बुधवार, 31 जनवरी 2024

आलेख

 



महाभारत रहस्य और गीता दर्शन

सुरेश चौधरी ‘इंदु’

अठारह दिनों के महाभारत युद्ध में उस समय की 80% पुरुष जनसंख्या समाप्त हो गयी थी। इस परिणाम से कृष्ण और अर्जुन दोनों बहुत व्यथित थे। युद्ध के अंत में, दोनों कुरुक्षेत्र के उस स्थान पर गए जहाँ संसार का सबसे महानतम युद्ध हुआ था।

हताश निराश अर्जुन इतनी बड़ी मानव क्षति से दुखी युद्ध क्षेत्र को डबडबाई आँखों से देखने लगे। क्या यह वही भूमि है जहाँ परमप्रतापी भीष्म लड़े थे , क्या यहीं कृष्ण ने  गीता का ज्ञान दिया था?

अक्स्मात कृष्ण के मुख पर एक चिरपरिचित मुस्कान दिख पड़ी जिसे देख अर्जुन ने कृष्ण को देखते हुए पूछा “केशव  क्या आप मेरे मन की दशा जान सके हैं” कृष्ण ने सस्मित मुस्कराहट के साथ कहा “पार्थ तुम्हारी जिज्ञासा का उत्तर तुम्हे कदापि नहीं मिल सकता।”

मुझे पता है कि कौन्तेय आप कुरुक्षेत्र युद्ध के कारणों के बारे में पता लगाने के लिए यहाँ हैं, लेकिन आप उस युद्ध के बारे में तब तक नहीं जान सकते, जब तक आप ये नहीं जान लेते हैं कि असली युद्ध है क्या?” उस जगयोगी कृष्ण  ने रहस्यमय ढंग से कहा।

आप महाभारत का क्या अर्थ जानते हैं?” अर्जुन ने पूछा।

कृष्ण ने बताया, “महाभारत एक महाकाव्य है, एक गाथा है, एक वास्तविकता भी है, लेकिन निश्चित रूप से एक दर्शन भी है।”

माधव क्या आप मुझे बता सकते हैं कि दर्शन क्या है?” अर्जुन ने निवेदन किया।

अवश्य जानता हूँ, कृष्ण ने कहना शुरू किया। पांडव कुछ और नहीं, बल्कि आपकी पाँच इंद्रियाँ हैं - दृष्टि, गंध, स्वाद, स्पर्श और श्रवण - और क्या तुम जानते हो कि कौरव क्या हैं? उसने अपनी आँखें संकीर्ण करते हुए पूछा।

कौरव ऐसे सौ तरह के विकार हैं, जो सबकी इंद्रियों पर प्रतिदिन हमला करते हैं लेकिन सब उनसे लड़ सकते हैं और जीत भी सकते है। पर क्या तुम जानते हैं कैसे?

 

अर्जुन ने फिर से न में सर हिला दिया।

केवल जब मैं तुम्हारे रथ की सवारी करता हूँ तब” और अर्जुन अंतर्दृष्टि खुलने पर जो नवीन रत्न प्राप्त हुआ उस पर विचार करने लगा..

कृष्ण जो मैं हूँ तुम्हारी आंतरिक आवाज, तुम्हारी आत्मा, तुम्हारा मार्गदर्शक प्रकाश हूँ और यदि तुम अपने जीवन को मेरे हाथों में सौंप देते हो तो तुम्हे फिर चिंता करने की कोई आवश्कता नहीं है।” कृष्ण ने कहा।

अर्जुन अब तक लगभग चेतन अवस्था में पहुँच गया था, लेकिन जल्दी से एक और सवाल लेकर आया।

फिर कौरवों के लिए द्रोणाचार्य और भीष्म क्यों लड़ रहे थे?

भीष्म हमारे अहंकार का प्रतीक हैं, अश्वत्थामा हमारी वासनाएँ, इच्छाएँ हैं, जो कि जल्दी नहीं मरतीं। दुर्योधन हमारी सांसारिक वासनाओं, इच्छाओं का प्रतीक है। द्रोणाचार्य हमारे संस्कार हैं। जयद्रथ हमारे शरीर के प्रति राग का प्रतीक है कि 'मैं ये देह हूँ' का भाव। द्रुपद वैराग्य का प्रतीक हैं। तुम मेरी आत्मा हो, मैं ही अर्जुन हूँ और  स्वनियंत्रित भी हूँ। कृष्ण जो मैं हूँ परमात्मा हूँ,  पाँच पांडव पाँच नीचे वाले चक्र भी हैं, मूलाधार से विशुद्ध चक्र तक। द्रोपदी कुंडलिनी शक्ति है, वह जागृत शक्ति है, जिसके ५ पति ५ चक्र हैं। ओम शब्द ही मेरा पाँचजन्य शंखनाद है, जो मुझ और आप आत्मा को ढ़ाढ़स बंधाता है कि चिंता मत कर मैं तेरे साथ हूँ, अपनी बुराइयों पर विजय पा, अपने निम्न विचारों, निम्न इच्छाओं, सांसारिक इच्छाओं, अपने आंतरिक शत्रुओं यानि कौरवों से लड़ाई कर अर्थात अपनी भौतिक वासनाओं को त्याग कर और चैतन्य  पाठ पर आरूढ़ हो जा, विकार रूपी कौरव अधर्मी एवं दुष्ट प्रकृति के हैं।

श्री कृष्ण का साथ होते ही ७२००० नाड़ियों में भगवान की चैतन्य शक्ति भर जाती है, और हमें पता चल जाता है कि मैं चैतन्यता, आत्मा, जागृति हूँ, मैं अन्न से बना शरीर नहीं हूँ, इसलिए उठो जागो और अपने आपको, अपनी आत्मा को, अपने स्वयं सच को जानो, मुझ को पाओ, यही भगवद प्राप्ति या आत्म साक्षात्कार है, यही इस मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है।

ये शरीर ही धर्म क्षेत्र, कुरुक्षेत्र है। धृतराष्ट्र अज्ञान से अंधा हुआ मन है। अर्जुन आप हो, संजय आपके आध्यात्मिक गुरु हैं।

जैसे-जैसे आप बड़े होते हैं, अपने बड़ों के प्रति आपकी धारणा बदल जाती है। जिन बुजुर्गों के बारे में आपने सोचा था कि आपके बढ़ते वर्षों में वे संपूर्ण थे, अब आपको लगता है वे सभी परिपूर्ण नहीं हैं। उनमें दोष हैं। और एक दिन आपको यह तय करना होगा कि उनका व्यवहार आपके लिए अच्छा या बुरा है। तब आपको यह भी अहसास हो सकता है कि आपको अपनी भलाई के लिए उनका विरोध करना या लड़ना भी पड़ सकता है। यह बड़ा होने का सबसे कठिन हिस्सा है और यही वजह है कि गीता महत्वपूर्ण है।”

अर्जुन धरती पर बैठ गया, इसलिए नहीं कि वह थका हुआ था, थक गया था, बल्कि इसलिए कि वह जो समझ लेकर यहाँ आया था, वो एक-एक कर ध्वस्त हो रही थी। लेकिन फिर भी उसने लगभग फुसफुसाते हुए एक और प्रश्न पूछा, तब कर्ण के बारे में आपका क्या कहना है?

आह!” कृष्ण ने कहा। तुमने बहुत ही सारगर्भित प्रश्न किया,

कर्ण इंद्रियों का भाई है। वह इच्छा है। वह सांसारिक सुख के प्रति राग का प्रतीक है। वह  ही एक हिस्सा है, लेकिन वह अपने प्रति अन्याय महसूस करता है और सबके विरोधी विकारों के साथ खड़ा दिखता है। और हर समय विकारों के विचारों के साथ खड़े रहने के कोई न कोई कारण और बहाना बनाता रहता है।”

क्या आपकी इच्छा; आपको विकारों के वशीभूत होकर उनमें बह जाने या अपनाने के लिए प्रेरित नहीं करती रहती है?” उसने कृष्ण से पूछा।

अर्जुन ने स्वीकारोक्ति में सिर हिलाया और भूमि की तरफ सिर करके सारी विचार श्रंखलाओं को क्रमबद्ध कर मस्तिष्क में बैठाने का प्रयास करने लगा। और जब उसने अपने सिर को ऊपर उठाया, वह तेजोमयी परम शक्ति जो कृष्ण का आवरण युक्त थी  धूल के गुबारों के मध्य कहीं विलीन हो चुकी थी। लेकिन जाने से पहले वह जीवन की वो दिशा एवं दर्शन दे गयी थी, जिसे आत्मसात करने के अतिरिक्त अर्जुन के सामने अब कोई अन्य मार्ग नहीं बचा था।

शुभमस्तु: ।।।।।




सुरेश चौधरी ‘इंदु’

एकता हिबिसकस

56 क्रिस्टोफर रोड

कोलकाता 700046

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...