इति श्री रिसर्चाय
हरिशंकर परसाई
बाबू गोपालचंद्र बड़े नेता थे, क्योंकि उन्होंने लोगों को समझाया था और लोग समझ भी गए थे कि अगर वे स्वतंत्रता-संग्राम में दो बार जेल - ‘ए क्लास’ में - न जाते, तो भारत आजाद होता ही नहीं। तारीख 3 दिसंबर 1950 की रात को बाबू गोपालचंद्र अपने भवन के तीसरे मंजिल के सातवें कमरे में तीन फीट ऊँचे पलँग के एक फीट मोटे गद्दे पर करवटें बदल रहे थे। नहीं, किसी के कोमल कटाक्ष से विद्ध नहीं थे वे। वे योजना से पीड़ित थे। उन्होंने हाल ही में करीब चार लाख रुपया चंदा करके स्वतंत्रता-संग्राम के शहीदों की स्मृति में एक भव्य ‘बलि स्मारक’ का निर्माण करवाया था। वे उसके प्रवेश द्वार पर देश-प्रेम और बलिदान की कोई कविता अंकित करना चाहते थे। उलझन यही थी कि वे पंक्तियाँ किस कवि की हों। स्वतंत्रता-संग्राम में स्वयं जेल-यात्रा करनेवाले अनेक कवि थे, जिनकी ओजमय कविताएँ थीं और वे नई लिखकर दे भी सकते थे। पर वे बाबू गोपालचंद्र को पसंद नहीं थीं। उनमें शक्ति नहीं है, आत्मा का बल नहीं है उनका मत था।
परेशान होकर उन्होंने
रखा ग्रंथ निकाला ‘अकबर बीरबल विनोद’ और पढ़ने लगे एक किस्सा : ‘...तब अकबर ने जग्गू ढीमर से कहा,
‘देख रे,
शहर में जो सब से सुंदर लड़का हो उसे कल दरबार में लाकर
हाजिर करना, नहीं तो तेरा सिर काट लिया जाएगा।’ बादशाह का हुक्म सुनकर जग्गू ढीमर चिंतित हुआ। आखिर शहर का
सबसे सुंदर लड़का कैसे खोजे। वह घर की परछी में खाट पर बड़ा उदास पड़ा था कि इतने
में उसकी स्त्री आई। उसने पूछा, ‘आज बड़े उदास दीखते हो। कोई बात हो गई है क्या?’
जग्गू ने उसे अपनी उलझन बताई। स्त्री ने कहा,
‘बस,
इतनी-सी बात। अरे अपने कल्लू को ले जाओ। ऐसा सुंदर लड़का
शहर-भर में न मिलेगा।’ जग्गू को बात पटी। खुश होकर बोला,
‘बताओ भला! मेरी अक्ल में इतनी-सी
बात नहीं आई। अपने कल्लू की बराबरी कौन कर सकता है।’
बस, दूसरे दिन कल्लू को दरबार में हाजिर कर दिया गया। कल्लू खूब
काला था। चेहरे पर चेचक के गहरे दाग थे। बड़ा-सा पेट,
भिचरी-सी आँखें और चपटी नाक।’
किस्सा पढ़कर बाबू
गोपाल ठीक जग्गू ढीमर की तरह प्रसन्न हुए। वे एकदम उठे और पुत्र को पुकारा,
‘गोबरधन! सो गया क्या?
जरा यहाँ तो आ।’ गोबरधन दोस्तों के साथ शराब पीकर अभी लौटा था। लड़खड़ाता
हुआ आया। गोपालचंद्र ने पूछा, ‘क्यों रे, तू कविता लिखता है न?’
गोबरधन अकबका गया। डरा कि अब डाँट पड़ेगी। बोला,
‘नहीं बाबूजी,
मैंने वह बुरी लत छोड़ दी है।’
गोपालचंद्र ने समझाया,
‘बेटा,
डरो मत। सच बताओ। कविता लिखना तो अच्छी बात है।’
गोबरधन की जान तो आधे रास्ते तक निकल गई थी,
फिर लौट आई। कहने लगा,
‘बाबूजी,
पहले दस-पाँच लिखी थीं,
पर लोगों ने मेरी प्रतिभा की उपेक्षा की। एक बार
कवि-सम्मेलन में सुनाने लगा तो लोगों ने ‘हूट’ कर दिया। तब से मैंने नहीं लिखी।’
गोपालचंद्र ने समझाया,
‘बेटा,
दुनिया हर ‘जीनियस’ के साथ ऐसा ही सलूक करती है। तेरी गूढ़ कविता को समझ नहीं
पाते होंगे, इसलिए हँसते होंगे। तू मुझे कल चार पंक्तियाँ देशभक्ति और बलिदान के संबंध में
लिखकर दे देना।’ गोबरधन नीचे देखते हुए बोला, ‘बाबूजी, मैंने इन हल्के विषयों पर कभी नहीं लिखा। मैं तो प्रेम की
कविता लिखता हूँ। जहूरन बाई के बारे में लिखी है,
वह दे दूँ?’
गोपालचंद्र गरम
होते-होते बच गए। बड़े संयम से मीठे स्वर में बोले,
‘आज कल बलिदान त्याग और देश-प्रेम
का फैशन है। इन्हीं पर लिखना चाहिए! गरीबों की दुर्दशा पर भी लिखने का फैशन चल
पड़ा है। तू चाहे तो हर विषय पर लिख सकता है। तू कल शाम तक बलिदान और देश-प्रेम के
भावोंवाली चार पंक्तियाँ मुझे जोड़कर दे दे। मैं उन्हें राष्ट्र के काम में
लानेवाला हूँ।’ ‘कहीं छपेंगी?’ गोबरधन ने उत्सुकता से पूछा। ‘छपेंगी नहीं खुदेंगी,
बलि-स्मारक के प्रवेश द्वार पर।’
गोपालचंद्र ने कहा। गोबरधन दास को प्रेरणा मिल गई। उसने
दूसरे दिन शाम तक चार पंक्तियाँ जोड़ दीं। गोपालचंद्र ने उन्हें पढ़ा तो हर्ष से
उछल पड़े, ‘वाह बेटा, तूने तो एक महाकाव्य का सार तत्व भर दिया है इन चार पक्तियों में। वाह... गागर
में सागर!’ वे चार पंक्तियाँ तारीख 6 सितंबर को ‘बलि-स्मारक’ के प्रवेश-द्वार पर खुद गईं। नीचे कवि का नाम अंकित किया
गया - गोबरधन दास।
विश्वविद्यालय में
हिंदी विभाग के शोध कक्ष में डॉ. वीनसनंदन अपने प्रिय छात्र रॉबर्ट मोहन के साथ
चर्चा कर रहे थे। इस काल के अंतरराष्ट्रीय नाम होने लगे। रॉबर्ट मोहन डॉ. वीनसनंदन
के निर्देश में बीसवीं शताब्दी की कविता पर शोध कर रहा था। मोहन बड़ी उत्तेजना में
कह रहा था, ‘सर, पुरातत्व विभाग में ऐसा ‘क्लू’ मिला है कि उस युग के सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय कवि का मुझे
पता लग गया है। हम लोग बड़े अंधकार में चल रहे थे। परंपरा ने हमें सब गलत जानकारी
दी है। निराला, पंत, प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी, दिनकर आदि कवियों के नाम हम तक आ गए हैं परंतु उस कृतघ्न
युग ने अपने सब से महान राष्ट्रीय कवि को विस्मृत कर दिया। मैं विगत युग को
प्रकाशित करनेवाला हूँ।’
‘तुम दंभी हो।’ डॉक्टर ने कहा। ‘तो आप मूर्ख हैं।’ शिष्य ने उत्तर दिया। गुरु-शिष्य संबंध उस समय इस सीमा तक
पहुँच गए थे। गुरु ने बात हँसकर सह ली। फिर बोले,
‘रॉबर्ट,
मुझे तू पूरी बात तो बता।’
राबर्ट ने कहा, ‘सर, हाल ही में सन 1950 में निर्मित एक भव्य बलि-स्मारक जमीन के अंदर से खोदा गया
है। शिलालेख से मालूम होता है कि वह भारत के स्वतंत्रता-संग्राम में प्राणोत्सर्ग
करनेवाले देश-भक्तों की स्मृति में निर्मित किया गया था। उसके प्रवेश-द्वार पर एक
कवि की चार पंक्तियाँ अंकित मिली हैं। वह स्मारक देश में सबसे विशाल था। ऐसा मालूम
होता है कि समूचे राष्ट्र ने इनके द्वारा शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की थी। उस
पर जिस कवि की कविता अंकित की गई है, वह सबसे महान कवि रहा होगा। ‘क्या नाम है उस कवि का?’
डॉक्टर साहब ने पूछा। ‘गोबरधनदास’, मोहन बोला। उसने कागज पर उतारी हुई वे पंक्तियाँ डॉक्टर
साहब के सामने रख दीं।
डॉक्टर साहब ने
प्रसन्न मुद्रा में कहा, ‘वाह, तुमने बड़ा काम किया है।’
रॉर्बट बोला, ‘पर अब आगे आपकी मदद चाहिए। इस कवि की केवल चार पंक्तियाँ ही
मिली हैं, शेष साहित्य के बारे में क्या लिखा जाए?’
डॉक्टर साहब ने कहा,
‘यह तो बहुत ही सहज है। लिखो,
कि उन का शेष साहित्य काल के प्रवाह में बह गया। उस युग में
कवियों में गुट-बंदियाँ थीं। गोबरधनदास अत्यंत सरल प्रकृति के,
गरीब आदमी थे। वे एकांत साधना किया करते थे। वे किसी गुट
में सम्मिलिति नहीं थे। इस लिए उस युग के साहित्यकारों ने उनके साथ बड़ा अन्याय
किया। उनकी अवहेलना की गई, उन्हें कोई प्रकाशक नहीं मिला। उनकी कुछ पुस्तकें प्रकाशित
हुई थीं। पर अन्य कवियों ने प्रकाशकों से वे पुस्तकें खरीदकर जला दीं।’
रॉबर्ट के मुख पर
उल्लास छा गया । बोला, “और यह भी लिख दूँ न कि इन्होंने सौ से ऊपर ग्रन्थ लिखे थे
।"
“हाँ, हाँ, बल्कि दो सौ । और यह भी लिखो कि उस समय देश-प्रेम से उन्मत्त जन-समूह
गोबरधनदास की ओजपूर्ण कविताएँ गाता हुआ बलि-पथ पर बढ़ता था ।" गुरु ने शोध
आगे बढ़ाई ।
रॉबर्ट ने शंका की,
"लेकिन सर,
वैसे देखा जाये तो ये पंक्तियाँ बहुत रद्दी हैं । निष्कर्ष
ग़लत न हो जाये ?"
डॉक्टर साहब ने डाँटा,
“ रॉबर्ट,
तुम्हें शोध का सबसे पहला नियम नहीं आता । अरे,
जो प्राचीन है वह सब से उत्तम है । बुरा केवल वर्तमान है ।
और शोध का प्रयोजन ही यह है कि जिस में जो चीज़ न हो,
उसे खोजा जाये। इन पंक्तियों में काव्य-गुण नहीं है जो
तुम्हें अपनी ओर से आरोपित करना होगा । महाकवि था । कोई हँसी-खेल नहीं है । "
विद्यार्थी सहम गया ।
डॉक्टर वीनस ने कहा,
" मगर रॉबर्ट,
उस महापुरुष का उल्लेख होना चाहिए,
जिसने महाकवि की प्रतिभा को परखा और भविष्य की पीढ़ियों के
लिए कम-से-कम चार पंक्तियाँ तो सुरक्षित रखीं । कौन था उसका प्रमुख निर्माता ?"
रॉबर्ट ने काग़ज़ देख
कर बताया, “एक नेता था, बाबू गोपाल चन्द ।”
“महान् था वह ।” डॉक्टर ने आँखें बन्द करके कहा,
"उस गुटबन्दी के युग में उपेक्षित
प्रतिभा को इस तरह पहचानना और उसे मान्यता देना,
किसी विराट् आत्मा का ही कार्य हो सकता है । मुझे लगता है,
महात्मा गोपाल चन्द ने ही उस ग़रीब महाकवि को आश्रय दिया
होगा और ऐसा करने से वह उस काल के कवियों के कोप का भाजन बना होगा । अन्य कवियों
ने ईर्ष्या-वश उसकी निन्दा की होगी । पत्रों में उसके खिलाफ़ लिखा होगा । उस
सत्याग्रह के युग में कवियों ने उसके द्वार पर अनशन कर दिया हो,
तो कोई आश्चर्य नहीं । मेरे पास प्रमाण है,
निराला ने ‘कुकुरमुत्ता’ नामक कविता इसी बात से कुछ कर लिखी होगी । दिनकर जी के ‘कस्मै देवाय हविषा विधेम’
में भी यही प्रश्न है । शोध अनुमान पर चलती है ।"
और रॉबर्ट मोहन की
क्रान्तिकारी खोज प्रकाशित हुई जिसके द्वारा विश्व ने 20वीं शताब्दीं के सबसे महान् राष्ट्रीय कवि को जाना,
गोबरधनदास को ।
हरिशंकर परसाई
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