कुछ छूट गया था। 1938 ई. की बात है। तब ही मैंने कविता लिखना प्रारंभ किया था। सांध्य-भ्रमण का व्यसन था। एक दिन रंगीन आकाश को देखकर कुछ लिखा था – वह सब खो गया है – और तब से बहुत संकोच से मन ने स्वीकार किया कि मैं कविता कर सकता हूँ। फिर बहुत लिखा पर बच नहीं सका। ‘प्रेरणा कैसे हुई’ का पृष्ठ लिखना दुरूह है। इतना ही कह सकता हूँ कि चित्रों से ही कविता प्रारंभ हुई थी और एक प्रकार की बेचैनी उसका मूल थी।” (वही)। इससे स्पष्ट है कि उन्होंने 1938 में ही कविता लिखनी प्रारंभ की और उसी समय लिखी थी ‘मेनका’ जैसी लंबी कविता। इस कविता को पढ़कर इस बात पर विश्वास करना कठिन होगा कि एक पंद्रह वर्ष के किशोर ने इसकी रचना की। कुछ पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत की जा रही हैं –

“मैं हास मधुर उल्लास अमर

मेरे हैं मेघों के अंचल

झीने झिलमिल उस सांध्य गगन

में उड़ते हैं कोमल चंचल

मैं नंदन की रानी हूँ

स्वर्गों की एक कहानी हूँ

मेरा यौवन है अजर अमर,

वह बार-बार के सूख स्वेद

कर देते मुझको नवल मधुर।”

(रांगेय राघव ग्रंथावली, भाग 9, पृ. 9,11) 

वीर राघव 1938 के आस-पास से ही कविता के साथ-साथ कहानी और उपन्यास भी लिखने लगे। ‘नवाब के वारिस’ (अप्राप्य), ‘अँधेरे की भूख’ तथा ‘बोलते खंडहर’ जैसे उपन्यास लिख डाले। उनके प्रारंभिक उपन्यासों पर विदेशी उपन्यासों का प्रभाव दिखाई देता है। उन्हें लिख-लिखकर पन्ने रंगने की आदत थी लेकिन ‘कुछ जमा नहीं’ कहकर फाड़ने की भी आदत थी। एक ग्रंथ की पांडुलिपि देखकर जब राहुल जी ने उसकी ऐतिहासिकता पर कुछ आशंकाएँ प्रकट कीं तो रांगेय राघव ने उनके ही सामने पांडुलिपि फाड़ डाली। ऐसा निर्मोही व्यक्तित्व रहा उनका। अनुमान किया जा सकता है कि इस तरह उनकी कई रचनाएँ नष्ट हुई होंगी। अपनी क्षमता पर उन्हें अपार भरोसा था इसीलिए कहते थे ‘और कुछ लिख लेंगे।’ (रांगेय राघव ग्रंथावली, भाग 1, भूमिका)। उन्होंने स्नातक के अंतिम वर्ष में ‘घरौंदा’ शीर्षक उपन्यास लिखा। यह उनका पहला मौलिक उपन्यास है। इसी से उन्हें उपन्यासकार के रूप में मान्यता मिली।

वीर राघव पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ कविताएँ और कहानियाँ भेजा करते थे लेकिन अधिकांश रचनाएँ छपती नहीं थीं। मजाकिया तौर पर भारतभूषण अग्रवाल ने एक दिन कहा था कि शायद रचना के साथ तिरुमल्लै नंबाकम वीर राघव आचार्य नाम देखकर संपादक रचनाएँ लौटा देते होंगे। मजाक की यह बात वीर राघव को जम गई। बस ‘रांगेय राघव’ का जन्म हुआ। रंगाचार्य का पुत्र – रांगेय और साथ में अपने ही नाम से राघव को लेकर बनाया ‘रांगेय राघव’। इसी नाम से वे हिंदी साहित्य जगत में एक विशेष स्थान के अधिकारी बने। डॉ. पद्मसिंह शर्मा कमलेश के अनुसार रांगेय राघव की कविता पहली बार कोलकाता के साप्ताहिक ‘विश्वमित्र’ में प्रकाशित हुई। “यह गीत था। भेजने के दूसरे ही सप्ताह प्रकाशित हो गया था। इसके पश्चात उनकी रचनाएँ ‘विश्वमित्र’ में छपीं। विशेषांकों में तो उन्हें और भी अधिक सजाकर स्थान दिया गया। इससे उनका आत्मविश्वास जागृत हुआ और वे अन्य पत्रों में भी लिखने लगे। यह ठीक है कि ‘विशाल भारत’ के मुखपृष्ठ पर अपनी कविताओं के धारावाहिक प्रकाशन से वह तत्कालीन प्रगतिशील कवियों की अग्रिम पंक्ति में आ गए और आगे चलकर ‘हंस’ में उनके जो रिपोर्ताज और कहानियाँ भी निरंतर छपने लगीं तो वे सशक्त गद्य लेखक के रूप में भी प्रतिष्ठित हुए लेकिन ‘विशाल भारत’ और ‘हंस’ से पूर्व साप्ताहिक ‘विश्वमित्र’ ने उन्हें जो प्रोत्साहन दिया वह भुलाने वाली बात नहीं है।” (निष्ठा, अंक 4, 1966; रांगेय राघव ग्रंथावली, भाग 1, भूमिका से उद्धृत)। 

रांगेय राघव कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, निबंधकार, नाटककार और आलोचक के साथ-साथ इतिहासवेत्ता भी थे। 1942 में कुछ समय के लिए ही सही वे पत्रकारिता के क्षेत्र से भी जुड़े। 1946 में उन्होंने साप्ताहिक पत्रिका ‘निर्माण’ प्रारंभ की पर उसका एक ही अंक निकाल पाए। आगरा से प्रकाशित ‘संदेश’ में उन्होंने पहली और आखिरी बार पत्रकार के रूप में कार्य किया था। “जीवन जीवन शक्ति अपरिमित/ और प्रकृति से है संघर्ष/ क्रम-क्रम मानव जीत रहा है/ नूतनता आती हर वर्ष” (अजेय खंडहर) कहकर हर वर्ष नूतनता का आह्वान करने वाले रांगेय राघव 12 सितंबर, 1962 को पंचतत्व में लीन हो गए।

1938 से लेकर 1962 तक का समय निरंतर उनके रचनात्मक व्यक्तित्व के निरंतर विकास का समय रहा। इस समय में उनकी कलम से निर्बाध गति से कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास, रिपोर्ताज, आलोचनाएँ, अनुवाद आदि सृजनात्मक कृतियाँ निकलीं। रांगेय राघव की सृजन-यात्रा चित्रकला से प्रारंभ होकर कविता में समाप्त होती है। “अंतिम रचना मुंबई में रुग्णावस्था में एक पुर्जे पर लिखी कविता है। अंतिम दिनों में मुंबई में ‘भामिनी-विलास’ के अनुवाद के साथ उन्होंने अनेक चित्र भी बनाए। मानो चित्रकला का एक चक्र पूरा हो रहा है। किशोरावस्था में स्वयं ही चित्र बनाते थे, बिगाड़ते थे। नाना उनकी प्रेरणा के स्रोत थे। बाद में आगरा में शांतिनिकेतन से आए गोष्ठी बिहारी से भी कुछ समय तक उन्होंने शिक्षा ली।” (रांगेय राघव ग्रंथावली, भाग 1, भूमिका)

[2]

कल्पना के पंखों सा सत्य

रांगेय राघव मूलतः कवि थे। इस संदर्भ में उनका यह कथन उल्लेखनीय है – “मैं मूलतः कवि हूँ, परिस्थिति ने मुझे उपन्यासकार, अनुवादक आदि सब कुछ बना दिया है।” (सं. अमरनाथ, डॉ. रांगेय राघव : साहित्यकार एवं व्यक्ति, पृ.43)। उनकी काव्य कृतियों में ‘अजेय खंडहर’, ‘पिघलते पत्थर’, ‘मेधावी’, ‘राह के दीपक’, ‘पांचाली’, ‘रूपछाया’, ‘श्यामला’ आदि उल्लेखनीय हैं। उनकी कविताओं में दूब पर झलकती ललकती ओस-सी रूप की धुरी है, गगन निविड़ घाटी, सघन माटी, अनदेखा समीर, गीली मँझधार, लौटते काले बादल, चंचल बादल, यमुना की लहरें, पर्वत, विहग, मलयांचल, वीरान आसमान, कोयल की मदभरी तान आदि को देख सकते हैं। उन्होंने प्रकृति और मानव जीवन के रेखाचित्रों को उकेरा है। साथ ही शहरी चकाचौंध पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं –

“स्निग्ध जगमगाती मोटर में

अंध दंभ से भर कर गर्वित

नर नारी जाते हैं हँसते

प्राणों तक धन मद से चर्चित

कहीं सैन्यबल की वह पगध्वनि

कंपित पृथ्वी को करती है

कहीं माध्यमिक पुलिस शक्ति ही

अर्थहीन शोषण करती है।”

(मेधावी)

वे यह कहने से पीछे नहीं हटते कि

“भिन्न भिन्न हैं स्तर मानव की

सत्ता के जिसमें सब चलते हैं

एक मार्ग है जिस पर सब को

चलने के अधिकार न मिलते।”

(मेधावी)

समाज में व्याप्त रंग-जाति-वर्ग आदि भेदों को देखकर रांगेय राघव विचलित हो जाते हैं क्योंकि ये भेद जीवन भर के लिए अभिशाप बनकर हमारे सामने नाचते रहेंगे। वे इन सबसे ज्यादा भाषा की समस्या को लेकर विचलित हो उठते हैं।

व्यथित है यह सारा संसार

निराशा की झंझा में झूल

बिखर जाती हैं कलियाँ हाय!

मदभरा अक्षय यौवन कोष

काल के बर्बर हाथों बीच

निचुड़ कर कर उठता चीत्कार,

और यह मानव हो भयभीत

तिमिर में रो उठता नतशीश,

परिधि बन जाती कारा घोर,

छटपटा उठते व्याकुल प्राण,

रुद्ध हो जाते मीठे गान

(रांगेय राघव, मेधावी, पृ.79)

अपनी इस कविता में रांगेय राघव ने यह स्पष्ट किया है कि मनुष्य का जीवन अल्पायु तक सीमित है, फिर भी कुछ हासिल करने की अदम्य इच्छा तथा जिजीविषा को लेकर मनुष्य आगे बढ़ता है। उसके भीतर निरंतर खोजी प्रवृत्ति जागी रहती है। इसी प्रवृत्ति के कारण वह जिज्ञासु बनता है। रांगेय राघव कहते हैं कि “मनुष्य की सौंदर्य की जिज्ञासा उसके सत्य का ही अन्वेषण बनकर बार-बार प्रगट हुई है।” (रांगेय राघव, पूर्ण कलश, दो शब्द)।

इस संसार में वर्ग भेद इतना प्रबल है कि उसे मिटाना दुष्कर कार्य है। इसीलिए रांगेय राघव कहते हैं –

“जो है जग में

वही सत्य है

वर्ग भेद ही

अंत गत्य है

निर्धन-पशु सा

अबल मर्त्य है

कर ले चाहे

आक्रंदन।”

(पूंजीवादी मशीन नृत्य)

मानव सार्वभौमिक और सार्वकालिक होने का महान स्वप्न देखने की चेष्टा करता रहता है। उसके भीतर एक अपार कल्पना शक्ति निहित है। वह इसी कल्पना शक्ति के माध्यम से उड़ानें भरता है-

कल्पना के पंखों सा सत्य

जागते हैं वे भूले अब्द

समय के स्तर को रह रह भेद

गूँजते प्रतिध्वनि करते शब्द

(रांगेय राघव, मेधावी, पृ. 2)

वस्तुतः बचपन से ही रांगेय राघव इस कल्पना शक्ति से सिंचित थे। उनकी मान्यता है कि यदि यह कल्पना शक्ति जागृत नहीं हुई तो मनुष्य सृजनशील नहीं बन सकता। उसे अपने लक्ष्य के बारे में जानना ही होगा। नहीं तो वह सच और झूठ में ही उलझकर रह जाएगा। मनुष्य ‘स्व’ केंद्रित है। वह इसी ‘स्व’ की तृप्ति के लिए ही अहर्निश कार्य करता है तथा इसी ‘स्व’ की अनुभूति और अभिव्यक्ति को लेकर उसका संघर्ष जारी है –

विकल ‘मैं’ का उन्माद

विश्व का केंद्र

विश्व की स्फूर्ति

सभी सापेक्ष रूप से बद्ध

गीत की लयगति सा संबंध

चल रहा अंतर्द्वंद्व

(रांगेय राघव, मेधावी, पृ. 3)

रांगेय राघव भारतीय सभ्यता और संस्कृति से गहरे जुड़े हुए मनीषी हैं। कहना होगा कि उनकी रग-रग में लोक मान्यताएँ बसी हुई हैं। वे मानते हैं कि हमारे आस-पास के वातावरण को हम जितना अधिक जानने और पहचानने की कोशिश करेंगे वह उतना ही हमारा साथ देगा। लेकिन हम अपने निजी स्वार्थ के लिए उसका उपयोग करते रहते हैं। “मानवजाति का इतिहास प्रकृति के विरुद्ध मनुष्य के संघर्ष का इतिहास है। प्रकृति ने मनुष्य को एक भूखे-नंगे और जंगली प्राणी के रूप में जन्म दिया था। प्राग ऐतिहासिक मनुष्य के सम्मुख दो विषम समस्याएँ थीं – उदर पूर्ति के हेतु भोजन एवं सुरक्षा के लिए निवास स्थान खोजना। ये ही दो समस्याएँ वे मूलभूत प्रश्न थे जिनके समाधान के लिए आदिकालीन मनुष्य ने भिन्न-भिन्न समुदायों के रूप में भूमि के विभिन्न प्रदेशों की ओर प्रयाण किया।” (रांगेय राघव, संस्कृति और मानवशास्त्र, पृ. 127)। मनुष्य जैसे-जैसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु यात्रा करने लगा और दूसरे प्रांतों में जाकर बसने लगा, सभ्यताओं का विकास हुआ। वह सभ्य तो बनता गया, लेकिन उसे कभी भी संतुष्टि प्राप्त नहीं हुई। कुछ पाने के बाद ‘कुछ और’ पाने की लालसा उसमें निरंतर जागती रहती है। “आह मानव के पुत्र!/ दिशावधि तेरा है विस्तार/ सभी में तू, सब तुझ में लीन,/ बीन की रागिणि, रागिणि बीन,/ जाग सिद्धार्थ, या कि चंगेज,/ नहीं है मुक्ति, न बंधन मेल,/ आज दोनों ही तो हैं खेल! (रांगेय राघव, मेधावी, पृ. 4)

[3]

चिर जीवन का प्रतीक

मैं चिर जीवन का प्रतीक हूँ

निरीह पग पर काल झुके हैं,

क्योंकि जी रहा हूँ मैं

अब तक प्यार-भरों के प्यार में...

(रांगेय राघव, अर्धचेतन अवस्था में कविता)

रांगेय राघव ने कविता के साथ-साथ साहित्य की सभी विधाओं को समृद्ध किया है। ‘साम्राज्य का वैभव’, ‘देवदासी’, ‘समुद्र के फेन’, ‘अधूरी मूरत’, ‘जीवन के दाने’, ‘अंगारे न बुझे’, ‘ऐयाश मुरदे’, ‘इन्सान पैदा हुआ’, ‘पाँच गधे’, ‘एक छोड़ एक’ आदि उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं तो ‘स्वर्णभूमि की यात्रा’, ‘रामानुज’, ‘विरूढ़क’ नाटक और ‘तूफ़ानों के बीच’ रिपोर्ताज। ‘भारतीय पुनर्जागरण की भूमिका’, ‘भारतीय संत परंपरा और समाज’, ‘संगम और संघर्ष’, ‘प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास’, ‘प्रगतिशील साहित्य के मानदंड’, ‘समीक्षा और आदर्श’, ‘काव्य यथार्थ और प्रगति’, ‘काव्य कला और शास्त्र’, ‘महाकाव्य विवेचन’, ‘तुलसी का कला शिल्प’, ‘आधुनिक हिंदी कविता में प्रेम और शृंगार’, ‘आधुनिक हिंदी कविता में विषय और शैली’, ‘गोरखनाथ और उनका युग’ आदि आलोचनात्मक कृतियाँ हैं।

‘घरौंदा’, ‘विषाद मठ’, ‘मुर्दों का टीला’, ‘सीधा सादा रास्ता’, ‘हुजूर’, ‘चीवर’, ‘प्रतिदान’, ‘अँधेरे के जुगनू’, ‘काका’, ‘उबाल’, ‘पराया’, ‘देवकी का बेटा’, ‘यशोधरा जीत गई’, ‘लोई का ताना’, ‘रत्ना की बात’, ‘भारती का सपूत’, ‘आँधी की नावें’, ‘अँधेरे की भूख’, ‘बोलते खंडहर’, ‘कब तक पुकारूँ’, ‘पक्षी और आकाश’, ‘बौने और घायल फूल’, ‘लखिमा की आँखें’, ‘राई और पर्वत’, ‘बंदूक और बीन’, ‘राह न रुकी’, ‘जब आवेगी काली घटा’, ‘धूनी का धुआँ’, ‘छोटी सी बात’, ‘पथ का पाप’, ‘मेरी भव बाधा हरो’, ‘धरती मेरा घर’, ‘आग की प्यास’, ‘कल्पना’, ‘प्रोफेसर’, ‘दायरे’, ‘पतझर’, ‘आखीरी आवाज़’ आदि उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं।

हिंदी साहित्य के क्षेत्र में रांगेय राघव एक प्रगतिशील लेखक के रूप में जाने जाते हैं। इस संदर्भ में शिवमंगल सिंह सुमन का कथन उल्लेखनीय है। उनका कहना है कि “डॉ. रांगेय राघव ने विषमताओं के विष को स्वयं पी लिया और हिंदी साहित्य को अमृत देकर चले गए। उन्होंने प्रगतिशील आंदोलन की जड़ें जमाईं। वे प्रेमचंद की परंपरा में आते हैं। उनके अंदर सृजन की व्याकुलता थी। साहित्य में उन्होंने अपना रोना नहीं रोया, बल्कि दूसरों के दुख-दर्द को अभिव्यक्त किया।”

‘घरौंदा’ से लेकर ‘आखिरी आवाज’ तक उपन्यासकार रांगेय राघव ने एक लंबी यात्रा तय की थी। उन पर द्वितीय विश्वयुद्ध का प्रभाव दिखाई देता है। वे उस आग में तपकर निकले थे। अतः उनकी रचनाओं में भी उसकी ज्वाला को स्वाभाविक रूप से देखा जा सकता है। अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए वे रंगों और रेखाचित्रों का प्रयोग करते हैं।

रांगेय राघव संस्कृति और इतिहास को एक-साथ पिरोते हैं। इतिहास और संस्कृति के संबंध में उनकी मान्यता है कि “इतिहास जनता के उत्थान और पतन की कहानी है। सदियों की सांस्कृतिक विरासत इतिहास है। हमें उससे अपना भविष्य प्राप्त करना है। प्रत्येक युग में मनुष्य कैसे बद्ध था यह इतिहास ही बताता है। मनुष्य ने जो प्रकृति से संघर्ष किया, इतिहास में उसका वर्णन है।” (संगम और संघर्ष, पृ. 19)। 1948 में रचित प्रागैतिहासिक उपन्यास ‘मुर्दों का टीला’ में मोहनजोदडो (मोअन-जो-दाडो अर्थात मृतकों का स्थान – मुर्दों का टीला) की संस्कृति और सभ्यता को आधार बनाया। वे इस उपन्यास में एक स्थान पर जीवन और मृत्यु की परंपरा का चित्रण करते हैं – “हाँ, मनुष्य है। सबसे प्रथम वही है, इस पर किसी को भी भ्रम नहीं। ... महामाई का स्वरूप महादेव ने अपने से अलग कर दिया, क्योंकि जब तक दो के संघर्ष से पूर्णता नहीं होगी, सृष्टि नहीं होगी। एक स्थिर पूर्णता व्यर्थ है। और फिर खंड रूप में महादेव ने जन्म लिया, महामाई ने जन्म लिया, वह पुरुष और स्त्री हुए, अन्यथा पूर्णता का जन्म स्थिरता में यदि होता भी तो एक पूर्ण ही होता है, और प्रत्येक आकृति महादेव महामाई के पुराचीन स्वरूप जैसी रहती, परस्पर कोई भेद नहीं रहता। फिर न कामना रहती, न वासना। तब स्पंदन नहीं होता और महामाई के प्रचंड क्रोध की छाया-मृत्यु सबको ग्रस लेती, और महादेव का अनुकंपा-जीवन कहाँ बचता। दोनों का समान संतुलन हुआ – वही जीवन और मृत्यु की परंपरा हुई।” (मुर्दों का टीला, पृ. 183)     

‘चीवर’ उपन्यास में रांगेय राघव ने हर्षवर्धन काल के पतनशील भारतीय सामंतवाद को दर्शाया है। 1957 में रचित ‘कब तक पुकारूँ’ में नटों की जीवन-शैली का चित्रण है। कथा का क्षेत्र ब्रज का एक भाग है। “नटों के जीवन के संश्लिष्ट यथार्थ को उभारने के लिए लेखक ने परिवेश रूप में या तनाव तथा संघर्ष पैदा करने वाली प्रतिकथा के रूप में उस भू-भाग की अन्य जातियों के लोगों को भी लिया है।” (रामदरश मिश्र, हिंदी उपन्यास : एक अंतर्यात्रा, पृ.249)।

हिंदी साहित्य के क्षेत्र में जीवनी आधारित उपन्यास की परंपरा समृद्ध है। रांगेय राघव ने रीतिकालीन कवि बिहारी के जीवन को आधार बनाकर एक रोचक उपन्यास का सृजन किया ‘मेरी भव बाधा हरो।’ बंगाल के अकाल पर केंद्रित उपन्यास है ‘विषाद मठ’।  

रांगेय राघव के स्मृति पर्व के अवसर पर विष्णु प्रभाकर ने कहा था कि “रांगेय राघव स्मृति पर्व के माध्यम से हम किसी व्यक्ति का नहीं, बल्कि सृजन एवं साहित्य का सम्मान कर रहे हैं। रांगेय राघव ने आम जनता के बीच में रहकर साहित्य-सृजन किया, इसलिए उनका साहित्य अमर रहेगा। साहित्य क्रांति करे या न करे, किंतु वह न केवल समाज को दिशा देता है, बल्कि लोगों को सोचने पर विवश भी करता है। यह कार्य रांगेय राघव के साहित्य ने किया।” विद्यानिवास मिश्र के अनुसार रांगेय राघव स्वयं जलते रहे और दूसरों को रोशनी देते रहे।

[4]

स्मरण एक इतिहासवेत्ता साहित्यकार का

रांगेय राघव की चिंतन प्रक्रिया गतिशील है। वे साहित्यकार के साथ-साथ इतिहासवेत्ता भी हैं। उनके साहित्य में भारतीय ऐतिहासिक परिदृश्य, भारतीय चिंतन तथा दर्शन को भलीभाँति देखा जा सकता है। रांगेय राघव का नाम लेते ही हम प्रायः ‘कब तक पुकारूँ’, ‘गदल’, ‘सीधा सादा रास्ता’, ‘तूफ़ानों के बीच’, ‘लोई का ताना’, ‘भारती का सपूत’, ‘यशोधरा जीत गई’ आदि रचनाओं की चर्चा तक ही सीमित हो जाते हैं। लेकिन उनका साहित्य विपुल है। उनके साहित्य का कैनवास भी विस्तृत है। एक ओर वे ‘भारतीय चिंतन’ को पाठकों के समक्ष रखते हैं तो दूसरी ओर ‘महाकाव्य : विवेचन’ के माध्यम से प्राचीन कविता का विश्लेषण करके यक्ष और युधिष्ठिर के संवादों की सहायता से धर्म की मानवतावादी दृष्टि को उजागर करते हैं। युधिष्ठिर के माध्यम से वे यह प्रतिपादित करते हैं कि मनुष्य का कोई निश्चित धर्म नहीं होता। वह बदलता रहता है। मनुष्य को तो "महापुरुषों के रास्तों को देखकर अपना रास्ता बनाना चाहिए, क्योंकि जो आदमी किताब के लिखे को आँख मूँदकर मानकर चलता है, वह समय की गति को नहीं समझता। हम न इस संसार का आदि जानते हैं, न अंत जानते हैं। हम तो बीच रास्ते पर हैं। यहाँ सिवाय इसके कि पीछे मुड़कर देखने पर हमें पहले चले हुओं के पाँवों के निशान दिखाई देते हैं, हमें और मदद ही क्या है?” (रांगेय राघव, महाकाव्य: विवेचन, पृ. 58)। वे जहाँ प्राचीन कविता की बात करते हैं वहीं ‘आधुनिक हिंदी कविता में प्रेम और शृंगार’ का खुलासा भी करते हैं और कहते हैं कि गत्यात्मकता मूल नियम है। साहित्य में जो आनंद प्रदान करता है “वह उसकी मानवीयता है, जो हमारे ‘भावों’ को रमाती है, जगाती है, और वह भव्य आनंद ही ‘रस’ है।” (रांगेय राघव, आधुनिक हिंदी कविता - प्रेम और शृंगार, भूमिका)।     

रांगेय राघव की कहानियों में मिथकों को रेखांकित किया जा सकता है। सामान्य रूप से मिथक व पौराणिक घटनाओं और कहानियों को धर्म, दर्शन और अध्यात्म से जोड़कर देखा जाता है। उनमें वस्तुतः कल्पना का समावेश होता है। साहित्य सृजन में मिथकों के प्रयोग की एक शृंखला-सी बनी हुई है। भारतीय मिथकों में जीवन और संस्कृति निहित है। भारतीय जनमानस में मिथकीय संकल्पनाएँ इस तरह गुँथी हुई हैं कि उन्हें जीवन से अलग करके देखना असंभव है। रांगेय राघव ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से इन मिथकों को बहुत ही सरल भाषा प्रयोग के द्वारा पाठकों के समक्ष रखा है। जहाँ उन्होंने रुरु और प्रमद्वरा, इंद्राणी और नहुष, दीर्घतमा और प्रद्वेषी, देवयानी और ययाति, नल-दमयन्ती, गंगा, सत्यवती, उलूपी, माधवी, शकुंतला, शिखंडी आदि के माध्यम से पौराणिक प्रेम कहानियों को उजागर किया है, वहीं इंद्र और प्रह्लाद की कथा, गिद्ध और गीदड़, हँस और कौए की कथा, मुनि और कुत्ते की कथा, मंदपाल ऋषि, राजा उशीनर, राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया आदि कहानियों के माध्यम से जीवन मूल्यों को उजागर किया है। ‘रुरु और प्रमद्वरा’ शीर्षक कहानी के माध्यम से रांगेय राघव ने यह स्पष्ट किया है कि “संसार में सबसे बड़ा धर्म अहिंसा है। वेद-वेदांग का पारंगत होना, सत्य बोलना, क्षमा करने की भावना रखना तथा सरल होना ही ब्राह्मण के लिए श्रेष्ठ कार्य नियत है।” (रांगेय राघव, प्राचीन प्रेम और नीति की कहानियाँ, पृ.13)। यह सिर्फ ब्राह्मण के लिए ही नहीं अपितु संसार के समस्त प्राणियों के लिए है। 

रांगेय राघव सिर्फ भारतीय मिथकों के माध्यम से ही बात नहीं करते, अपितु पाश्चात्य मिथकों का भी भरपूर प्रयोग करते हैं। जहाँ भारत के परिप्रेक्ष्य में सृष्टि का आदि पुरुष मनु को माना जाता है वहीं बेबीलोनिया में आदि पुरुष के रूप में अप्सु को माना जाता है। रांगेय राघव ने अपनी कहानी ‘आदि पुरुष अप्सु’ में रोचक ढंग से देवी-देवताओं तथा सृष्टि निर्माण की कथा को स्पष्ट किया है। (रांगेय राघव, संसार की प्राचीन कहानियाँ, पृ. 94)

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स्वावलंबन की चरम सीमा है अपनी बोली मात्र का ज्ञान

जीवन-जगती रस प्लावित कर

हम अपना कर अभिलाष काम

इस भेद भरे जग पर रो कर

अब लौट चले लो स्वयं धाम

(रांगेय राघव, श्रमिक)  

भाषा के माध्यम से ही साहित्यकार अपने भावों और विचारों को सशक्त रूप से अभिव्यक्त कर सकता है। कहने का तात्पर्य है कि साहित्य सृजन के लिए भाषा महत्वपूर्ण उपकरण है। साहित्यकार भाषा की विविध शैलियों को अपनाकर सामाजिक संदर्भों को अभिव्यक्त करता है। समाज-संदर्भित भाषा-रूप का प्रयोग साहित्यकार अपनी रचनाओं में करता है। इसी को सामाजिक शैली की संज्ञा दी जाती है। यह वक्ता-श्रोता के संबंधों पर आधारित होती है।

रांगेय राघव ने भी अपनी रचनाओं में इस सामाजिक शैली का बखूबी निर्वाह किया है। ‘लोई का ताना’ शीर्षक उपन्यास में कमाल और पंडित की आपसी बातचीत को ही देख लीजिए-

‘कहने लगे कबीर का कमाल ही लायक आदमी है वही कबीर साहब की जगह अब उनके मंत्र का प्रचार कर सकता है?’

‘कैसा मंत्र?’ पंडा ने पूछा, ‘मंत्र का अधिकार तो ब्राह्मण को है!’

‘तो तुम्हारी मंत्र परंपरा तुम्हें ही मुबारक हो पंडित! मेरा बाप तो कभी इन चीजों से प्रभावित नहीं हुआ और फिर मैं कैसे होता?’

‘क्यों नहीं, आखिर बाप का ही बेटा ठहरा!’

मैंने कहा – ‘नहीं बाबा! मुझे गद्दी वद्दी नहीं चाहिए। मेरा बाप गद्दीधारियों के ही खिलाफ तो जन्म ज़िंदगी लड़ता रहा।’

रांगेय राघव के साहित्य में भाषा वैविध्य को देखा जा सकता है। वे कभी पात्रों के माध्यम से तो कभी लेखकीय टिप्पणियों से समसामयिक सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों पर प्रहार करते हैं। चुनावी राजनीति का पर्दाफाश करते हुए वे व्यंग्य कसते हैं कि चुनाव में जब व्यक्ति जीत जाता है तो वह मंत्री हो जाता है, नहीं तो नेता बनकर रह जाता है। (बंदूक और बीन, पृ. 10)।

सर्वविदित है कि साहित्यकार सामाजिक सरोकारों और पात्रों के बीच पारस्परिक संबंधों को दर्शाने के लिए मध्यम पुरुष सर्वनामों का प्रयोग करते हैं। अपने से बड़े के लिए प्रायः ‘आप’ का प्रयोग किया जाता है और बराबर के लिए ‘तुम’ तथा छोटे के लिए ‘तू’ का प्रयोग किया जाता है। बड़ा होने से तात्पर्य आयु, पद, यश, शिक्षा, शक्ति, व्यवसाय, अधिकार, गुण आदि से है। आत्मीयतावश भी कभी-कभी ‘तू’ का प्रयोग किया जाता है। रांगेय राघव के कथा-साहित्य में प्रयुक्त मध्यम पुरुष सर्वनामों का विश्लेषण करने से रोचक निष्कर्ष मिलते हैं।

‘नरक’ शीर्षक कहानी का घीसा हरदयाल का कर्जदार है। आमदनी की मंदी होने के कारण वह समय पर कर्ज नहीं चुका पाता। अतः लाला हरदयाल गुस्से में दो-चार बातें सुनाता है तो घीसा भी गुस्से से लाल हो जाता है और कहता है – “देखो लालाजी! सुन रहा हूँ देर से! गाली-गुप्ता करोगे तो हाँ! कोई इज्जत थोड़ी ही बेच दी है!” (देवदासी, पृ.64)। जब वह घर लौटता है तो बीमार पोते को देखकर रुआँसा हो जाता है और बहू की खंगवारी लेकर फिर से लालाजी के पास जाकर याचना करने लग जाता है – “अजी लालाजी! मर जाऊँगा। जान से ही मर जाऊँगा। तुम्हारी कसम, बुरी मौत मर जाऊँगा। लालाजी तुम्हारे दरवाजे का जस है, जो आया वह खाली हाथ नहीं लौटा, फिर आज मेरे लिए लालाजी, दया करो...” (वही)। यहाँ पर घीसा लाला हरदयाल से आयु, पद, वर्ग, जाति आदि में निम्न स्तर का होने पर भी गाली सुनकर उनसे गुस्से में बात करता है और याचना करते समय लालाजी कहकर संबोधित भी करता है और ‘तुम’ का प्रयोग भी करता है।

अशिक्षित पति-पत्नी झगड़ा होने पर एक-दूसरे के प्रति अनादरसूचक ‘तू’ का प्रयोग करते हैं। ‘पंच परमेश्वर’ कहानी की फूलो और उसके पति चंदा के बीच अक्सर पैसों को लेकर झगड़ा होता रहता है। गुस्से में चंदा जब कहता है – “तो मैं कोई राजा नहीं हूँ समझी! तो तू पाँव पसार कर बैठ और मैं दर दर मारा मारा फिरूँ?” (अधूरी मूरत, पृ. 32) तो फूलो कहती है – “तो तुम मुझे ब्याह कर ही क्यों ले थे?” (वही)। यह संवाद पति-पत्नी के बीच टकराहट को दर्शाता है।  

‘प्रवासी’ शीर्षक कहानी का गोपालन गरीब ब्राह्मण परिवार का लड़का है। वह मंदिर में पूजा-अर्चना करता है। कोमल पोस्टमास्टर की बेटी है। दोनों के सामाजिक-आर्थिक स्तर में जमीन आसमान का फर्क है। फिर भी गोपालन मन ही मन कोमल को चाहने लगता है। जब इस बात का वृद्ध ताताचारी को पता चलता है तो वह गोपालन को बहुत समझाता है और कहता है, “तूने आकाश की ओर हाथ बढ़ाया, लेकिन यह नहीं देखा कि तेरे पैरों के नीचे जमीन तक नहीं है! पागल! कोमल से तू विवाह करेगा? मंदिर का अर्चक एक पोस्टमास्टर की पुत्री से विवाह करेगा? घर में तेरे है क्या, जो तू ऐसी मूर्खतापूर्ण बात सोचने लगा?” (वही, पृ. 69)। वृद्ध ताताचारी गोपालन को बेटे के समान मानता है। अतः उसे यह समझाने का प्रयास करता है कि मंदिर के अर्चक किसी अन्य जाति की स्त्री से विवाह नहीं कर सकते। यहाँ तत्कालीन समाज में व्याप्त जातिभेद की ओर इशारा किया गया है। यहाँ ताताचारी द्वारा गोपालन को पागल कहना, और तू का प्रयोग करना इस बात का सूचक है कि दोनों के बीच घनिष्ठ संबंध है।  

रांगेय राघव पात्रों के अनुरूप भाषा का प्रयोग करते हैं। यहाँ तक कि भाषिक प्रयोग से पात्रों के स्वभाव को भी जाना जा सकता है। यथा- 

कर्कशता का पाठ:

एक दारोगा अपने स्वभाव और आदत के अनुसार रौब जमाते हुए लोगों के बीच दहशत फैलाता है- “हरामजादे! जानता नहीं, यह तू ने जेल जाने का काम किया है?” (वही, पृ. 126)

आक्रोश/ उदासीनता का पाठ:

एक वृद्ध सांप्रदायिक दंगों से उत्तेजित होकर कहता है - “और देखता हूँ आज हिंदुस्तानी की जवानी की हालत, तो मन करता है नाखूनों से सीना फाड़ कर बाहर नाली में फेंक दूँ” (वही, पृ. 118)। इससे यह स्पष्ट है कि वतन को जान से भी प्यारा समझने वाले व्यक्ति की आँखों के सामने जब वतन पर कोई मुसीबत आती है अथवा दंगों के कारण अशांति फैल जाती है, तो उसका मन तिलमिला उठता है। यहाँ रांगेय राघव ने उस व्यक्ति की बेबसी को दिखाने के लिए ‘मन करता है नाखूनों से सीना फाड़ कर बाहर नाली में फेंक दूँ’ का प्रयोग किया है।

“हिंदू और मुसलमान होने की वजह से तुम गुलाम नहीं हो, रोटी के गुलाम हो। अगर पेट के बल पर भी तुम एक नहीं हो सकते, तो दुनिया में तुम कभी एक नहीं हो सकते – यानी कभी आजाद नहीं हो सकते” (वही, पृ. 20)। यहाँ लेखक ने अपने पात्र के माध्यम से यह संदेश दिया है कि हिंदू-मुसलमान, सिक्ख-ईसाई के रूप में अपने आपको देखना बंद कर देना चाहिए। यहाँ हर कोई रोटी का गुलाम है। यदि हम एकजुट होकर आगे नहीं बढ़ेंगे तो हमेशा-हमेशा के लिए गुलामी की जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त हो जाएँगे।  

“कौन महँगा नहीं हो गया? मैं नहीं हुआ, कि तुम नहीं हुए? अब तो मौत का इतना खरचा नहीं जितना जिंदगी का!” (वही, पृ. 49)। “क्या बताऊँ? गरीब आदमी हूँ! सुबह ही निकाल जाता हूँ तो साँझ को आता हूँ” (वही, पृ. 46)। इन उक्तियों में एक गरीब की लाचारी व्यक्त हुआ है।  

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि रांगेय राघव ने अपने भाषिक प्रयोग से मानवीय संवेदनाओं को उभारा है। समस्त संप्रेषणपरक उक्तियों को उनके कथा-साहित्य में देखा जा सकता है। कहीं-कहीं चित्रात्मक प्रयोग भी दिखाई देता है। वे पात्र एवं परिवेश के अनुरूप तत्सम शब्दों का जहाँ प्रयोग करते हैं, वहीं तद्भव और देशज शब्दों का भी बखूबी प्रयोग करते हैं। रांगेय राघव का कथा-साहित्य हिंदी के समाज-भाषिक स्वरूप को उद्घाटित करने में सक्षम है। अतः उन्हें संप्रेषणपरकता के कर्णधार भी कहा जा सकता है। मनुष्य और मनुष्यता उनके चिंतन के केंद्र में है। वे मानवीय मूल्यों के पक्षधर हैं। वस्तुतः वे भारतीय साहित्य, संस्कृति और कला के प्रौढ़ चिंतक तथा गहन अध्येता हैं। 

भाषा की समस्या एक गंभीर और विकट समस्या है। 1956 में प्रकाशित अपनी कृति ‘संगम और संघर्ष’ में रांगेय राघव ने यह स्पष्ट किया है कि “आज भी भाषा की समस्या उतनी ही विकट है, जितनी वह आज से दस वर्ष पहले थी। अब भी इस विषय पर विद्वानों की अलग-अलग रायें हैं। हिंदी को सरकारी तौर पर राष्ट्र-भाषा (राजभाषा - सं) स्वीकार कर लिया गया है। हिंदी का मान कुछ बढ़ा भी है, परंतु अभी तक भाषा के रूप में हिंदी को वह जगह नहीं मिली जो यूरोप के देशों की भाषाओं को अपने-अपने देश में प्राप्त है। अंग्रेजी का भारत में अब भी बोलबाला है।” (रांगेय राघव, संगम और संघर्ष, पृ.73)। रांगेय राघव ने यह बात 1956 में कही थी, लेकिन 67 वर्षों के बाद भी यही स्थिति है। आखिर हम पहुँचे कहाँ हैं? यह सोचने और विचारने की बात है।        

भाषा की समस्या वास्तव में सबसे बड़ी समस्या है। भाषा के नाम पर देश और राष्ट्र विभाजित हो चुके हैं। आपसी मनमुटाव फैलता रहा है। रांगेय राघव सरकारी अफसर और नेताओं को अंग्रेजी खाद से उगे हुए पेड़ मानते हैं। “उनमें जो फल लगते हैं वे अंग्रेजी स्वाद देते हैं। यही कारण है जो सम्मान और गौरव विदेशों में अपनी भाषा में लिखने से लेखकों को प्राप्त होता है, अब भी भारत में नहीं होता। हमारे देश के नेता भारत की भाषा और संस्कृति की या तो रूढ़िवाद के नाते लीक पीटते हैं, या अंग्रेजी पटरियों पर उनकी बुद्धि की रेल चलती है।” (वही, पृ.74)। चालबाज नेताओं के संबंध में वे कहते हैं कि “स्वार्थी नेताओं ने जो अपनी गद्दियाँ कायम रखने की कोशिश की हैं, उससे वे कोशिशें और चालबाजियाँ करते हैं। कभी अंक अंग्रेजी में रखकर, कभी शब्द अंग्रेजी में रखकर। वे भाषा को दूसरों पर थोपते हैं, उनकी नजर में भाषा विज्ञान नहीं है।” (वही)।  उन्होंने इस ओर भी ड्या दिलाया कि निजाम के समय में हैदराबाद में भाषा को दो राष्ट्रों के सिद्धांतों पर बनाया जा रहा था। और उसमें “फूटपरस्ती का बीज डाला गया था।” (वही)।

भारत के परिप्रेक्ष्य में भाषा समस्या की बात करें तो मानना होगा कि हिंदी, उर्दू, हिंदुस्तानी का झगड़ा बहुत पुराना है। दक्षिण भारत में गांधी जी का प्रभाव था। इस प्रभाव के करण ही दक्षिण में हिंदी को हिंदुस्तानी कहकर स्वीकार किया गया था। लिपि में परिवर्तन करने की अवश्य कोशिश की गई थी। जैसे - ‘क्ष’ को ‘क् ष’ के रूप में।” (वही, पृ.75)। हिंदी और उर्दू के झगड़े के संबंध में रांगेय राघव का कहना है कि “उर्दू को अब पाकिस्तान मिल गया है। हिंदी उसका बदला लेना चाहती है। पर उर्दू का ख्वाब बंगाली तोड़ रही है। हिंदी का सपना तोड़ने के लिए कई भाषाएँ हैं। उर्दू वाले पंजाबी और उत्तर प्रदेशीय मुस्लिम बंगालियों के भाषा-प्रयत्नों को हिंदी षड्यंत्र मानते हैं, और हिंदी वाले हिंदी-विरोधियों के।” (वही)।    

रांगेय राघव भाषा की समस्या को दूर करने का उपाय बताते हुए कहते हैं कि “विराट सम्मिलन में भाषा का प्रश्न न साम्राज्यवादी ढंग अपना सकता है, न उससे विद्वेष ही जन्म लेता है। हिंदी ही अपनी व्यापकता के कारण राष्ट्रभाषा का स्थान ले सकती है। फिर भाषा को गढ़ने की आवश्यकता नहीं रह जाती, स्वयं हिंदी-उर्दू के मिलने से भाषा के विकास का रास्ता खुल जाता है। संसार के देश एक-दूसरे के पास आ रहे हैं। जनता मिलना चाहती है। यदि राष्ट्रभाषा की आवश्यकता नहीं, तो अंतरराष्ट्रीय भाषा की भी आवश्यकता नहीं है। स्वावलंबन की चरम सीमा अपनी बोली मात्र का ज्ञान है। दुर्भाग्य से आज उससे सारी समस्याएँ हल नहीं हो सकतीं। राष्ट्रभाषा इसीलिए आवश्यक है।” (वही, पृ.86)

 

 

डॉ. नीरजा गुर्रमकोंडा

एसोसिएट प्रोफ़ेसर

उच्च शिक्षा और शोध संस्थान

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास

टी.नगर, चेन्नै – 600017

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