रांगेय
राघव का लेखन : सरोकार और उपलब्धियाँ
प्रो.
हसमुख परमार
रांगेय राघव के जीवनकाल तथा उस दौरान
हिन्दी समाज को उनके साहित्यिक सृजन व चिंतन संबंधी अवदान की चर्चा के प्रसंग में
हिन्दी की महान प्रतिभा भारतेन्दु हरिश्चंद्र का स्मरण स्वाभाविक है । महज 34-35 वर्षों के अपने जीवनकाल में अभूतपूर्व साहित्यिक
गतिविधियों से इस प्रतिभा ने आधुनिक हिन्दी साहित्य के विकास के लिए एक ठोस जमीन
तैयार की । ठीक इसी तरह रांगेय राघव ने भी अपने 39 वर्षों के
छोटे-से जीवन सफ़र (1923-1962/ उनकी
सृजन यात्रा लगभग 1936 से प्रारंभ हुई जो मृत्युपर्यंत जारी
रही ) में लगभग डेढ़-सौ कृतियों के सृजन-लेखन से हिन्दी जगत को समृद्ध किया । हाँ,
ये बात अलग है कि अपने इस विशाल व मूल्यवान अवदान के एवज में उन्हें उतनी जगह, उतनी
लोकप्रियता तथा उतनी केन्द्रीयता नहीं मिल सकी जितनी उन्हीं की ऊँचाई के अन्य
सर्जकों को मिली, जबकि रांगेय राघव भी इसके लिए उतने ही हकदार थे। “रांगेय राघव बड़ी मात्रा में लिखने के बाद भी उपेक्षित
रहे । उन्हें हाशिये पर धकेल दिया गया । उनकी कई महत्वपूर्ण रचनाओं के दूसरे
संस्करण नहीं हुए और उनकी अनुपलब्धता भी पाठकों और लेखकों को मुश्किल में डालती है
।” [‘संपादकीय से’, रांगेय राघव विशेषांक; वर्तमान साहित्य
पत्रिका, फरवरी-मार्च 2005] असल में
हिन्दी के कई अध्येताओं-विद्वानों द्वारा भी रांगेय राघव की लेखनी को कम आँकने का
प्रयत्न होता रहा, इतना ही नहीं इन अध्येताओं के कई आरोपों-आक्षेपों का भी शिकार
इस लेखक को होना पड़ा । “रांगेय राघव हिन्दी के उन प्रतिभाशाली साहित्यकारों में
से एक हैं, जिन्हें हाशिए पर ढकेलने की हर मुमकिन कोशिश की
गई । दिग्गजों द्वारा उन्हें ढुलमुल यकीन, मध्यवर्गीय ज़हनियत का साहित्यकार, प्रगतिशील कविता की
पैरोडी करने वाला तथा उनके चिन्तन को लाचर और उलझा हुआ घोषित करके उन्हें एक
किनारे कर दिया गया ।” [रांगेय राघव
विशेषांक, पृ. 527]
हकीकत यह है कि रांगेय राघव बहुमुखी
प्रतिभा के एक आला दर्जे के साहित्यकार हैं। उनके साहित्य के अनेक आयाम हैं। विविध
शैलियों को आत्मसात कर विपुल साहित्य की उन्हों ने रचना की। अपनी मुकम्मिल विचारधारा,
सर्जनात्मक शक्ति, सृजन के प्रति प्रतिबद्धता
आदि के चलते इस सर्जक-समीक्षक ने हिन्दी पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है । अपने
मूल नाम ‘तिरुमल्लै नबांकम वीर राघवाचार्य’ के स्थान पर साहित्य जगत में रांगेय राघव
नाम धारण कर उन्होंने एक कवि, कथाकार, नाटककार, आलोचक, अनुवादक, संपादक,
रिपोर्ताज लेखक, समाजशास्त्री के रूप में एक
विशेष जगह व पहचान कायम की । हिन्दी की प्रगतिशील व जनवादी परंपरा की एक मजबूत
कड़ी, मार्क्सवादी-समाजवादी दर्शन के प्रबल समर्थक एवं साहित्य व समाज के प्रति
पूर्ण समर्पित इस लेखक के लेखन में विषयगत वैविध्य व विस्तार तथा वैचारिक
प्रतिबद्धता अधिक है । इतिहास, पुराण, तत्कालीन
ग्रामीण-शहरी समाज, युगीन यथार्थ, आंचलिक
संस्कृति, ऐतिहासिक-पौराणिक पात्रों का जीवन, दर्शन, भूगोल, समाजशास्त्र,
मार्क्सवादी दर्शन प्रभृति को हम उनके साहित्य में बखूबी देख सकते
हैं । “उनका सृजन जितना व्यापक, विस्तारपूर्ण और बहुआयामी है,
उतना ही गम्भीर, भास्वर और मर्मस्पर्शी है ।
रांगेय राघव अपनी प्रत्येक कृति में चिरन्तन मानवीय मूल्यों के पक्षधर एवं
प्रतिष्ठाता के रूप में प्रस्तुत हुए हैं ।” [ रांगेय राघव की नाट्य कला, निर्मल गुप्ता, पृ. 25]
अपने दैनिक जीवन में रांगेय राघव की पढाई-लिखाई
की प्रवृत्ति के बारे में उनकी धर्मपत्नी से ज्यादा बेहतर कौन बता सकता है । इस
संदर्भ में सुलोचना राघव लिखती हैं – “उपन्यास लिखने से जब उनका मन थफ जाता,
तब वे कहानियों पर उतर आते और उससे भी उबते तो कविता करते । लिखने
से मन जब विरक्त हो जाता, तो अध्ययन में जुट जाया करते थे ।
किताबें पढ़ने का उनका बड़ा मजेदार तरीका था । गंभीर से गंभीर विषयों की पुस्तकों को वे इतना चाट जाते थे कि किस
पृष्ठ पर क्या लिखा है, यह उन्हें अच्छी तरह याद रहता ।” [
रांगेय राघव विशेषांक, पृ. 05]
रांधेय राधव का साहित्य गुणवत्ता और परिमाण
उभय दृष्टि से विपुल और सम्पन्न है । उनके लगभग 39
उपन्यास, 8-10 कहानी संग्रह, 06 काव्य
कृतियाँ, 01 रिपोर्ताज
पुस्तक, 17 आलोचना पुस्तकें, 02
गाथाएँ, 05 नाटक। इसके अतिरिक्त अन्य विषयों- विधाओं से
संबंधित कई पुस्तकें, साथ ही कुछेक संपादित ग्रंथ । अनुवाद
के क्षेत्र में भी रांगेय जी ने खूब कार्य किया ।
हिन्दी कथासाहित्य के विकास में रांगेय
राघव की एक अहम भूमिका रही है । औपन्यासिक रचनाओं की संख्या व विषय वस्तु को लेकर
रांगेय राघव का नाम हिन्दी के प्रमुख उपन्यास लेखकों की सूची में शामिल है। दरअसल
रांगेय राघव की उपन्यास की दुनिया बहुत बड़ी है । संख्या की दृष्टि से उनके
उपन्यासों की गणना दर्जनों के हिसाब से की जाती है । उनके तीन दर्जन से भी अधिक
उपन्यास प्रकाशित हुए हैं, जिनमें घरौंदा, विषादमठ, कब तक पुकारूँ, मुर्दों
का टीला, प्रतिदान आदि विशेष चर्चित रहे हैं । “ रांगेय राघव
का उपन्यास लेखन 1941 ई. में ही, लगभग
अट्ठारह वर्ष की उम्र में ‘घरौंदे ’ से आरम्भ हुआ, जो 1946 ई. में प्रकाशित हुआ। जो बाद में‘ घरौंदा ’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ ।
लेखक के कॉलेज जीवन के अनुभवों पर आधारित
है और परिसर जीवन पर लिखित पहला उपन्यास
।” [ हिन्दी उपन्यास का इतिहास, गोपाल राय, पृ. 212 ] वैसे देखें तो रांगेय राघव की औपन्यासिक
रचनाशीलता का परिपक्व रूप हमें आजादी के बाद के ही लेखन में दिखाई देता है। उनके
उपन्यासों में विषय-शैली-शिल्प व प्रवृत्तिगत विविधता ज्यादा है। ऐतिहासिक,
सामाजिक, प्रगतिवादी, आँचलिक,
जीवनीपरक आदि उपन्यास प्रकारों के अंतर्गत उनके उपन्यासों का
अध्ययन-अनुशीलन किया जाता रहा है।
कथ्य की दृष्टि से बंगाल के अकाल पर आधारित ‘विषादमठ’
उपन्यास को कुछ विद्वान बंकिमचंद्र चटर्जी के ‘आनंदमठ’ से प्रेरित बताते हैं। ‘मुर्दों
का टीला’ एक ऐतिहासिक उपन्यास है, जिसकी कथाभूमि है
मोहनजोदडो की सभ्यता। अपने ऐतिहासिक उपन्यासों में भी रांगेय राघव अपने प्रगतिशील
विचार को लेकर चले हैं। ‘मुर्दों का टीला’
में भी सामाजिक चेतना की झाँकियाँ मिलती
ही हैं। इतिहास के पास जाकर भी ये समाजवादी लेखक वहाँ शोषक-शोषित के संघर्ष को
अनदेखा नहीं करता। “प्रस्तुत उपन्यास में कथानक बहुत ही रोचक और वेगवान होकर आया
है। वह शोषक व्यवस्था के जन-जीवन के संघर्ष की कहानी है।” [ हिन्दी उपन्यास एक
अंतर्यात्रा, रामदरश मिश्र, पृ. 215]
हिन्दी कथासाहित्य को प्रेमचंद की संवेदना
व सरोकारों से प्रभावित होते हुए विकसित करने वाले कथा लेखकों में रांगेय राघव का
नाम भी आगे रहा है । प्रसिद्ध मार्क्सवादी समीक्षक डॉ. शिवकुमार मिश्र के विचार से
“रांगेय राघव प्रेमचंद की विरासत में बहुत कुछ नया और सार्थक जोड़ने वाले
प्रगतिशील रचनाकार के रूप में जाने जाते हैं। उनके मार्क्सवादी चिंतन में कुछ
अंतर्विरोध भी रहे हैं, जिनके चलते उनकी कुछ
मान्यताएँ विवादास्पद भी रही हैं। फिर भी निसंदेह यह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद
की परंपरा और विरासत को बड़ी समर्थ लेखनी के माध्यम से रांगेय राघव ने न केवल
संरक्षित किया है , बल्कि उनकी रचनाशीलता में गुणात्मक
समृद्धि भी दिखाई पड़ती है।” [मार्क्सवादी समीक्षक डॉ. शिवकुमार मिश्र, डॉ. भरतसिंह झाला, पृ. 217]
रांगेय राघव की औपन्यासिक रचनाओं में ‘ कब
तक पुकारूँ’ सर्वाधिक चर्चा में रही । प्रस्तुत उपन्यास की कथा मूलतः ब्रज प्रदेश
के एक भूभाग से जुड़ी है, जिसमें नट जाति के जीवन का
यथार्थ चित्रण है । कई अध्येताओं ने इस उपन्यास को आंचलिक उपन्यासों की श्रेणी में
रखा है । “इस उपन्यास में करनट कबीलों के
जीवन यथार्थ के अनेक पक्षों-निर्धनता, खानाबदोशी, स्वच्छंद जीवन शैली, जीवट, विशेष
प्रकार के जीवनमूल्य, एक विशेष प्रकार की संस्कृति, ब्रिटिश शासन में जरायमपेशा जाति के रूप में उपेक्षित जीवन जीने की विवशता,
पुलिस द्वारा किये जाने वाले अत्याचार, उनकी
स्त्रियों के यौन शोषण आदि का अत्यंत यथार्थ और मार्मिक अंकन किया गया है ।” [ हिन्दी
उपन्यास का इतिहास, गोपालराय, पृ. 214]
दलित विमर्श के अंतर्गत हिन्दी उपन्यासों पर विचार करते हुए
गोपालराय इस उपन्यास के संबंध में यह भी लिखते हैं कि सबसे पहले रांगेय राघव ने ‘कब
तक पुकारूँ’ में एक पूरी दलित जाति के जीवन यथार्थ को उपन्यास का विषय बनाया । कुल
मिलाकर प्रस्तुत उपन्यास की कथा में आँचलिकता तथा लेखकीय दृष्टि में यथार्थता,
साथ ही उपन्यास की भाषा उपन्यास को सार्थकता प्रदान करती है ।
हिन्दी कहानी के क्षेत्र में भी रांगेय राघव का
योगदान महत्वपूर्ण रहा है । उनके लगभग आठ-दस कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं । विशेष
उल्लेखनीय कहानी- संग्रह हैं- इंसान पैदा हुआ, अंगारे न
बुझे, ऐयाश मुर्दे, काल विजय, पाँच गधे, तूफानों के बीच तथा एक छोड़ एक । लेखकीय सामाजिक सरोकार, संवेदनागत
वैविध्य व कहानी कला के लिहाज से इन
संग्रहों की कई कहानियाँ ऊँचे दर्जे की कहानियाँ हैं । रामकली सर्राफ लिखते हैं- “अपने युगबोध और रचना संदर्भों के बीच समान रूप
से ईमानदारी का निर्वाह करते हुए उन्हों ने लगभग 80-85
कहानियाँ लिखीं और एक सच्चे लेखक के रूप से सामने आये । उनकी कहानियाँ लेखकीय संवेदना,
जीवनानुभव और युगजन्य विसंगतिबोध का परिणाम है । जीवन की कठिन
संघर्षशील स्थितियों की यथार्थता और चरित्रों का संवेदनात्मक क्रियाविधान परस्पर
अन्तर्सबद्ध है ।” [रांगेय राघव विशेषांक, पृ. 238]
रांगेय राघव की कहानियाँ,
चाहे किसी भी परिवेश को लेकर लिखीं गई हो पर उसका मूल उद्देश्य तो सामाजिक
यथार्थ व प्रगतिवादी दृष्टिकोण को ही प्रस्तुत करना रहा है । “रांगेय राघव की
कहानियों में निम्न वर्ग का जीवन संघात अत्यधिक मार्मिक बनकर प्रकट हुआ है ।
प्रागैतिहासिक आधार पर भी आपने प्रगतिशील दृष्टिकोण से कई कहानियाँ लिखी हैं ।”
[हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ. विजयपाल सिंह, पृ. 255]
कथ्य की दृष्टि से रांगेय राघव की कहानियाँ
इकहरी नहीं हैं । सामाजिक जीवन यथार्थ, राजनीतिक
संदर्भ, ऐतिहासिक-पौराणिक कथा जगत तथा मनुष्य के साथ- साथ
मनुष्येतर सृष्टि की भी मौजूदगी इस कहानीकार के यहाँ मिलती है । “इनकी कहानियों
में समाज, राजनीति, इतिहास, पुराण, मानव, पशु आदि सभी को
समुचित स्थान मिला है । सामाजिक कहानियों में पाखंड, व्यभिचार,
गरीबी, धोखा-धडी, विवशता आदि कुरीतियों का
पर्दा लेखक ने बड़े जागरूक होकर खोला है।” [हिन्दी कहानी : बदलते प्रतिमान, डॉ.रघुवीर
दयाल वार्ष्णेय, पृ. 100-101] कहानीकार
रांधेय राधव ने अपनी ‘नारी का क्षोभ’, गदल आदि कई कहानियों
में स्त्री संवेदना व स्त्री चेतना के विविध पक्षों को रेखांकित किया है । समाज के
खोखले आदर्शों के साथ-साथ मनुष्य की हृदयगत सुंदरता व कुरूपता आदि की व्यवस्थित
प्रस्तुति को लेकर उनकी नरक, साँझ के शिकारी, ऊँट की करवट, मुफ्त का इलाज, अंगारे
न बुझे जैसी कहानियों को देखा जा सकता है । मार्क्सवादी विचारधारा के प्रबल समर्थक
इस लेखक की ‘ बिल और दाना ’ नामक कहानी, लेखक की इस
विचारधारा से अधिक प्रभावित रही है। “बिल और दाना एक सुन्दर प्रतीकात्मक कथा है, जिसमें शोषण का
स्वरूप उभरकर आया है । इस कहानी के माध्यम से द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का भी प्रचार
हो गया है । वस्तुतः मार्क्सवाद से पूर्ण प्रभावित होने पर भी इन्हों ने इसमें
देशकाल के अनुसार परिवर्तन कर दिया है ।” [वही, पृ. 101]
रांगेय राघव की ‘गदल’ कहानी तो हिन्दी की बहुचर्चित कहानियों में से
एक है । इस एक कहानी ने रांगेय राघव को विशेष रूप से हिन्दी कहानीकारों की शीर्ष
पंक्ति में स्थान दिलाया । यह राजस्थान के गूर्जर जाति के पारिवारिक संबंधों की एक
मार्मिक और हिला देने वाली कहानी है । इसी तरह ‘दरवाजा’ और ‘माता की मजबूरी’
शीर्षक दो कहानियाँ भी विशेष महत्वपूर्ण हैं । स्त्री केंद्रित इन कहानियों में
यथार्थ बखूबी उभरकर सामने आता है । “ माता की मजबूरी, कुमारी
माँ की बेबसी की कहानी है , जो बलात्कार का शिकार होकर माँ
बनती है और बच्चे के भविष्य की कल्पना कर उसकी हत्या कर देती है । मातृवत्सलता और
सामाजिक वर्जना का द्वंद्व गहरी करुणा पैदा करने वाला है । यह कदाचित रांगेय राघव
की अंतिम कहानी है और ‘गदल’ के बाद की सबसे अच्छी कहानी है ।” [ हिन्दी कहानी का
इतिहास, गोपाल राय, पृ. 224 ]
बतौर कवि भी रांगेय राघव ज्यादातर
प्रगतिवादी काव्य संवेदना के साथ ही अपनी कविताओं में उपस्थित रहे हैं ।
काव्यरूपों या काव्यशैलियों को लेकर उन्हों ने प्रबंध व मुक्तक दोनों रूपों को
विकसित किया। “रांगेय राघव की कविताओं में समाजवादी चिन्तन और अनुप्राणित सामाजिक
संवेदना की शक्ति है । ‘राह के दीपक’ की कविताओं में युगीन यथार्थ के संदर्भ में
प्रकृति छवि का भी अंकन किया गया है ।” [हिन्दी साहित्य का इतिहास,
डॉ. नगेन्द्र, पृ. 634]
दरअसल रांगेय राघव उन कवियों में शीर्षस्थ
कहे जा सकते हैं जो अपनी प्रगतिवादी दृष्टि व मार्क्सवादी वैचारिकी और काव्यगत ईमानदारी
व प्रतिबद्धता को लेकर ज्यादा गंभीर रहे । अजेय खंडहर [1944],
मेधावी [1947] और पाँचाली [1955] उनकी कृतियाँ है । “मेधावी चिंतन प्रधान काव्य है । इसमें दर्शन, भूगोल, इतिहास, काव्य, समाजशास्त्र आदि का समावेश है । पाँचाली में धर्मराज युधिष्ठिर और पाँचाली
के चरित्रों के माध्यम से नारी, समाज, राष्ट्र,
वर्ण, राज्यतंत्र, प्रेम,अहिंसा
आदि से संबद्ध महत्वपूर्ण समस्याओं पर विचार व्यक्त किए हैं ।” [ आधुनिक हिन्दी
साहित्य का इतिहास, बच्चन सिंह. पृ. 256]
सामाजिक यथार्थ को बड़ी संजिदगी से अपनी
रचनाओं में रेखांकित करने वाले कवि रांगेय राघव ने विविध सामाजिक समस्याओं में ‘ स्त्री
जीवन को भी विशेष महत्च देते हुए अपनी काव्य कृतियाँ में एक तरह से स्त्री विमर्श
के ही लिहाज से हमारे कई ऐतिहासिक-पौराणिक नारी चरित्रों के माध्यम से स्त्री जीवन
की महत्ता को विस्तार से निरूपित किया है । मसलन, ‘पाँचाली’
प्रबंधकाव्य को कुछ विद्वानों ने स्त्री विमर्श के परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित
किया है । प्रस्तुत काव्य की कुछ पंक्तियाँ देखिए -
“वह पाँचाली है नहीं द्रुपद की दुहिता
वह
तो नव युग के नव प्रभात की सविता !
वह
ही तो अंतिम आहुति मर्यादा की
जिसके
हित के हरी नाद उठेगा भीषण !
वह
ही तो इन तूफानों में भी जलती
है
अबूझ एक ही दीपशिखा जीवन की ।”
[दृष्टव्य - रांगेय राघव विशेषांक, पृ.523]
आधुनिक युग में विकसित विविध गद्य विधाओं
में एक गद्य विधा रिपोर्ताज भी है । असल में रिपोर्ट में कलात्मकता-साहित्यिकता का
संस्पर्श ही रिपोर्ताज है । इसमें एक तरह से रेखाचित्र, संस्मरण व यात्रा वृत्तांत
जैसे साहित्य रूपों की शैलियों का भी योग रहता है । हिन्दी रिपोर्ताज के विकास में
भी रांगेय राघव का विशेष योगदान रहा है । सन् 1946 में
इनका ‘तूफानों के बीच’ शीर्षक से बंगाल के अकाल पर आधारित एक मर्मस्पर्शी रिपोतार्ज
प्रकाशित हुआ । “रांगेय राघव ने बंगाल में जो कुछ भी अपनी आँखों से देखा, कानों से सुना, प्रगतिशील सोच से महसूस किया,
उसे अपने रिपोर्ताजों के माध्यम से लोगों के सामने रखा । उनकी तीव्र
दृष्टि और गहन विश्लेषण शक्ति ने तथ्यों को उभारा ।” [वही पृ.506] लेखक के मानवीय सरोकारों व सहानुभूति,
साथ ही कलात्मक भाषाशैली ने इस कृति को अत्यंत मार्मिक व हृदयग्राही
बना दिया है । पुस्तक की भूमिका में लेखक लिखते हैं – “ बंगाल का अकाल मानवता के
इतिहास का बहुत बड़ा कलंक है । शायद क्लियोपेट्रा भी धन के वैभव और साम्राज्य की
लिप्सा में अपने गुलामों को इतना भीषण दुख नहीं दे सकी, जितना
आज एक साम्राज्य और अपने ही देश के पूँजीवाद ने बंगाल के करोडों आदमी, औरतों और बच्चों को भूखा मार दिया है । ”
कथाकार, कवि एवं
आलोचक की तुलना में एक नाटककार के रूप में रांगेय राघव की चर्चा थोड़ी कम ही होती
रही है । विरूढक, इन्द्रधनुष, स्वर्गभूमि
का यात्री, रामानुज, आखिरी धब्बा जैसी
नाट्यकृतियाँ तथा हातिम मर गया एकांकी के लेखन द्वारा रांगेय राघव एक नाट्यशिल्पी
के रूप में हमारे सामने आते हैं । वैसे इस तरह की स्वतंत्र पुस्तकें ज्यादा नहीं
हैं जिसमें इस लेखक के नाटककार रूप को गहराई व विस्तार से उजागर किया गया हो ।
निर्मल गुप्ता की पुस्तक ‘रांगेय राघव की नाट्य कला’ में लेखिका ने कथानक,
चरित्र-चित्रण, संवाद, देशकाल,
भाषाशैली, रंगमंचीयता, अभिनय
कला एवं उद्देश्य के अंतर्गत रांगेय राघव के नाटकों व एकांकी का अच्छी तरह से
तात्त्चिक विवेचन किया है ।
रांगेय राघव का नाम हम हिन्दी के उन गिने
चुने हस्ताक्षरों की पंक्ति में रख सकते हैं जिनका कद सृजन व समीक्षा दोनों
क्षेत्रों में लगभग बराबर रहा है। सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक,
दोनों तरह की आलोचना से रांगेय राघव जुड़े रहे। उनके आलोचना कर्म से
गुजरने पर हम एक तथ्य यह भी पाते हैं कि उनकी आलोचक दृष्टि साहित्य के साथ साथ
इतिहास और संस्कृति पर भी बराबर रही है । संख्या की दृष्टि से देखें तो रांगेयजी
की आलोचना विषयक लगभग सत्रह पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। “रांगेय राघव ने 1946 से 1962 तक मात्र 17 वर्षों
में इन आलोचनात्मक कृतियों का प्रणयन किया है । यानी प्रतिवर्ष एक। यह किसी भी
आलोचक के लिये स्पृहणीय है।” [वही पृ. 402] कुछेक नाम -
प्रगतिशील साहित्य के मानदंड, काव्ययथार्थ और प्रस्तुति,
समीक्षा और आदर्श, काव्य, कला और शास्त्र, आधुनिक हिन्दी कविता में प्रेम और
शृंगार, आधुनिक हिन्दी कविता में विषय और शैली, गोरखनाथ और उनका युग, भारतीय संत परंपरा और समाज,
भारतीय पुनर्जागरण की भूमिका, तुलसीदास का कथा
शिल्प, महाकाव्य विवेचन ।
रांगेय राघव की आलोचना का शायद ही कोई ऐसा
पाठक होगा जो इस बात से अनभिज्ञ रहा हो कि प्रगतिशील दृष्टि-समाजशास्त्रीय
प्रतिमान ही रांगेय राघव के आलोचना कर्म की नींव रही है । “रांगेय राघव जन कल्याण,
विश्वप्रेम, मानवतावाद से युक्त साहित्य को ही प्रगतिशील साहित्य मानने के पक्ष में
हैं । रांगेय राघव ने भक्तिकाल के कवियों एवं आधुनिक काल के साहित्यकारों की
कृतियों की आलोचना प्रगतिशीलता के मानदंडों पर की है। इस समीक्षा के दौरान इन्हों
ने अपनी दृष्टि को मानवीय रखा है ।” [हिन्दी आलोचना की परंपरा और शिवकुमार मिश्र,
डॉ. सितारे हिन्द, पृ.77]
अंत में, हम कह सकते हैं कि प्रगतिवादी व
मानवतावादी मूल्यों से संपन्न एक बड़े हिन्दीसेवी व साहित्यसेवी रांगेय राघव का
कृतित्व बहुत विशाल है। हमने प्रारंभ में बताया है कि रांगेय राघव ने विविध विधाओं
में लगभग १५० ग्रंथों की रचना की। उनके लेखन में विषयगत पर्याप्त वैविध्य है। अपनी
रचनाओं में अनेक विषय बिंदुओं को स्पर्श करने वाले इस सर्जक व विचारक की दृष्टी तो
अंततः और मूलतः प्रगतिवादी ही रही । एक साहित्यकार के रूप में वे इसी मुकम्मिल
विचारधारा तथा ‘कला कला के लिए’ के नहीं, अपितु ‘कला जीवन के लिए ’ के ही पक्षधर
थे । उनकी लेखनी व जीवनी दोनों ने यह प्रमाणित किया कि वे ताउम्र समाजवादी यथार्थ
के समर्थक और पीडित मानवता के पक्षधर रहे। यही कारण है कि सामाजिक दायित्व के
निर्वाह एवं मानवीय मूल्यों की स्थापना की दृष्टी से रांगेय राघव का लेखन सफल और
सार्थक रहा हैं। इसी वैशिष्ट्य के चलते हिन्दी के इस महान साहित्यसेवी की साहित्य
साधना सदैव स्मरणीय रहेगी, प्रासंगिक रहेगी ।
प्रो.
हसमुख परमार
स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग
सरदार
पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर
गुजरात – 388120
रांगेय राघव का मूल्यांकन करता सशक्त आलेख। इसमें कोई संदेह नहीं कि हिंदी आलोचना ने रांगेय जी के साथ न्याय नहीं किया।उनके लेखन का सम्यक मूल्यांकन नहीं किया गया।आपका आलेख उनके कृतित्व का हर दृष्टि से मूल्यांकन कर रहा है। बधाई स्वीकारें
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