ज्ञानपीठ पुरस्कार : भाषा-सेतु की
रचना
डॉ. ऋषभदेव शर्मा
उर्दू कवि गुलज़ार और संस्कृत
विद्वान जगद्गुरु रामभद्राचार्य की महान शख्सियतों को मान्यता देते हुए 58वें ज्ञानपीठ
पुरस्कारों (2023) की घोषणा साहित्यिक क्षेत्र से कहीं
आगे तक प्रतिध्वनित होने वाली परिघटना है। भाषाई तनावों और बढ़ते विभाजनों से भरे
समकालीन माहौल में, इस संयुक्त मान्यता का महत्व
व्यक्तिगत उपलब्धि से कहीं अधिक है। यह शब्दों से बना एक पुल है, जो हमें भाषा और साझा सांस्कृतिक विरासत की एकीकृत शक्ति की याद दिलाता
है।
गुलज़ार का नाम भावपूर्ण कविता और
गहन गीतों का पर्याय बन चुका है,
जिन्होंने कई पीढ़ियों के जीवन को प्रभावित किया है। उनका काव्य
भाषिक, सामाजिक या धार्मिक पृष्ठभूमि की परवाह किए बिना
दर्शकों को प्रभावित करता है। ठेठ देसी सौंदर्यबोध और कथन की निजी शैली उन्हें
उच्च कोटि का भारतीय कवि बनाती हैं।
अपनी अद्भुत मेधा और आध्यात्मिक
चिंतन के लिए प्रसिद्ध जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने अपना जीवन संस्कृत और संस्कृति
के संरक्षण और प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर रखा है। विविध शैलियों को शामिल
करते हुए उनका विपुल साहित्यिक अवदान शास्त्रीय ज्ञान और लोकमानस के बीच की दूरी
को पाटता है।
इन दो अनुकरणीय शख्सियतों को दिया
गया पुरस्कार, केवल व्यक्तिगत स्वीकृति नहीं, बल्कि एक
दूरगामी बयान है। यह विविध भाषाओं और परंपराओं के अंतर्निहित मूल्य पर जोर देता है,
हमें याद दिलाता है कि भारत का सांस्कृतिक ताना-बाना अनेक
बहुरंगी धागों की खूबसूरत बुनावट का परिणाम है। संस्कृत और उर्दू साहित्य की इन
विभूतियों को एक साथ दिया जाने वाला यह सम्मान उस ओछी सियासत के मुँह पर तमाचा है
जो दिन-रात भाषा-भिन्नता के नाम पर इस महादेश को परस्पर विरोधी टुकड़ों में बाँटने
की साज़िशें रचा करती है।
बढ़ती भाषाई चिंताओं और कुछ भाषाओं
को दूसरों पर प्राथमिकता देने के प्रयासों से बोझिल राष्ट्रीय परिदृश्य में, ज्ञानपीठ समिति
का यह निर्णय शीतल-मंद-सुगंध बयार के झोंके की तरह है। यह इस बात की पुष्टि करता है कि भारत की
पहचान उसकी भाषाई विविधता से समृद्ध ही होती है, कम कभी
नहीं।
ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए गुलज़ार और
रामभद्राचार्य का चयन अंतर-सांस्कृतिक संवाद और समझ के महत्व को रेखांकित करता है।
अलग-अलग भाषाई दुनियाओं का प्रतिनिधित्व करती प्रतीत होने वाली ये विभूतियाँ
वास्तव में एक ही सांस्कृतिक विरासत की वाहक हैं, क्योंकि दोनों की जड़ें अत्यंत उर्वर
भारतीय भूमि से रस ग्रहण करती हैं। इनका साहित्य एक समावेशी और जीवंत राष्ट्रीय
संस्कृति का बोध कराता है। इनके अवदान की यह स्वीकृति न केवल सामयिक है, बल्कि राष्ट्रीय एकता को
बढ़ावा देने के लिए आवश्यक भी है। ऐसे माहौल में जहाँ ‘दूसरे’ के प्रति संदेह और
शत्रुता बढ़ती जा रही है, विविध साहित्यिक आवाजों का जश्न
मनाना समावेशिता और स्वीकृति का एक शक्तिशाली संदेश देता है।
ग़ौरतलब है कि इस पुरस्कार का प्रभाव
प्रतीकात्मकता के पार भी बहुत आगे तक जाने वाला है। यह ठोस कार्रवाई के लिए
उत्प्रेरक के रूप में काम कर सकता है। शैक्षणिक संस्थान भाषा सीखने और सांस्कृतिक
आदान-प्रदान कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिए इस क्षण का लाभ उठा सकते हैं।
विभिन्न भाषाओं के लेखकों की विशेषता वाले साहित्यिक कार्यक्रम और संवाद समझ और
सराहना के रास्ते बन सकते हैं। सार्वजनिक पुस्तकालय विविध लेखकों के कार्यों को
उजागर करने वाले विशेष संग्रह तैयार कर सकते हैं, जिससे उन्हें व्यापक दर्शकों के लिए सुलभ
बनाया जा सके। यानी, गुलज़ार और रामभद्राचार्य को दिए गए
ज्ञानपीठ पुरस्कारों का जश्न मनाकर, हमें केवल एक पल की
चमक में डूबना नहीं चाहिए। इसके बजाय, हमें भाषाई
पूर्वग्रहों और मतभेदों को पाटने, समावेशिता को बढ़ावा
देने और विविध भाषाओं और संस्कृतियों के धागों से बुने हुए राष्ट्रीय ताने-बाने का
पोषण करने के लिए इसकी क्षमता का उपयोग करना चाहिए।
अंततः यह कहना भी ज़रूरी है कि गुलज़ार और रामभद्राचार्य जैसी विराट प्रतिभाओं का सम्मान करके ज्ञानपीठ पुरस्कार स्वयं को सम्मानित कर रहा है!
डॉ. ऋषभदेव शर्मा
सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर
दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा
हैदराबाद
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