मंगलवार, 26 मार्च 2024

विवेचन

 


आमजन की आवाज हैं रांगेय राघव की कविताएँ

कुलदीप आशकिरण

            हिंदी साहित्य का ऐसा अमूल्य रचनाकार जिसने अल्पायु में ही कहानी, उपन्यास, निबंध, आलोचना, नाटक, रिपोर्ताज तथा काव्य से हिंदी साहित्य को समृद्ध कर दिया।  इस रचनाकार का नाम रांगेय राघव है, जो हिन्दी भाषी न होते हुए भी हिंदी साहित्य को अपनी रचनाओं से सशक्त किया। वैसे इनका जन्म तो आगरा में हुआ था किंतु इनका परिवार मूलतः तिरुपति आंध्र प्रदेश का था। इनका मूल नाम भी ‘तिरुमल्लै नंबाकम वीर राघवा आचार्य’ था।  जनवरी 1923 को श्रीरंगाचार्य के घर जन्में इस रचनाकार ने एक सफल उपन्यासकार, प्रतिष्ठित आलोचक, कवि, इतिहासवेत्ता और रिपोर्ताज लेखक के रूप में ख्याति प्राप्त की।

रांगेय राघव अपनी साहित्यिक यात्रा काव्य सृजन  से प्रारंभ करते हैं, हालाँकि प्रतिष्ठा इन्हें गद्य लेखक के रूप में ही प्राप्त हुई है । इनके कविता संग्रह में पिघलते पत्थर, श्यामला, अजेय खंडहर, मेधावी, रात के दीपक, पांचाली तथा रूपछाया प्रमुख हैं। इनकी कविताएँ आमजन की आवाज हैं जिसमें शोषक वर्ग के खिलाफ इन्होंने बिना डरे अपनी कलम चलाई है और सरकार पर तंज कसने में कोई कसर नहीं छोडी।  'डायन सरकार' इनकी महत्वपूर्ण कविता है जिसमें इन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के लिए डायन राज का प्रयोग किया है और गरीब मजलूमों पर हो रहे शोषण को उजागर किया है -

डायन है सरकार फिरंगी, चबा रही हैं दाँतों से,

छीन-गरीबों के मुँह का है, कौर दुरंगी घातों से ।

गरीबों के हक को किस प्रकार से सरकार द्वारा छीना जाता है और यदि वह अपने हक के लिए आवाज उठाते हैं तो अपनी सत्ता की ताकत से उन्हें कुचलकर उनकी आवाज दबा दी जाती है । इन सबसे व्यथित हो वे इस हुकूमत को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए अपनी कविताओं में आवाज बुलंद करते हैं। इस झूठी व्यवस्था और प्रशासन को काला चोर बाजार तक कह देते हैं –

इस झूठे सौदागर का यह काला चोर-बाज़ार उठे,

परदेशी का राज न हो बस यही एक हुँकार उठे

अंग्रेजी दासता से मुक्ति के लिए रांगेय राघव अपनी कविताओं में आवाहन करते नजर आते हैं क्योंकि अंग्रेजी सत्ता सबसे अधिक शोषण आमजन अर्थात गरीब और मज़लूमों का ही करती है। इससे छुटकारा पाने के लिए युद्ध के लिए भी इन्हें तैयार रहने को कहते हैं। विदित है कि हर दौर में यही होता रहा है, आज भी स्थितियाँ वैसे ही बनी हुई हैं जैसे रांगेय राघव अपनी कविताओं में बयाँ करते हैं। उनकी कविताएँ आमजन के दुख-दर्द के रहस्य को खोलती हैं। आमजन, मजलूमों और शोषितों के मन में एक धारणा भर दी गई है कि तुम कुछ नहीं कर सकते, सिर्फ तुम शोषित हो सकते हो और शोषित होना ही तुम्हारा कर्तव्य है। इस मिथक को तोड़ते हुए रांगेय राघव अपनी कविता में इन्हें अपने हक की खातिर युद्ध करने के लिए भी प्रेरित करते हैं –

कौन कहता है कि तू है रुद्ध

कर न पाएगा भयंकर युद्ध

युद्ध ही है आज सत्ता, आज जीवन ।

रांगेय राघव स्थिति को समझ चुके हैं, वह भी जान रहे हैं कि अपना हक प्रेम से माँग कर नहीं मिलेगा उसे छीनना ही पड़ेगा और उसके लिए युद्ध अनिवार्य है, लेकिन आमजन में तो यह बात घर कर गई है कि वह शोषित होने के लिए ही जन्मे हैं, यह उनके पिछले जन्म के कर्मों का फल है, वो युद्ध कर  ही नहीं सकते क्योंकि युध्द उनका धर्म नहीं। सत्ता की लोलुपता और आमजन के जीवन संघर्ष को वे अपनी कविताओं में भी पिरोते हैं। तमाम संघर्षों के बाद भी आमजन के बीच हताशा ही होती है और उसकी वेदना, उसकी पीड़ा आह में बदल जाती है। वह समझ रहा होता है अब कुछ नहीं होने वाला है। अंततः उसे खाली हाथ ही लौटना होगा। इसी व्यथा को रांगेय राघव अपनी कविता श्रमिक में उजागर करते हैं। इस कविता में इन्होंने बादल को प्रतीक बनाकर श्रमिक जीवन का बिम्ब खींचा। है इसमें मजदूरों की हताशा व निराशा साफ नजर आ रही है –

लो लौट चले हम खिसल रहे /नभ में पर्वत-से मूक विजन।

मानव था देख रहा हमको /अरमानों के ले मृदुल सुमन।।

जीवन-जगती रस-प्लावित कर /हम अपना कर अभिलाष काम।

इस भेद-भरे जग पर रोकर /अब लौट चले लो स्वयं धाम ।

        इतने दशक बीत जाने के बाद भी स्थितियाँ ज्यों की त्यों बनी हुई हैं। आज भी गरीब, मजूदर, किसान रोजी रोटी के लिए दर-दर भटक रहा है। शोषक वर्ग आज भी कम मजदूरी इन मासूमों से हाड़ तोड़ काम करा रहे हैं। सरकार के सत्ताधारी शासकों को भी इनकी कोई चिंता नहीं है। उसके लिए यह जनता रैली की भीड़ और चुनावी वोट से ज्यादा कुछ नहीं है जो महज पाँच किलो राशन से ही इनके हैं। जो सवाल रांगेय राघव अपनी कविता में गुलामी के दौर में उठा गए थे वो आज भी वैसे ही बरकरार है। अंत में इनकी यह कविता जो आज भी एक सवाल के रूप में अपनी जीवंतता बनाये हुए है –

मैं पूछता हूँ सबसे — गर्दिश कहाँ थमेगी

जब मौत आज की है कि कल हैं ज़िन्दगी के

धोखे का डर करूँ क्या रूकना न जब कहीं है—

कोई मुझे बता दो, मुझको मिले सहारा।

 

 


कुलदीप आशकिरण

शोधार्थी- हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...