मंगलवार, 26 मार्च 2024

संस्मरण

 


जब भी उँगलियाँ  क़लम उठाती हैं, याद आते हैं परसाई!

 डॉ. अलका अग्रवाल सिग्तिया

जब भी उँगलियाँ  क़लम उठाती हैं, याद आते हैं परसाई। आख़िर क्यों? अक्सर कोई विसंगति जब परेशान करती है याद आते हैं परसाई आखिर क्यों? पता नहीं उन्हें समझने की कितनी समझ है मुझमें?

पर एक बात जरूर है उन्हें पढ़कर, उन्हें याद कर बहुत बार ज़िंदगी रास्ता दिखाती है। मैं खुद को बहुत ही खुशनसीब मानती हूँ, कि उनसे मिलने के अवसर मुझे मिले। उनसे बहुत कुछ सीखने के अवसर मुझे मिले। जब भी मैं उनके पास जाती थी, जीवन के न जाने कितने नए पाठ सीख कर वहाँ से निकलती थी।

सबसे पहला पाठ सादा जीवन जीते हुए भी आपका व्यक्तित्व अनंत काल तक किस तरह यात्रा कर सकता है, यह समझ पाती हूँ। और सच कहूँ तो, जबलपुर जाती हूँ, लगता है वे वहाँ हैं। जबलपुर के, जमानी के, खिड़किया के लोग अब भी जैसे परसाई जी को जीते हैं। जबलपुर जाकर ऐसे लोगों से मिलना बहुत अच्छा लगता है जो परसाई जी की बातें करते हैं। मलय सर, तरुण गुहा नियोगी हो हिमांशु राय हो अरुण पांडे हों, या वसंत काशीकर जी जो अब नहीं रहे, नवीन दुनिया के संपादक रह चुके श्री सुमित्र जी, परसाई भवन में बैठे हुए लोग सब से मिलकर परसाई जी के बारे में  ज़्यादा से ज़्यादा जानना हमेशा अच्छा लगता है। जबलपुर में राइट टाउन की ओर जाती हुई सड़क जैसे कहती है आओ परसाई जी के घर नहीं जाना! वैसे अब उनके भाँजे त्रिवेणी नगर रहने लगे हैं। उनकी बहन सीता (बुआ) अब नहीं हैं, लेकिन न जाने क्यों जबलपुर जाती हूँ, तो एक बार उनके घर जाने की इच्छा को टाल नहीं पाती।

मुझे अब भी याद है, जब मैं पहली बार उनके घर गई थी। लोहे की जाली वाला बहुत सादा सा घर।  रेलवे स्टेशन से उनके घर तक पहुँचने के पहले का अनुभव भी अविस्मरणीय है। जबलपुर रेलवे स्टेशन पर रिक्शा स्टैंड पर पहुँचने के बाद जब मैं रिक्शेवाले काका को राइट टाउन का पता समझा रही थी, राइट टाउन बोलने पर पहले मुझे बीस रूपये कहे थे। राइट टाउन में जब हम उनके घर पहुँचे थे, तो, रिक्शावाले काका ने कहा था बिटिया ऐसे कहती ना परसाई जी के घर आना था। तब कहाँ समझती थी कि परसाई जी को रिक्शावाला, पानवाला या हर वह आम आदमी जानता है जो परसाई जी की रचनाओं में अपनी बात पाता था। उनकी भाषा की सरलता उसके दिल तक पहुँच पाती थी। तब कहाँ जानती थी कि परसाई आम आदमी की जमीनी लड़ाई में भी साथ में खड़े रहते थे। कभी ना भूलने वाली बात यह हुई थी कि, काका ने मुझसे 20 रूपये की जगह 15 रुपये ही लिए थे।

सच कहूँ तो, उस दिन उनके घर में दाखिल होते हुए मैं उनके व्यक्तित्व की विशालता, उनके लेखन के साम्राज्य के बारे में उतना नहीं जानती थी, क्योंकि मैं विज्ञान की छात्रा थी। साहित्य पढ़ने के संस्कार हमारे घर में थे पर बहुत ज्यादा साहित्य पढ़ने का समय मुझे मेरी पढाई के कारण नहीं मिलता था।

उनके घर पहुँचकर मैंने उन भैया का नाम बताया जिन्होंने मुझे उनसे मिलने की सलाह दी थी, अपना नाम बताया था। संभवतः भैया ने उन्हें फोन करके मेरे बारे में बता दिया था। मुझे अंतर- महाविद्यालयीन प्रतियोगिता में युवा क्रांति विषय पर अपने कॉलेज का प्रतिनिधित्व करना था। मैं इसी विषय पर उनसे मार्गदर्शन लेने गई थी। यह संस्मरण यहाँ इसलिए लिख रही हूँ क्योंकि इसके माध्यम से यह कहना चाहती हूँ कि हरिशंकर परसाई का व्यक्तित्व इतना असाधारण होने के बावजूद भी बिल्कुल नए किशोरों और युवाओं को भी समय बहुत अच्छे से देते थे। जो बाद में मुझे समझ में आया कि वे चाहते थे कि देश के युवाओं की विचारधारा परिपक्व हो। उन्होंने मुझे लोहिया की विचारधारा, जे. पी. की विचारधारा, मार्क्सवाद, संपूर्ण क्रांति ये तमाम बातें बहुत ही गहराई से समझा‌ईं।

जो बात नहीं कभी नहीं भूल सकती, कुछ बड़े व्यक्तित्व अपने लेखन में तो बड़े दिखते हैं लेकिन उनका व्यक्तित्व मिलने पर खोखला सा लगता है, लेकिन परसाई जी का व्यक्तित्व और कृतित्व एक ही था। वे कहते थे कि मैं इंसान की बात करता हूँ। सबको समान अधिकार मिले यह बात करता हूँ। कभी भी सामने वाले को, नजरअंदाज नहीं करते थे। ऐसा नहीं था कि मैं गई हूँ तो बस, समझा देंगे और उसके बाद मैं वहाँ से चुपचाप निकल जाऊँगी। इस बात का भी बराबर ध्यान रखते थे कि जो आया है चाय-पानी पिलाया जाए। मैं क्योंकि कटनी से जाती थी उन्हें लगता था कि इसे भूख भी लगी होगी।  अपनी बहन सीता जिन्हें मैं सीता बुआ कहती थी ,उन्हें कहते थे देखो कौन आया है और सीता बुआ मुझे अपने साथ रसोई में ले जाती थीं, वहाँ बैठा कर मुझे खाना खिलाती  थीं। पहले दिन उन्होंने सीता बुआ से बोल कर चाय बनवाई, चाय के साथ बिस्किट और नमकीन मंगवाया। मन में संकोच था लेकिन मैं कुछ कह नहीं पाती थी।

2 से ढाई घंटे तक उन्होंने मुझे विषय के बारे में गहराई से समझाया था। वहाँ से निकली तब, बारिश की हल्की फुहार गिर रही थी। मुझे यह लग रहा था कि उनके ज्ञान की फुहार मेरे भीतर भी कहीं मुझे ठंडक दे रही है। दूसरे दिन बहुत ही आत्मविश्वास के साथ तर्कपूर्ण तरीके से मैं अपनी बात को रख पाई थी। जब भी उनके घर जाती थी, मैं तो बहुत बड़े प्रश्न नहीं रख पाती थी क्योंकि तब उतनी समझ थी भी नहीं। कुछ छोटी-छोटी बातें जरूर उनसे पूछती थी जिसे भी बहुत समझा कर वे बताते थे। पहले तो उनके व्यक्तित्व को बहुत ज्यादा समझे बिना मिलने चली गई थी लेकिन उसके बाद से लगातार उनके कृतित्व को पढ़कर बहुत कुछ सीखती  रही। उन्हें अपना लिखा हुआ भी दिखाती थी। कभी उन्होंने उसमें अरुचि नहीं दिखाई। दो बातें जो सिखाईं,

पहली बात यह है कि लेखन की भाषा सहज और सरल होनी चाहिए। जो आम आदमी की समझ सके। हालाँकि बहुत क्लिष्ट भाषा में मैं पहले भी नहीं लिखती थी, लेकिन उसके बाद और अधिक ध्यान देने लगी कि बहुत ज्यादा साहित्यिक क्लिष्ट शब्द लेखन में ना हों।

दूसरी बात उन्होंने समझाई कि कभी भी लेखक को यह ध्यान रखना चाहिए कि मुख्य कथ्य तक आते-आते, वह वातावरण का लंबा वर्णन ना करे, नहीं तो पाठक की रुचि पहले ही खत्म हो जाती है।

उनसे मिलने के बाद उन्हें पढ़ना और समझना बहुत अच्छा लगने लगा था। एम.ए. पूर्वार्ध में उनकी पुस्तक विकलांग श्रद्धा का दौरहमारे कोर्स में थी। हालांकि उसके पहले मेरे छुटपुट व्यंग्य दैनिक भास्कर, नवीन दुनिया और कुछ पत्रिकाओं में छप गए थे, पर सच कहूँ तो मुझे बहुत समझ- वमझ नहीं थी कि यह व्यंग्य है। बस इतना होता था, विसंगतियों पर मेरी किशोर कलम भी चल जाती थी। उन्हें पढ़ने के बाद व्यंग्य के संस्कार अनजाने में ही गहरे होते गए। इसका अर्थ यह नहीं है कि व्यंग्य की बहुत समझ आने का दावा करने लगी थी ।’ विकलांग श्रद्धा का दौर’ पढ़ने के बाद पैर छूने के तथाकथित संस्कार भी समझ आए थे। कटनी में जिन भैया ने मुझे उनसे मिलने की सलाह दी थी, हालाँकि इस बात के लिए हमेशा में उनकी आभारी थी और रहूँगी कि उनके कहने से ही मैं उनके घर गई थी, नहीं तो शायद मैं अपनी तरफ से कभी नहीं जा पाती। उन्होंने मुझे पूछा था कि मैं जब जाती हूँ मैं उनसे कैसे बात करती हूँ? मैंने बताया था जाकर नमस्ते करती हूँ, बैठने के लिए कहते हैं, बैठ जाती हूँ। खाना खाने कहते हैं, खाना खाने चली जाती हूँ, चाय आती है, चाय पी लेती हूँ। अपने समय के हिसाब से थोड़ा बहुत पूछती रहती हूँ। लेकिन चुपचाप बैठकर सुनती अधिक हूँ, जो दूसरे लोग आते हैं उनसे वे क्या बातें करते हैं!

उन्होंने कहा वह तो ठीक है पर तुम उनके पैर नहीं छूती!

नहीं मैंने कहा छुऊँगी भी नहीं क्योंकि ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ में उन्होंने लिखा है कि लोग उनके पैर क्यों छूते हैं।

भैया ने मुझे  कहा , “बहुत बड़ा बनने की जरुरत नहीं है, अगली बार जाओगी तो पैर जरूर छूना।”

मैं अगली बार उनके घर गई मैंने उनके पैर छू लिये। मैं जब उनसे पहली बार मिली थी उनके कूल्हे की हड्डी टूटने के कारण पलंग पर भी अधलेटे  बैठे रहते थे। उन्हें मानसिक रूप से भी परेशानी तो होती होगी। लेकिन वे स्वयं पर भी अपने इस हालात में भी व्यंग करने से नहीं चूकते थे। बाकी लोगों के सामने वह बहुत गंभीर रहते थे। मैं सच कहूँ मैंने उन्हें कभी खिलखिला कर हँसते हुए नहीं देखा, यह मेरी चाहत ही रह गई। जबकि वे अपने मित्रों के सामने खिलखिलाते थे हँसते थे। वैसे जब मायाराम सुरजन जी या प्रहलाद जी ऐसे मित्रों के साथ उन्हें देखा तब उन्हें मैंने कुछ अलग पाया था। कांतिलाल जैन जी को भी उन्होंने पत्र में लिखा था कि,”मैं ठीक हूँ सिवाय इसके कि एक पाँव की हड्डी टूटने के फलस्वरूप हड्डी जुड़ने के बाद भी दर्द रहता है। ज्यादा चलना फिरना होता नहीं। देह धरे को दंड है सो ज्ञानी होने के कारण ज्ञान से भुगतने के लिए मजबूर हूँ।”

बात कर रही थी कि मैंने उनके पैर छू लिए,  पैर छूने पर मुझे आज तक उनकी वह भाव-भंगिमा याद है, उन्होंने मुझे इस तरह से देखा, जैसे मैंने कुछ गलत कर दिया है। फिर पूछा,

तुमने मेरे पैर क्यों छुए? आज के पहले तो नहीं छुए थे।”

जी वो.. भैया ने कहा था इसलिए मैंने धीरे से कहा।”

दूसरों के कहने से खुद को बदल लोगी, तो तुम्हारा वजूद क्या रहेगा, तुम जैसी हो, वैसी ही  रहो। आगे कभी मेरे पैर मत छूना।”

जी कहकर मैं चुपचाप बैठ गई थी। शायद  उन्हें भी ऐसा लगता था यह तो बहुत छोटी है ,मुझसे सामान्य बातें अधिक पूछते थे, घर में सब कैसे हैं ,कटनी में सब कैसे हैं ,प्रवीण अटलूरी,नन्दलाल  सिंग ,सुबोध श्रीवास्तव अनिल से मुलाक़ात हुई ? नया क्या लिख रही हो ,कुछ पढ़ती हो कि नहीं, क्या पढ़ रही हो?  उसी समय उनके यहाँ कुछ लड़के मिलने के लिए आए। वे लेखन के बारे में उनसे सलाह ले रहे थे। उन्होंने पूछा था “क्या करना चाहते हो?”

उन युवाओं का जवाब कुछ यूँ था कि क्रांति करना चाहते हैं, क्रांतिकारी लेखन करना चाहते हैं, महिलाओं के शोषण के खिलाफ लिखना चाहते हैं।

कुछ पल मौन रहकर उन्होंने बहुत ही धीरे से पूछा था, “तुम्हारे घर में कमाता कौन है?”

उनमें से एक लड़के ने कहा था पिताजी खेती करते हैं।

दूसरे ने बताया पिताजी की छोटी-सी दुकान है।

इसी तरह तीसरे का जवाब कुछ यह था कि पिताजी कोई नौकरी करते हैं।

उनकी एक आदत थी कहते थे हुं..

हुं.. मतलब पिताजी के कंधे पर चढ़कर क्रांति करना चाहते हो। पहले अपना बोझा खुद उठाओ, फिर क्रांति के बारे में  सोचो।”

जिस लड़के ने कहा था कि वह महिलाओं के शोषण के खिलाफ लिखना चाहता है, उससे पूछा था तुम्हारे घर में आटा कौन पिसवा कर लाता है?

लड़के ने जवाब दिया था माताजी!

इस पर थोड़ी तल्खी के साथ उन्होंने कहा था “अपने घर की स्त्री की पीड़ा तो समझ नहीं सकते दूसरी स्त्रियों की पीड़ा को क्या समझोगे? पहले अपने आसपास के जीवन को समझो।”

इसी तरह के बहुत से अनुभव वहाँ पर मुझे मिलते थे। कांति कुमार जैन जी ने भी एक अनुभव ‘तुम्हारा परसाई’ में लिखा है,  एक लड़की एक बार दहेज पीड़िता की कोई कहानी लिखकर लाई। उसने जब परसाई जी को वह कहानी दिखाई, उन्होंने पूछा था क्या उसने ऐसी कोई घटना देखी थी? उसने कहा था कि नहीं मन से लिख कर लाई है। उन्होंने कहा इस तरह की जो त्रासदियां होती हैं उन्हें गहराई से समझो तब जो लिखोगे उसमें पाठक बेचैन होगा। अगली बार उस लड़की ने उस कहानी को बहुत सुधार करके उन्हें दिखाया था। इसीलिए बार-बार कहा जाता है कि परसाई युगीन शिक्षक थे और रहेंगे ।

वे चाहते थे कि बदलाव की एक चेतना लोगों के भीतर पैदा हो। मैंने स्वयं अपने भीतर उनकी रचना को पढ़कर बहुत बदलाव किए हैं। एक रचना का उदाहरण देना चाहूँगी। मुंबई के एक जूनियर कॉलेज में मैं हिंदी पढ़ा रही थी। उस वक्त मेरा विवाह हुआ ही था। हम राजस्थानी हैं, भागवत कथा और यह सब हमारी कम्युनिटी में बहुत होते हैं। मुझे भी उस भागवत कथा में जाना पड़ा। हमें कलश भी रखना पड़ा। कलश यात्रा में सर पर कलश रखकर चलना भी पड़ा था। लेकिन वहाँ पंडित जी के लालच को देखकर और बहुत सी चीजों से मुझे बड़ा क्षोभ हुआ था। घर आई तो मानसिक और शारीरिक दोनों ही रूप से थकान अनुभव कर रही थी। ऐसे में अचानक मैंने परसाई रचनावली  उठाई और एक रचना खोलकर पढ़ने लगी। उसमें यह लिखा था कि विज्ञान के प्रोफेसरनियाँ  कॉलेज में विज्ञान पढ़ाती हैं और कलश यात्रा में सिर पर कलश रखकर चलती हैं। मुझे लगा यह यह व्यंग्य तो मुझ पर ही है। आज मैं यही सब तो करके आई हूँ। उसी पल निश्चित कर लिया था कि अब कभी किसी कलश यात्रा में कलश लेकर नहीं चलूँगी।

परसाई जी की बातें और लेखन हमेशा मेरे लिए ऊर्जा का और प्रेरणा का मार्ग प्रशस्त करते रहे। मुझे याद है एम.ए. उत्तरार्ध के समय मैं बहुत बेचैनी महसूस कर  रही थी। पढ़ने में मन नहीं लग रहा था, उसी समय सारिका नवांकुर विशेषांक में मेरे साथ छपे मेरे मित्र ने जो कि इंजीनियरिंग कॉलेज का छात्र भी था उसका पत्र आया। इस पत्र में उसने लिखा था कि परसाई जी के घर जब गया तो मैं तुम्हारी बहुत प्रशंसा कर रहे थे। यह पढ़ते ही मेरे अंदर ऊर्जा का संचार हो गया और दुगुने उत्साह से मैंने पढ़ाई शुरू कर दी।

ऐसा मैंने उन्हें अपने सामने भी श्री मायाराम सुरजन जी और प्रहलाद अग्रवाल जी से कहते हुए सुना था। मैं वहाँ बैठी थी तभी प्रहलाद जी और मायाराम जी आए थे,  मिलवाते हुए कहा था,” ये ,अलका अग्रवाल है बहुत अच्छी लड़की है, अच्छा लिखती है।”

इसी से जुड़ा हुआ एक और संस्मरण है। एम. ए उत्तरार्ध में एक पेपर के विकल्प में मैं लघु शोध प्रबंध लिख रही थी। सोच लिया था कि परसाई जी पर ही लिखूंगी। कुछ विद्वजनों ने कहा कि यूनिवर्सिटी में उनसे चिढ़ने वाले भी बहुत हैं, तुम्हें अच्छे नंबर नहीं मिलेंगे। स्वयं परसाई जी ने भी इस खतरे से आगाह किया था। पर मैंने निर्णय नहीं बदला। तब उनका पितृ-रूप भी देखा। उन्होंने फोन करके उसी समय मलय सर को और डॉक्टर श्यामसुंदर मिश्र को घर बुलाया। मुझसे मिलाते हुए कहा कि यह लड़की लघु शोध प्रबंध लिख रही है आप लोग इसे मार्गदर्शन दें। उन्होंने एक बार भी मना नहीं किया।  बाद में मैं जबलपुर में मलय सर से तो मिलती रहती हूँ लेकिन डॉ श्याम सुंदर मिश्र जी को एंजाइमर की समस्या होने से मिल नहीं पाई थी। उन्होंने बहुत ही अच्छी तरह से मुझे मार्गदर्शन दिया था, अब जब मैं उससे लघु शोध प्रबंध को पढ़ती हूँ तो अपने आप को बहुत ही भाग्यशाली समझती हूँ।

            ऐसा नहीं है कि परसाई जी सबके साथ बहुत नम्रता से पेश आते थे। मुझे याद है कि एक बार मैं स्पर्श और महिला भास्कर की सम्पादिका राजश्री रंजीता जी के साथ उनके घर पर बैठी थी। राज दी परसाई जी पर स्पर्श का विशेषांक निकाल रही थीं। इसी सिलसिले में हम उनसे मिलने गए थे। तभी वहाँ एक पत्रिका के संपादक आए थे बहुत बड़ी-बड़ी बातें कर रहे थे। परसाई जी कुछ देर तो सुनते रहे फिर उन्होंने जिस तरह से उन्हें झाड़ा, पहली बार मैंने उनका वह रूप देखा था।

हालांकि परसाई जी के बारे में लिखकर कभी यह कहना अच्छा नहीं लगता कि वे मुझे अच्छे से जानते थे। बहुत सालों तक मैंने जो भी अनुभव किए थे अपने तक ही लिख कर सीमित रखे। किसी के कहने पर देती हूँ, मन में लगातार यह संशय बना रहता है लिखना चाहिए था या नहीं।

अब नाम नहीं लेना चाहती, क्योंकि अब वे हैं भी नहीं, परसाई जी से अपनी निकटता दिखाने के लिए उन्होंने जो संस्मरण लिखे थे, वे किसी तरह से स्तरीय नहीं थे। इसी सिलसिले में जबलपुर के राजकुमार सुमित्र जी की बात करूंगी, जो नई दुनिया के संपादक थे और परिवर्तन के लिए 1958 में परसाई जी से ‘अरस्तु की चिट्ठी’ लिखवाने उनके घर जाते थे तो नवीन दुनिया के लिए ‘सुनो भाई साधो’ लिखवाते थे। परसाई स्वयं जानते थे कि उनके भीतर क्या कमियां हैं? उनके जीवन में संघर्ष बहुत अधिक थे। ज्ञानरंजन जी ने उनके आर्थिक संघर्ष के बारे में बहुत सी ऐसी बातें बताईं, जिन्हें सुनकर लगता है कि आखिर किस तरह उन्होंने और उनके परिवार ने वह समय बताया होगा!

मैं बात कर रही थी, नवीन दुनिया के संपादक रह चुके राजकुमार सुमित्र जी की। उनके परसाई के साथ घनिष्ठ के संबंध थे। एक बार सुमित्र जी कहीं बाहर गए ,दो तीन दिन तक बात नहीं हुई ,परसाई जी ने बात होने पर पूछा,कहाँ थे ,इन्होंने  बात को घुमा दिया ,तो बोले लगता है मास्टर हो गए हो ,ये व्यंग्यात्मक स्वर था ,ऐसा नहीं है कि जब वे पढ़ाते थे, बेमन से पढ़ाया हो ,पर क्योंकि वे मास्टरों की नियति जानते थे ,लेखन में समझौता नहीं करना पड़े इसलिए शिक्षण का कार्य छोड़ दिया था ,क्योंकि सत्ता की जी हुज़ूरी नहीं कर सकते थे ,बाद में किसी ने  प्राचार्य पद का प्रस्ताव भी रखा था ,जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया था।          

कांति कुमार जैन जी ने सुमित्र जी को फोन किया तो, उन्होंने बताया कि परसाई जी ने बहुत अधिक बाल- साहित्य भी लिखा है।उसमें से बहुत सा मैटर भारतीय लेखक में भी लिया था ,ऐसा सुमित्र जी ने बताया था।

कांतिलाल जैन जी ने परसाई जी के बारे में बहुत सी बातें, लिखी हैं, जिन्हें पढ़कर किसी भी लेखक की उँगलियाँ  जब क़लम उठाएंगी, उन बातों से प्रेरणा मिलेगी। परसाई माखनलाल चतुर्वेदी जी के बारे में जो संस्मरण लिखते हैं उसमें वे उनकी उस विशेषता के बारे में लिखते हैं, जहां भी अंग्रेज कलेक्टर से बिल्कुल नहीं डरते। लेकिन वसुधा में यह लिखने से कोताही नहीं बरती कि, अगर माखनलाल चतुर्वेदी का गद्य है तो दो पैराग्राफ में पीढ़ियाँ, ईमान, बली पंथी, मनुहार ,तरुणाई, लुनाई आ जाना चाहिए वरना वह चतुर्वेदी जी का लिखा हुआ नहीं है। इस पर चतुर्वेदी जी जैसे रचनाकार बुरा नहीं मानते थे, बल्कि उन्होंने उन शब्दों को एक कार्डबोर्ड पर लिखवा कर सामने डलवा लिया ताकि बार-बार उसके पुनरावृति से बच सकें। इसी तरह रामेश्वर गुरु जिनसे उन्होंने बहुत कुछ सीखा था, उनकी कविता में काश शब्द बार-बार आता था, परसाई जी ने जब ने बताया तब वे सचेत हो गए थे। इसी बात पर डॉक्टर राम शंकर मिश्र जी जिन्होंने परसाई जी पर कई किताबें लिखी हैं, उन्होंने भी बताया था कि परसाई जी ने जान-बूझकर एक बार रामेश्वर गुरु जी की कविता में काश लिख दिया, रामेश्वर गुरु ने जब पूछा कि उन्होंने तो काश नहीं लिखा था कैसे आ गया, तब परसाई जी ने बताया था कि उन्होंने जोड़ा ताकि लोग विश्वास कर सके कि वह कविता रामेश्वर गुरुजी की है।

डॉ राम शंकर मिश्र, से जो मुलाकातें हुई उन्होंने परसाई जी के बारे में बहुत अद्भुत बातें बताई थीं। वे यह भी बताते थे कि वे उनके साथ अक्सर पैदल चलते रहते थे, परसाई जी बोलते रहते थे और वे सुनते रहते थे। किस तरह वे  बताते थे कि इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर’ और एक काना इचक ताना’,उनके मित्र शेष नारायण राय के साथ जो कुछ हुआ था उस पर लिखा। यह बात राय साहब के बेटे और परसाई जी द्वारा शुरू की संस्था विवेचना से जुड़े हिमांशु राय भी बताते हैं।  उनकी बहुत सी रचनाओं में कौन सा चरित्र किस तरह से आया है, वे बताते थे। डॉ मिश्र ने बताया था कि अक्सर बहुत से लोग परसाई जी के पास जाकर कहते थे इस रचना में आपने हमारे बारे में लिख दिया है, और परसाई जी मुस्कुरा कर रह जाते थे।

मैं उन पलों के प्रति आभारी होती हूँ, जिन्होंने मुझे उनका सानिध्य दिया ,और जाने-अनजाने मेरे  लेखन में साहस आया। यही सब कारण है कि जब भी मानवीय सरोकारों की बात होती है, पीड़ितों और शोषितों की पक्षधरता की बात होती है, और वे विसंगतियाँ क़लम को परेशान करती हैं , तब-तब याद आते हैं परसाई!

***

 

डॉ. अलका अग्रवाल सिग्तिया

निदेशक 

परसाई मंच

 

       

 

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