रांगेय
राघव
प्रो.
प्रकाशचन्द्र गुप्त
सन् १९३१ में जब मैंने सेन्ट जॉन्स कॉलिज,
आगरा में पढ़ना शुरू किया, वहाँ एक तमिल परिवार के सदस्य भी पढ़ते थे । उनका नाम था
लक्ष्मी नरसिंह आचार्य । वे उत्तर प्रदेश की सिविल सर्विस में बाद में आ गए थे ।
उनके छोटे भाई वीर राघव आचार्य, कुछ वर्ष बाद मेरी इण्टर क्लास में दाखिल हुए ।
ठीक साल मुझे याद नहीं रहा । इन्होंने ही बाद में साहित्यिक कार्य के लिए अपना नाम
रांगेय राघव रक्खा ।
यह तमिल परिवार कॉलिज के पड़ोस में ही बाग
मुजफ्फरखाँ में रहता था। राघव तीसरे भाई थे, जो कॉलिज में पढ़ रहे थे । उन दिनों
राघव बहुत ही छोटे लगते थे । उन्होंने कलात्मक प्रतिभा का शीघ्र ही परिचय दिया।
पहले वे चित्रकला की ओर आकृष्ट हुए और उन्होंने तरुण वय में ही अनेक चित्र बनाए ।
बी.ए. में आकर उनकी साहित्यिक प्रतिभा प्रस्फुटित हुई ।
सेन्ट जॉन्स में हमने एक साहित्यिक गोष्ठी
संगठित की थी। इसमें प्रो.हरिहरनाथ टण्डन, बाबू गुलाबराय, नगेन्द्रजी, नेमिचन्द्र
जैन, विद्या भूषण अग्रवाल, भारत भूषण अग्रवाल आदि भाग लेते थे। यहीं नगेन्द्रजी ने
पन्तजी की कविता पर अपना पहला निबन्ध पढ़ा था, जिसने बाद में विकसित होकर पन्तजी पर
उनकी पुस्तक का रूप ग्रहण किया, जो तभी महेन्द्रजी के साहित्य-रत्न-भण्डार से
प्रकाशित हुई ।
सन् १९३८-३९ के लगभग आगरा में प्रगतिशील
लेखक संघ की एक शाखा संगठित की गई, जिसमें उपरोक्त सभी सज्जनों का सहयोग था । इन
बैठकों में रांगेय राघव कुछ-न-कुछ जरूर पढ़ते थे । कविताएँ, कहानियाँ,उपन्यास । तब
हम उन्हें आचार्य कहते थे । मुझे याद है, उन्होंने एक बहुत सशक्त उपन्यास के कुछ
अंश इन बैठकों में सुनाए थे । बहुत गहरी भावना और तेज से राघव लिखते थे । वे लिखते
चले जाते थे और संशोधन अथवा संपादन की ओर कम ध्यान देते थे । उनके साहित्य में
भावना का उद्रेक रहता था । यह विशेष गुण उनकी कला में हम अन्त तक पाते हैं ।
उन्होंने उन्तालीस वर्ष की अवस्था में
डेढ़ सौ के लगभग ग्रन्थ लिखे । एक बार डॉ. रामविलास शर्मा ने कहा था “जब तक मैं
उनकी एक किताब का अध्ययन समाप्त करता हूँ , तब तक यह कई और लिख डालते हैं। सन्
१९४१ में मैंने आगरा छोड़ा । तब तक रांगेय राघव की प्रतिभा का पूर्ण प्रस्फुटन हो
चुका था । तब भी वे अनेक पुस्तकें लिख चुके थे और उनके लिए प्रकाशक खोज रहे थे।
प्रगतिशील साहित्यिक धारा से वे अपना सम्बन्ध दृढ़तापूर्वक स्थापित कर चुके थे ।
एम.ए. में उन्होंने हिन्दी ली। एम.ए.
पास करके उन्होंने गोरखनाथ-सम्बन्धी शोधकार्य हाथ में लिया । इसी सिलसिले में वे
शान्तिनिकेतन गए । द्वितीय महायुद्ध के दौर में उन्होंने अपना खण्ड-काव्य, “अजेय-
खण्डहर” लिखा, जिसे हिन्दुस्तानी एकेडेमी ने पुरस्कृत किया । पुरस्कार का धन
रांगेय राघव ने एक साहित्यिक पत्र निकाल कर खत्म कर दिया ।
जीविका के लिए वे पुस्तक का कॉपीराइट बेच
डालते थे । जो रुपया इस प्रकार मिलता था, उससे गुजर करते थे और उसके समाप्त
होते-होते दूसरी पुस्तक लिख डालते थे । उनकी पहली रचना जो मैंने रुच कर पढ़ी, “घरौंदे”
नाम का उपन्यास था । इसमें कॉलिज जीवन का चित्र था और कॉलेज के छात्रों, शिक्षकों
आदि का व्यंग्यात्मक निरूपण था । इस उपन्यास की आलोचना मैंने उन्हीं दिनों ‘हंस’ में की थी ।
कुछ वर्ष बाद मैंने उनका ऐतिहासिक उपन्यास
‘मुर्दों का टीला’ पढ़ा । यह बहुत
प्रभावशाली रचना है और निश्चय ही उनकी प्रतिभा इस समय अपने शिखर पर पहुँच चुकी थी
। रांगेयराघव की सजीव कल्पना अतीत के अङगों में
मुक्त होकर विचर सकती थी। फिर मैंने कहानी के विशेषांक में ‘गदल’ पढ़ी और उनका
उपन्यास, ‘कब तक पुकारूँ’ पढ़ा। यह रचनाएँ अवश्य ही उनकी सर्वश्रेष्ठ कला कृतियों
में हैं ।
“कब तक पुकारूँ” का शीर्षक पहले “अधूरा
किला” रक्खा गया था । इस उपन्यास को पढ़कर मुझे बयाना के खण्डहर किले की याद आई, जो
आगरा से कुछ मील दूर पर है । वीरान देश, जहाँ मानों मरुभूमि आबादी को लीलने बढ़ी
चली आती हो, ऊँटों के काफिले; पहाड़ी पर स्थित इस किले की दीवारों से लगता है कि हम
एक हजार वर्ष पूर्व के भारत में पहुंच गए हैं । आगरा छोड़ कर भरतपुर के इसी वीरान
इलाके के वैर गाँव में रांगेयराघव बाद में आ बसे थे ।
इलाहबाद आने के बाद दो बार रांगेय राघव से
मेरी भेंट हुई । वे अपने प्रकाशक, किताब
महल के श्रीनिवास अग्रवालजी से मिलने आए थे। मेरे घर भी वे आए । रामविलासजी ने
उनके सम्बन्ध में जो आलोचना “हंस” में की थी, उससे वे असंतुष्ट थे और उसके प्रति
उन्होंने क्षोभ प्रकट किया । दूसरी बार वे अधिक दिन रहे और कई बार मेरी उनसे भेंट
हुई ।
रांगेय राघव शुरू से ही विद्रोही प्रवृत्तियाँ लेकर आए।
शिक्षक इन्हें उद्धत छत्र समझते थे । मैंने उन्हें अपने विचारों में निर्भीक और
दृढ़ पाया । वे संयम और विनय कभी न छोड़ते थे । उन्हें एक अच्छे मित्र और सहयोगी के
रूप में देखना कभी कठिन न था ।
कुछ वर्ष पूर्व जब वे प्रयाग आए थे, उनकी
प्रतिभा का सूर्य मध्याहन में था । उनके गाल कुछ और भी ऊपर हट गये थे और उनका माथा
पहले से भी चौड़ा हो गया था । उनके मुख पर संघर्षो और अथक परिश्रम की छाप स्पष्ट थी
। उनकी मुद्रा में मैंने एक उदासी और श्रान्ती का अनुभव किया, जो मेरी कल्पना भी
हो सकती है।
फिर पढ़ा कि वे बम्बई में बीमार पड़े हैं। मन
को धक्का लगा, किन्तु सोचा कि अच्छे हो जाएँगे । चिकित्सा हो रही थी । अब पढ़ता हूँ
कि वे नहीं रहे । असमय ही हमारे बीच से वे उठ गए । मन बहुत उदास हो जाता है ।
कितनी प्रतिभा, कितनी शक्ति असमय ही इस प्रकार नष्ट हो जाती है, और हम उसकी रक्षा
के लिए कुछ भी नहीं कर पाते। क्या सदा ही ऐसा होता रहेगा ? कुछ तो इस दिशा में
प्रयास होना चाहिए। प्रेमचन्द, पं.रामचन्द्र शुक्ल, ‘प्रसाद’, ‘निराला’ सभी हमारे
बीच से असमय ही उठ गये । राहुल शायद अच्छी चिकित्सा के कारण बच जायँ। अपने
अद्वितीय कलाकारों की स्वास्थ्य-रक्षा हमारा एक महत्वपूर्ण सामाजिक कर्त्तव्य है ।
- प्रयाग विश्वविद्यालय, प्रयाग
[साहित्य-संदेश
पत्रिका के रांगेयराघव स्मृति अंक (जनवरी-फरवरी १९६३) से साभार]
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