मंगलवार, 26 मार्च 2024

अंक के बहाने .... अंक के बारे में......

 


किसी साहित्यकार, और वो भी ऐसे साहित्यकार कि जिन्होंने अपने कृतित्व और उससे स्थापित अपने ऐतिहासिक वर्चस्व के चलते साहित्य जगत में अपार ख्याति प्राप्त की हो, जिनको पढ़ने-गुनने एवं जिनके स्मरण-समीक्षा के लिए किसी विशेष तिथि, मास या वर्ष को नहीं देखा जाता। दरअसल पाठक-समाज तथा विशिष्ट अध्येता-वर्ग अपनी रुचि एवं अकादमिक-गैरअकादमिक जरूरत के हिसाब से ख्यातनाम सर्जकों के सृजन कर्म से जुड़ा ही रहता है। इसी के साथ-साथ हम यह भी देखते आ रहे हैं कि अपनी जन्मतिथि, पुण्यतिथि या अपनी किसी विशेष उपलब्धि की प्राप्ति के समय-विशे पर सर्जक कुछ खास ही चर्चा में रहते हैं, जो स्वाभाविक ही है। अपने अवतरण या निर्वाण के पचास, सौ, सवा सौ, डेढ़ सौ वें वर्ष में उस सर्जक का अवदान, उनकी विविध साहित्यिक गतिविधियाँ, उनका जीवन सफ़र आदि की उपस्थिति तो एक तरह से साहित्य जगत की चर्चा के केन्द्र में ही रहती है। आधुनिक हिन्दी साहित्य के दो वरिष्ठ व प्रतिष्ठित नाम - रांगेय राघव और हरिशंकर परसाई। उभय साहित्यिक प्रतिभाओं का जन्मशताब्दी वर्ष – नवरी 2022 से नवरी 2023 रांगेय राघव का तथा अगस्त 2023 से अगस्त 2024 हरिशंकर परसाई का। इस खास अवसर के निमित्त ‘शब्द-सृष्टि’ के मार्च-2024 अंक के माध्यम से रांगेय राघव और हरिशंकर परसाई का विशेष स्मरण, उनके सृजन-लेखन, उनकी लेखकीय संवेदना व सरोकार उनके ‘विन’ आदि का एक संक्षिप्त परिचय-विहंगम अवलोकन ही हमारा प्रयास है और उद्देश्य ।

फहमी बदायूँनी का एक मशहूर शेर याद आता है -

तेरे जैसा कोई मिला ही नहीं

कैसे मिलता कहीं पे था ही नहीं।

वैसे तो हरए साहित्यकार का अपना एक वैशिष्ट्‌य होता है जो उसे अन्य सर्जकों से अलग पहचान देता है। बावजूद इसके कतिपय सर्जक उस श्रेणी में आते हैं जिन्होंने साहित्य समाज में अपनी समर्थ लेखनी से बिल्कुल अलग ही अपनी इमेज कायम की है। मतलब औरों से बिल्कुल अलग-थलग और अति विशिष्ट । आधुनिक हिन्दी साहित्य के इसी तरह की खास प्रवृत्ति व प्रकृति के दो हस्ताक्षर – रांगेय राघव और हरिशंकर परसाई । लेखन-सृजन की मात्रा, उसका सृजनात्मक व वैचारिक स्तर तथा उसकी साहित्यिक-सामाजिक उपादेयता के लिहाज से रांगेय राघव तथा स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी गद्य में एक अलग ही तेवर के लेखन तथा उस लेखन में अपने लेखकीय सरोकार व सामाजिक दायित्व, युगीन समय-स्थितियों प्रति अपनी गता को बखूबी प्रमाणित करने वाले हरिशंकर परसाई, ये दोनों अपने आपमें बिल्कुल अलग, निराले-विलक्षण साहित्यसेवी के रूप में आधुनिक हिन्दी साहित्य में अपना एक विशेष स्थान व महत्व रखते हैं।

रांगेय राघव ने क्या लिखा? कितना लिखा? कैसा लिखा? बेशक इन प्रश्नों के उत्तर हमें प्रभावित करते हैं, आनंदित करते हैं। हमारी जिज्ञासा को संतुष्ट करते हैं। बशर्ते इन सवालों के सही उत्तर के लिए हमें रांगेय राघव को जानना पड़ेगा, पढ़ना पड़ेगा। उक्त प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर के पश्चात हमारे मन में एक आश्चर्य का भाव भी प्रकट होता है। आश्चर्य इस बात का कि एक ही ज़िन्दगी में, और इतनी छोटी-सी ज़िन्दगी [1923-1962] में इतना विपुल मात्रा में और स्तरीय लेखन क्या संभव है? संभव है तो वो कौनसी लेखकीय शक्ति से यह संभव हुआ?

अपनी उनतालीस वर्ष की अल्पायु में लगभग डेढ़ सौ के आसपास रचनाओं का लेखन व प्रकाशन। कहते है कि लगभग 1936 में रांगेय राघव की सृजन-लेखन यात्रा आरंभ हुई और 1962 में इस अहिन्दी भाषी महान हिन्दीसेवी, दिवंगत हुआ। यानी मह 16-17 सालों की अपनी कड़ी लेखकीय साधना के फलस्वरूप इतना विपुल कृतित्व से हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि की। रामविलास शर्मा ने कभी कहा था – “जितने में मैं उनकी ए पुस्तक पढ़कर समाप्त करता हूँ, दूसरी आ जाती है।” विधा व विषय की दृष्टि से रांगेय राघव की रचनाधर्मिता बहुआयामी रही है। लगभग आधे दर्जन से भी ज्यादा विधाओं में उन्होंने अपनी लेखनी चलाई है। साहित्य के साथ-साथ उनका अध्ययन-लेखन ज्ञान-विज्ञान के और भी कई विषयों से संबद्ध रहा, जैसे रानीति, संस्कृति, समाशास्त्र, इतिहास, धर्म, दर्शन, मानव शास्त्र आदि । विविध विषयों-शास्त्रों से संबद्ध अपनी बहुज्ञता, व्याप जीवनानुभव, विशाल समाजदर्शन तथा प्रतिद्ध प्रगतिशील सोच का उपयोग रांगेय राघव ने अपने लेखन में बड़ी गंभीरता से किया है।

प्रगतिवादी व समाजवादी दर्शन के समर्थक रहे रांगेय राघव अपने जीवन में, अपने व्यहार में तथा अपने लेखन में सदा पीड़ित मानवता के पक्षधर बने रहे। दलित-पीड़ित-गलित समाज के दुःख-दर्द को करीब से देखने वाले, इस समा के बीच जाकर इसका प्रत्यक्ष अनुभव करने वाले इस मानवतावादी लेखक-कवि की लेखनी पूरी तरह मनुष्यता के प्रति प्रतिद्ध व समर्पित रही। टैगोर कहते हैं कि लेखक- कवि स्वयं पीड़ित न हो तो भी उन्हें पीड़ित मानवता का पक्षधर होना ही चाहिए। रांगेय राघ की संवेदना भी हमेशा पीड़ित शोषित लोगों के साथ ही रही है। डॉ. पद्‌मसिंह शर्मा कमलेश’ ने लिखा है- “बहुत क लोगों को ज्ञात होगा कि रांगेय राघव जेठ की तपती दुपहरी में गरीब मजदूरों की बस्तियों में चक्कर लगाते थे जिससे कष्टों का अनुभव स्वयं कर सकें। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि ऐसे प्रत्यक्ष संपर्क के बिना जनवादी लेख नहीं बना जा सकता है” [दृष्टव्य - रांगेय राघव के उपन्यासों में प्रगतिशील चेतना, डॉ. कैलाश प्रकाश सिंह, पृ 32]

परसाई जी का लेखन चाहे कथा-कहानियों के ढाँचे में हो या निबंध के ढाँचे में, उसका मूल स्वभाव व्यंग्य हैहिन्दी में एक लम्बे अरसे तक और विपुल मात्रा में लिखा गया उनका साहित्य आज हिन्दी व्यंग्य का एक बहुत बड़ा पर्याय बना हुआ है। सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक आदि मूल्यगत विसंगतियों से उनका व्यंग्य समृद्ध रहा है। वैसे तो स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी व्यंग्य लेखकों में परसाई के अलावा शरद जोशी, लतीफ घोंघी, गोपाल चतुर्वेदी, सुदर्शन मजीठिया, नरेंद्र कोहली, गोपाल बाबू शर्मा आदि की लेखनी बराबर चलती रही है। इन हस्ताक्षरों  का हिन्दी व्यंग्य को वेधक व व्यंजक बनाने में विशेष योगदान रहा हैआज इस दिशा में और भी कई लेखक अग्रसर हैं।

दरअसल परसाई जी की दृष्टि व लेखन ने हिन्दी व्यंग्य को एक नये अंदाज के साथ विशेष पहचान दिलाई। “परसाई मानते हैं कि जिम्मेदार लेखक समाज की बुराई बताएगा ही। वे उन लेखकों को निहायत गैर जिम्मेदार मानते हैं जो कला के नाम पर बीमार समाज पर रंग पोतकर उसे खूबसूरत बनाकर पेश कर दे वे मुक्तिबोध की इस उक्ति से कि ‘जैसा जीवन है उससे बेहतर चाहिए। सारा कचरा साफ करने को मेहतर चाहिए’ सहमत दिखते हैंमेहतर होना अपने आप में कोई बुराई नहीं है, न तो यह निराशावादी होना है, न बुराई का प्रेमी होना है, न नकारात्मक दृष्टि हैयह जीवन की वास्तविकता का खुले तौर पर सामना करना है” [व्यंग्य विचेचन, डॉ. श्याम सुंदर घोष, पृ. 63)

व्यंग्यकार, मतलब पूर्णतः यथार्थवादी। पूरी तरह अपने सामाजिक जीवन के अनुभवों व सरोकारों को ही साथ लेकर लेखन यात्रा करने वाला रचनाकार, जो अपने लेखकीय व सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करने में कभी पीछे नहीं रहता। हरिशंकर परसाई के कृत्तित्त्व के कण्टेण्ट में हम देखते हैं कि जीवन व समाज की विविध यथार्थ स्थितियों के चित्रण में व्यंग्य ही लेखक की मूल दृष्टि रही, मूल विचार व शैली रही। इस तरह व्यंग्य ही परसाई के लेख का उद्देश्य रहा। अपने एक वक्तव्य में परसाई जी ने कहा था कि - “मैं दूसरे महायुद्ध की समाप्ति और भारत की स्वाधीनता प्राप्ति के समय पैदा हुआ लेख हूँ। अपने देश में आज़ादी के बाद मोहभंग होने में बहुत साल नहीं लगे । जिन मूल्यों के लिए हम आजादी की लड़ाई लड़े थे, उनका तेजी से मिटना मैंने देखा और भोगा है। शासक वर्ग का नैतिक पतन, भ्रष्टाचार, दोगलापन, पाखंड, मिथ्याचार, छल, कपट, फरेब, स्वार्थपरता – नंगे होकर सामने आये। .... इस देश का आदमी लगातार ठगा गया ।” [हिन्दी कहानी का इतिहास-2, गोपाल राय, पृ. 63]

रांगेय राघव और हरिशंकर परसाई उभय ने अपने विपुल और बहुआयामी लेखन से हिन्दी साहित्य को इतना समृद्ध प्रभावित किया है कि उनके समस्त अवदान का सम्यक् मूल्यांकन उतना आसान नहीं है। वैसे सीमित समय व पृष्ठ संख्या में, एक छोटे से अं के माध्यम से दोनों सर्जकों के सृन के विविध पक्षों-पहलुओं को बताना संभव नहीं है। हमने तो यहाँ उनके लेखन से संबद्ध कतिपय बिंदुओं को ही प्रस्तुत करने का, उन पर थोड़ा विचार करने का एक छोटा-सा प्रयास किया है। प्रस्तुत अंक में प्रकाशन हेतु जिन सर्जकों एवं अध्येताओं का सृजन-लेखन हमें प्राप्त हुआ उन तमाम के प्रति हम हृद‌यतल से आभार ज्ञापित करते हैं। साथ ही जि लेखकों-संपाद‌कों की पुस्तकों व पत्रिकाओं की साम‌ग्री इस अंक के लिए विशेष उपयोगी रही है, खासकर साहित्य-संदेश पत्रिका का ‘रांगेय राघव स्मृति अंक’ [जनवरी-फरवरी 1963 ], वर्तमान साहित्य पत्रिका का रांगेय राघव विशेषांक’ [फरवरी-मार्च 2005] तथा परसाई रचनावली के हम ऋणी हैं। उक्त दोनों विशेषांकों तथा परसाई रचनावली से कुछ विषय सामग्री तथा कुछ हस्तलिपि के नमूने तथा छायाचित्रों को साभार हमने अपने इस अंक में दिया है

 


3 टिप्‍पणियां:

  1. ज्ञानवर्धक-सुदर्शन रत्नाकर

    जवाब देंहटाएं
  2. रांगेय राघव जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विषय में विविध सामग्री से सुसज्जित ज्ञानवर्धक,प्रेरणादायी,शानदार ,पठनीय एवं संग्रहणीय अंक। सम्पादक मंडल एवं सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।सुदर्शन रत्नाकर

    जवाब देंहटाएं
  3. संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित 👌🙏

    जवाब देंहटाएं

अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...