हरिशंकर
परसाई की कहानियों की वर्तमान प्रासंगिकता
कुलदीप आशकिरण
व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार
कराता है, जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियों-मिथ्याचरों और पाखण्डों का
पर्दाफाश करता है। यह वाक्य हिन्दी साहित्य के व्यंग्य पुरोधा हरिशंकर परसाई का है,
जो अपने
व्यंग्य साहित्य से समाज, राजनीति, शिक्षा, पाखण्ड आदि के सामने आईना लेकर खड़े नजर
आते हैं। यह वर्ष (2024) परसाई जी का शताब्दी वर्ष है, अगर वो हमारे बीच होते तो इस
वर्ष हम उनका 100वाँ जन्मदिन मना रहे होते. ...पर उनके न होने पर भी उनका साहित्य आज
भी अपनी प्रासंगिकता के साथ कालजयी है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है - ‘व्यंग्य
वह है जहाँ कहने वाला अधरोष्ठ में हँस रहा
हो और सुनने वाला तिलमिला उठे।’ परसाई जी ऐसे
ही व्यंग्यकार हैं जो लिखते समय स्वयं तो मुस्कुरा रहे होते हैं किन्तु व्यवस्था तिलमिला
उठती है। हरिशंकर परसाई के व्यंग्य साहित्य
की खासियत यह है कि इन्होंने किसी
सीमा में बँधकर व्यंग्य साहित्य नही रचा। अपनी कहानियों,
काव्य और निबंधों के माध्यम से इन्होंने समाज, शिक्षा और राजनीति को जमकर लताड़ा है
जो आज भी प्रासंगिक बना हुआ है।
हरिशंकर परसाई अपनी व्यंग्य रचनाओं के माध्यम
से सामाजिक विसंगतियों, राजनीतिक भ्रष्टाचार, धार्मिक पाखण्ड व शैक्षिक शोषण को परत-दर-परत
उधेडकर समाज समक्ष
प्रस्तुत करते हैं। उनका लेखन केवल विनोद और परिहास के लिए
नहीं
है पर
सोद्देश्य है जो अपनी प्रासंगिकता के साथ साहित्य जगत में
व्याप्त है। हरिशंकर परसाई ने समाज
के सभी तबकों और व्यवस्थाओं पर अपनी पैनी कलम चलाई है। जिसमें शिक्षा व्यवस्था को लेकर लिखी
गयी कहानियाँ
भी हैं जो वर्तमान शैक्षिक जगत पर भी कुठाराघात करती नजर
आती हैं।
साहित्यिक एवं शैक्षिक जगत को केंद्र में रखकर
लिखी गयी इनकी कहानियों में आचार्य जी एक्सटेंशन और बगीचा, इतिश्री रिसर्चाय, शोध का
चक्कर, असुविधा भोगी और ग्रांट अभी तक नहीं आयी
प्रमुख हैं। इन कहानियों में उन्होंने
शैक्षिक जगत के कदाचार एवं भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करते
हुए प्राथमिक विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक के शिक्षक, विद्यार्थी, शोधार्थी और
प्रोफ़ेसर्स पर करारा व्यंग्य किया है। लड़खड़ाती शैक्षिक व्यवस्था पर पाँचवें/छठें दशक
में किए गए इनके व्यंग्य आज भी अपनी जीवंतता बनाए हुए हैं। परसाई जी ने अपनी एक कहानी में प्राइमरी
के शिक्षकों का जो हाल उस समय बयाँ किया है वह आज भी द्रष्टव्य है; कि किस प्रकार इन
बेचारे शिक्षकों को नेताओं की सभा में भीड़ बनकर जुड़ना होता है .. 'इस झूठे सम्मान के
बदले वेतन में भी 10 रुपये की वृद्धि हो जाती। भूखे पेट फटे कपड़े पहिने, नंगे पैर प्राइमरी का मास्टर
बेचारा दिमाग में चिंताओं का भार लेकर जब आगे बैठेगा तो उसे कौन सा सुख होगा ? और यह
सम्मान देने वालों से ईमानदारी से पूछा जाए यह कहाँ का विचित्र तर्क है कि समाज का
सबसे सम्मानित व्यक्ति सबसे दरिद्र रखा जाए।’ देखा जाए तो यह व्यवस्था आज भी ज्यों का
त्यों बनी हुई है। वर्तमान समय में भी किसी बड़े नेता की रैली में जिले भर के प्राइमरी
अध्यापकों की भीड़ जुटाई जाती है। आज भी बहुत से अध्यापक संविदा पर कार्यरत हैं और वे
इस उम्मीद में भीड़ का हिस्सा बनते हैं कि शायद इस बड़े नेता के द्वारा इन्हें स्थायी
कर दिया जाए या वेतन में थोड़ी सी वृद्धि हो जाए।
परसाई जी विश्वविद्यालय के अकादमिक कार्यों
एवं प्रोफेसरों से भली-भाँति परिचित थे। इन्होंने अपनी कहानी में जिन विषयों को मुद्दा
बनाया है वह आज भी विश्वविद्यालय में बरकरार है जैसा इन्होंने अपनी कहानी ‘आचार्य जी
एक्सटेंशन और बगीचा’
में चित्र खींचा है – ‘खुद
कविता सुनायेंगे और मानवीय करूणा से हमें पागल कर देंगे, पर कविता सुनाने के बाद किसी
छात्र के नम्बर घटाकर उसे फेल कर देंगे, प्रेमिका को गले लगाएँगे तो हिसाब लगाते जाएँगे
इसका नेकलेस चुराकर कैसे बेचा जाए।’ आज जब हम शैक्षिक और साहित्यिक जगत में यह सब देखते
हैं तो परसाई जी हमारी आँखों के सामने आकर वही व्यंग्य भरी मुस्कान के
साथ मुस्कुरा रहे होते हैं। शायद वो कहना चाहते हों कि
यह व्यवस्था आज भी वही है, सदियों से ऐसा ही होता चला आ
रहा है और आगे भी यही होता रहेगा। लेकिन हाँ वे बुद्धिजीवी और पाठक को सचेत जरूर करते
हैं कि आप अपनी आँख और कान खुले रखें और समाज के सच को यथार्थता के साथ बयाँ करें।
परसाई जी के सबसे सटीक व्यंग्य पी-एच. डी.
के शोधछात्र और शोध निर्देशकों पर है। वे अपनी कहानियों में शोध और निर्देशक के बीच पिसते
शोधार्थी का जो खाका खींचते हैं वह आज भी बिल्कुल वैसा ही है।..हालाँकि
कुछ अच्छे शोध निर्देशक अपवाद के रूप में आपको जरूर मिल जायेंगे जो शोधार्थी के हित में सोचेंगे लेकिन वो
इतने कम हैं कि इन भ्रष्टाचारी और शोषक प्रोफ़ेसर्स के बीच में विलीन हो जाते हैं। रिसर्च
का चक्कर इनकी ऐसी ही कहानी है जिसमें इन्होंने रिसर्च स्कॉलर किस प्रकार, क्यों और
कैसे रिसर्च करते हैं को हूबहू हमारे सामने रखा है
‘बहुत से लोग पुलिस के डर से रिसर्च करते हैं। एम. ए. करने से लेकर नौकरी करने तक
जो काम किया जाता है, उसे रिसर्च कहते हैं। वह दफ्तर जाने से पहले किया गया हरि-स्मरण
है। इसीलिए अधिकांश शोध प्रबंध विष्णु सहस्रनाम नाम हैं–यानी उनमें एक ही बात हजार
बार कही जाती है।’ परसाई जी उस समय शायद यह सोच कर लिख रहे होंगे कि इन व्यंग्यों से
आने वाली पीढियों में कुछ होगा, उन्हें क्या पता था यह स्थिति और भी बद से बद्तर होती
जाएगी।
आज की
स्थिति यह है कि शोध निर्देशक की खुशामद करना शोधार्थी का दायित्व बन गया है।
निर्देशक अपने शोध छात्र का किस प्रकार से शोषण एवं दोहन करता है और उसके द्वारा क्या
क्या कराता है ‘रिसर्च का चक्कर’ कहानी की इन लाइनों में देखा जा सकता है–’उन्होंने
(प्रोफेसर-गाइड) जेब से एक थैली निकाल कर मेरे (रिसर्च स्कॉलर के) हाथ में दी और कहा,
–इसमें गाँजा है। इसे डॉक्टर शर्मा के घर चुपचाप डाल देना और फिर किसी पब्लिक फोन से
बिना अपना नाम बताए पुलिस को खबर कर देना।’ विश्वविद्यालयों में प्रोफ़ेसर्स के आपसी
खुन्नस के बीच बेचारा शोधार्थी पिसता रहता है और उसे यह सब करना उसकी मजबूरी होती है।
यह बात परसाई जी ने साठ के दशक में जरूर कही थी लेकिन ये आज भी प्रसांगिक है। आज भी विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर्स
अपने शोध छात्रों से इस प्रकार के कुकृत्य कराते मिल जाएँगे।
अंततः हम कह सकते हैं कि परसाई जी की कहानियाँ ही नहीं उनका सम्पूर्ण व्यंग्य साहित्य अपनी प्रसांगिकता के साथ बरकरार है।
कुलदीप आशकिरण
शोध छात्र
हिन्दी विभाग
सरदार पटेल विश्वविद्यालय
बहुत खूब कुलदीप भाई।
जवाब देंहटाएंकुलदीप आशकिरण, आपने व्यंग को अच्छे से विश्लेषित कर परसाई के व्यंग पर प्रकाश डाला। परसाई का व्यंग दृष्टि आज भी प्रासंगिक हैं।