मंगलवार, 26 मार्च 2024

विवेचन

स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी व्यंग्य की विशिष्ट उपलब्धि हरिशंकर परसाई

डॉ. पूर्वा शर्मा

“छूटने लगे अविरल गति से

जब परसाई के व्यंग्य बाण

सरपट भागे तब धर्म ध्वजी

दुष्टों के कंपित हुए प्राण।। ”1

        नागार्जुन

हिन्दी साहित्य जगत में व्यंग्य की प्रवृत्ति या लेखन के व्यंग्यात्मक स्वभाव को लेकर हरिशंकर परसाई के लिए हम चाहे उतने विशेषणों का प्रयोग कर सकते हैं। जैसे – हिन्दी व्यंग्य के पर्याय, हिन्दी व्यंग्य साहित्य के प्रमुख सशक्त हस्ताक्षर, स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी व्यंग्य के पुरोधा, हिन्दी व्यंग्य विधा की विशेष उपलब्धि प्रभृति। सर्वविदित है कि व्यंग्य ही परसाई जी की बुनियादी पहचान है, बड़ी पहचान है। दरअसल व्यंग्य ही जिनकी सर्जनात्मक प्रतिभा व शक्ति रही। ऐसे सर्जकों, जिन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से अपने समकालीन ही नहीं अपितु परवर्ती सर्जकों को, और सर्जकों को ही नहीं बल्कि बृहद् पाठक वर्ग को भी चेतना संपन्न करने का प्रयास किया, ऐसे सर्जकों की फेहरिस्त में शीर्षस्थ नाम है हरिशंकर परसाई का।

22 अगस्त, 1924 को जमानी, जिला होशंगाबाद, मध्यप्रदेश में जन्मे हरिशंकर परसाई जी को इस समय उनके जन्म शताब्दी वर्ष पर हम याद कर रहे हैं। परसाई जी का स्मरण अथवा तो परसाई जी को पढ़ना मतलब व्यंग्य की शक्ति से परिचित होना, समू‌चे व्यंग्य विमर्श को जानना-समझना, लेखक की पूर्णत: सामाजिक प्रतिबद्धता को देखना, लेखक के सत्य कहने के साहस एवं उनकी स्वस्थ जीवन-दृष्टि को देखना। एक लेखक अपने समय के साथ-साथ अपने समय से भी कितना आगे चल सकता है अर्थात् अपने समय-समाज से जितना जुड़ा हुआ उतना ही दूरदर्शी दृष्टि से संपन्न, इसका उत्तम उदाहरण है – हरिशंकर परसाई।

सर्वविदित है कि साहित्य समाज की वास्तविक स्थिति को हमारे सामने प्रस्तुत करता है। किसी देश की वास्तविक स्थिति, उसके मूल्यों, रीति-रिवाज आदि का वर्णन उसके साहित्य में झकलता है। डॉ. नामवर सिंह ने तो यहाँ तक कह दिया है कि अगर स्वाधीन भारत को कोई समझना चाहता है, यदि पिछले पचास वर्षों के भारत को आप जानना चाहते हैं तो अकेले एक लेखक हरिशंकर परसाई जी की रचनावली पर्याप्त है, यह काम न यशपाल के उपन्यास पूरा करते हैं, न अमृतलाल नागर के उपन्यास करते हैं। एक परसाई ने निबन्धों के माध्यम से जो काम किया है, कथाकार सारे के सारे नहीं कर सके।

हिन्दी साहित्य पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो परसाई जी से पहले कबीर, भारतेन्दु, निराला, नागार्जुन, धूमिल आदि कई नाम तथा परसाई जी के समकालीनों में श्रीलाल शुक्ल, शरद ‌जोशी आदि, इसी क्रम में परसाई जी के परवर्ती काल में भी अनेकों नाम मिलते है जो व्यंग्य के माध्यम से लोक शिक्षण व समाज सुधार के कर्म से जुड़े रहे। डॉ. नामवर सिंह ने कान्ति कुमार जैन को अपने पत्र (1970) में लिखा था – “परसाई जी पिछले चार दशक से सबसे महत्त्वपूर्ण गद्य लेखक हैं जिन्होंने इतने बड़े पैमाने पर पाठकों में प्रगतिशील और स्वस्थ चेतना जगाने का काम किया है। पाठकों को शिक्षित बनाने की दिशा में ऐसा सशक्त प्रयास शायद ही किसी अन्य लेखक ने इस बीच किया हो।”2  

अपनी अत्यधिक सामाजिक प्रतिबद्धता के कारण व्यंग्य वृति-प्रवृत्ति एवं व्यंग्य विधा का साहित्य में विशेष महत्त्व रहा है। हम देखते हैं कि हिन्दी साहित्य में एक प्रवृत्ति व शैली के रूप में व्यंग्य की मौजूदगी बहुत पहले से रही है, परंतु व्यंग्य को शैली-प्रवृत्ति के साथ-साथ ही विधा के रूप में स्थापित करने का श्रेय तो परसाई जी को ही जाता है। अपनी तर्क शक्ति एवं व्यापक जीवनानुभव, यथार्थ दृष्टि व लेखकीय कौशल से परसाई जी ने व्यंग्य को नये तेवर दिए, विशेष पहचान दी। परसाई जी ने स्वयं कहा है कि – “मुझे इसकी चिन्ता नहीं कि किस विधा में लिख रहा हूँ या मैं उस विधा के नियम मान रहा हूँ या नहीं, कुछ लोग कहते भी थे कि ये लिखते हैं कहानियाँ, लेकिन ये कहानी की परिभाषा में नहीं आता। तो मैं उनसे कहता था कि आप कहानी की परिभाषा बदल दीजिये। तो मैंने इन विधाओं के स्ट्रक्चर को उनकी बनावट को भी तोड़ा और परंपरा से जो रीति चली आ रही थी उसको भी मैंने तोड़ा एक नये प्रकार से।”3

विसंगति, विसंवादिता, विषमता, विद्रूपता, विकलांगता जैसी बिमारियों से ग्रस्त समाज को, अस्वस्थ समाज को स्वस्थ करने हेतु व्यंग्यकार मानो अपनी एक चिकित्सक की भूमिका का अच्छी तरह से निर्वाह करता है। इस जगत-जीवन में फैली विसंगतियों को दूर करना, उसमें सुधार लाना ही व्यंग्य का प्रयोजन होता है। व्यंग्यकार यथार्थवादी घटनाओं को बड़ी ही कलात्मकता से प्रस्तुत करता है। इस कलात्मकता में परसाई जी का कोई सानी नहीं। परसाई जी ने अपनी कहानियों के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों-कुरीतियों पर गहरी चोट की है।

सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, शैक्षिक प्रभृति क्षेत्रों में एक सुनियोजित व्यवस्था है, एक अनुशासन है। इन क्षेत्रों से जुड़े लोगों द्वारा इस तरह की व्यवस्था व अनुशासन का अच्छी तरह से निर्वहण हो तो उनके लिए, समाज के लिए, राष्ट्र के लिए सुख-सुकून, आनंद-मंगल है परंतु लोगों का व्यवहार इससे विपरीत हो तो समाज के प्रति, राष्ट्र के प्रति, जीवन के प्रति प्रतिबद्ध सर्जक-एक जागरुक लेखक की वाणी से, उनकी कलम से व्यंग्य की पैनी धार प्रकट होती है। कहने का मतलब यह कि समाज में, समाज के किसी क्षेत्र में जो होना चाहिए वह न होकर जो नहीं होना चाहिए वह जब होता है तो व्यंग्य की सृष्टि होती है।

परसाई जी के शब्दों में – “व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है, जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखंडों का पर्दाफाश करता है। यह नारा नहीं है। मैं यह कह रहा हूँ कि जीवन के प्रति व्यंग्यकार की उनकी ही निष्ठा होती है, जितनी किसी भी गंभीर रचनाकार की - बल्कि ज्यादा ही। वह जीवन के प्रति दायित्व का अनुभव करता है।.....ज़िंदगी बहुत जटिल चीज है। इसमें खालिस हँसना या खालिस रोना जैसी चीज नहीं होती। बहुत-सी हास्य रचनाओं में करुणा की अंतर्धारा होती है।..... अच्छा व्यंग्य सहानुभूति का सबसे उत्कृष्ट रूप होता है।”4  

‘व्यंग्य क्यों? कैसे? किस लिए?’ शीर्षक अपने एक लेख में परसाई जी लिखते हैं – “सच्चा व्यंग्य जीवन की समीक्षा होता है। वह मनुष्य को सोचने के लिए बाध्य करता है। अपने से साक्षात्कार करता है। चेतना में हलचल पैदा करता है और जीवन में व्याप्त मिथ्याचार, पाखंड असामंजस्य और अन्याय से लड़ने के लिए उसे तैयार करता है।”5

गद्य की एकाधिक विधाओं में परसाई जी के व्यंग्य की प्रस्तुति देखी जा सकती है। उनके निबंध, कहानी उपन्यास आदि की विषय वस्तु तथा इसे प्रस्तुत करने वाली शैली का आधार ही व्यंग्य है।  ‘ठिठुरता हुआ गणतंत्र’, ‘वैष्णव की फिसलन’, ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’, ‘प्रेमचन्द के फटे जूते’ आदि व्यंग्यात्मक निबंध,  ‘भोलाराम का जीव’, ‘सदाचार का ताबीज’, ‘उखड़े खंभे’, ‘इन्सपेक्टर मातादीन चाँद पर’ आदि कहानियाँ एवं ‘तट की खोज’, ‘रानी नागफनी की कहानी’ उपन्यास के अतिरिक्त ‘तिरछी रेखाएँ’ जैसे संस्मरण आदि में लेखक ने तीक्ष्णता के साथ व्यंग्य को प्रस्तुत किया है।

गद्य की विविध विधाओं में ही नहीं अपितु पत्र-पत्रिकाओं में स्तंभ लेखक के रूप में भी परसाई जी ख्यात रहे। निबंध, कहानियाँ, उपन्यास लेखन के साथ-साथ विविध पत्र-पत्रिकाओं में स्तंभ-लेखन को लेकर भी परसाई जी की कलम निरंतर चलती रही। उन्होंने प्रहरी, वसुधा, आवाज़, जागृति (जबलपुर) परिवर्तन, नई दुनिया (रायपुर), अमर उजाला (बरेली), धर्मयुग (बंबई), साप्ताहिक हिंदुस्तान, कल्पना, सारिका, करंट, कथा यात्रा, माया (दिल्ली) प्रभृति पत्र-पत्रिकाओं में अपने लेख व स्तंभ लिखे हैं। परसाई जी के विविध स्तंभों में – ‘सुनो भाई साधो’ (नई दुनिया), अंत में (कल्पना), कबीरा खड़ा बाजार में (सारिका),मैं कहता आँखन देखी (माया), माटी कहे कुम्हार से (हिन्दी करंट), ये माजरा क्या है (जनयुग), तुलसीदास चंदन घीसे(सारिका), पूछिए परसाई से (देश बंधु)आदि। परसाई जी का मानना था कि वर्तमान युग के लेखक का सबसे बड़ा कर्तव्य लोक-शिक्षण ही है और यही कारण है कि वह लोक-शिक्षण के लिए विभिन्न स्तंभों के लिए लिखते रहे। लोक-शिक्षण का एक उदाहरण देखिए – “तुम्हारे देश के कोई चपरासी या बाबू दफ्तर का कोई सामान काम में ले आता है तो उसे दंड मिलता है। गरीब चपरासी की शादी करने के लिए बड़ी कठिनाई से तीन दिन की छुट्टी मिलती है, मगर अफसर के परिवार में शादी में पूरा मुहकमा छुट्टी और शादी की ड्यूटी पर..”6  

परसाई जी का सुनो भाई साधोस्तंभ कुछ ज्यादा ही लोकप्रिय रहा । एक बहुत बड़े पाठक वर्ग में यह स्तंभ मुख्य चर्चा का विषय रहा। जबलपुर से छपने वाली पत्रिका नयी दुनियामें 1961 से 1982 तक यानी एक लम्बे अरसे तक यह स्तंभ पाठकों के आकर्षण का केन्द्र बना रहा। इस स्तंभ की ख्याति-प्रसिद्धि के बारे में स्वयं परसाई जी बताते हैं – “यह स्तंभ बहुत लोकप्रिय है और जितने प्रशंसक तथा दुश्मन इसने बनाए, उतने मेरे किसी और स्तंभ लेखन ने नहीं। इसकी चोट से बहुत लोग तिलमिलाते हैं और उनकी गालियाँ तथा धमकियाँ भी मुझे मिलती हैं। मगर जन समर्थन मुझे हमेशा आश्वस्त कर देता है।”7

परसाई जी ने हिन्दी व्यंग्य साहित्य के विषय क्षेत्र को ज्यादा विस्तृत व वैविध्यपूर्ण बनाया। अपने युगीन समाज के लगभग सभी क्षेत्रों में परसाई की नुकीली कलम बराबर यात्रा करती रही। उनके साहित्य में समसामयिक जीवन के विषयों की व्याख्या-विवेचना साफ परिलक्षित होती है। समाज, धर्म, राजनीति, शिक्षा, कला, संस्कृति प्रभृति क्षेत्रों में परसाई जी के व्यंग्य की पहुँच रही है। समाज में नारी की शोचनीय दशा एवं उसके प्रति उपेक्षिता का भाव, पीढ़ियों का संघर्ष, धार्मिक जीवन में फैली विसंगतियाँ, साहित्य-शिक्षा-राजनीति संबंधी विचार या यूँ कहा जाए कि जीवन के प्रत्येक पहलू को लेकर उनका सूक्ष्म पर्येवेक्षण उनके व्यंग्य में उजागर हुआ है। 

“विषय के नज़रिये से उन्होंने समकालीन जीवन के हर क्षेत्र – राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक को अपने लेखन की परिसीमा में शामिल किया है। विषय की व्याप्ति की दृष्टि से परसाई का साहित्य अपने आप में विरल है। वे समकालीन यथार्थ के हर पहलू का कोना कोना झाँक आए हैं। यह झाँकना सिर्फ ऊपरी तौर पर ताक-झाँक नहीं है बल्कि यह झाँकना सूक्ष्म व गंभीर दृष्टि के द्वारा समकालीन यथार्थ के हर अंतर्विरोधों की पहचान व पड़ताल से जुड़ा है।”8

समाजदर्शन की दृष्टि से परसाई, कबीर तथा प्रेमचंद परिवार के सर्जक हैं। स्वभाव के मामले में वे कबीर से ज्यादा करीब कहे जा सकते हैं। वैसे भी परसाई जी के सर्वाधिक प्रिय कवियों में सबसे पहले कबीर का नाम ही लिया जा सकता है। इस बात की पुष्टि उनके कई स्तंभों के नाम से भी होती है. जो कबीर काव्य की कुछ प्रमुख पंक्तियों को लेकर है। जैसे – सुनो भाई साधो, कबीरा खड़ा बाज़ार में, माटी कहे  कुम्हार से, कहत कबीर। कबीर की सी तीखी पर खरी बातों को कहने में परसाई पीछे नहीं रहे। कहने का मतलब यह कि परसाई जी के व्यक्तित्व में, उनके लेखन में हम कबीर के प्रभाव को बखूवी देख सकते हैं। किसी ने तो यहाँ तक कह दि‌या कि यदि हरिशंकर परसाई 15 वीं-16 वीं शताब्दी में पैदा होते तो कबीर होते और यदि कबीर बीसवीं शताब्दी में पैदा होते तो हरिशंकर परसाई होते।

परसाई जी की सामाजिक चेतना, प्रगतिशील सोच, समाजसुधार की भावना की जब हम बात करते हैं तब कार्ल मार्क्स – मार्क्सवाद का स्मरण भी स्वाभाविक है। यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि परसाई की व्यंग्य चेतना में कार्ल मार्क्स के प्रभाव को भी  खोजा-देखा जा सकता है।  परसाई जी ने स्वयं इस बात को स्वीकार किया है कि जीवन की सबसे सही व्याख्या कार्ल मार्क्स ने की है और मार्क्सवादी दर्शन सबसे श्रेष्ठ और अंतिम दर्शन है। “परसाई मार्क्सवादी विचारों से प्रेरित है। उन्होंने अपने व्यंग्यों में जैसे जमाखोर की क्रान्ति, अकाल उत्सव, जैसे उनके दिन फिरे, भोलाराम का जीव में पूँजीपति और निम्नवर्ग की कश्मकश पर प्रहार किया है तथा आम आदमी में संघर्ष की भावना को चेताया हैं। परसाई जी अपने व्यंग्यों के द्वारा वर्ग चेतना पर विशेष प्रकाश डालते हैं। वे समाज के पूंजीपति यानी शोषक वर्ग के खिलाफ लिखते हैं।”9

यथार्थ का चित्रण करने में, या यूँ कहिए कि जीवन की, समाज व व्यवस्था की सच्चाई को उजागर करने में व्यंग्य से बेहतर कोई विधा नहीं हो सकती। परसाई जी स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य के एक बेजोड़ व्यंग्यकार के रूप में प्रतिष्ठित है।  उन्होंने न केवल हिन्दी व्यंग्य को एक नई दिशा दी बल्कि सामाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए हर संभव प्रयास किए। उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से आम जनता को सोचने पर मजबूर कर दिया और उन्हें जागरूक एवं शिक्षित करने का कार्य किया है। ‘सच्चा व्यंग्य जीवन की समीक्षा होता है’ – यह बात परसाई जी के व्यंग्य में स्पष्ट दिखाई देती है। अपनी संस्कृति एवं इतिहास, तत्कालीन परिस्थिति और युगबोध का ज्ञान परसाई जी के साहित्य में झलकता है, जो उनके व्यंग्य को और अधिक पैना बनाने में सहायक रहा। स्वातंत्र्योत्तर भारत में परसाई जी ने समाज में एक नई चेतना का संचार किया और हिन्दी व्यंग्य साहित्य को एक नई ऊँचाई प्रदान की। बेशक परसाई जी हिन्दी व्यंग्य जगत की विशिष्ट उपलब्धि है।  

संदर्भानुक्रम –

1 वसुधा, कमला प्रसाद-सं., अंक-41,जून 1998, हरिशंकर परसाई पर विशेष, पृ. 13

2 तुम्हारा परसाई, कान्ति कुमार जैन, पृ. 64

3 हंस, अक्टूबर 1994, पृ. 16

4 सदाचार का ताबीज, भूमिका से, पृ. 10

5 गद्य कोश (gadyakosh.org)से साभार

6 परसाई रचनावली-6,  पृ. 36

7 कहत कबीर, परसाई रचनावली-6,  पृ. 246

8 परसाई के साहित्य में समकालीन यथार्थ, डॉ. संध्या कुमारी सिंह, पृ. 253

9 व्यंग्य पुरोधा हरिशंकर परसाई, डॉ. राजेश चन्द्र पाण्डेय, पृ. 185

 

डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा

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