बुधवार, 31 जनवरी 2024

पुस्तक चर्चा

 

तमिल से हिंदी में आईं ‘कल्कि की लघुकथाएँ’

डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

‘अनुवाद’ शब्द के लिए अंग्रेज़ी में ट्रांसलेशन, फ्रेंच में ट्रंडुक्शन और अरबी में तर्जुमा शब्द प्रचलित हैं। लैटिन भाषा में एक शब्द है ट्रांस जिसका अर्थ है परिवहन। इसी शब्द से ट्रांसलेशन शब्द की उत्पत्ति हुई है। संस्कृत में छाया, टीका आदि इस शब्द के समानार्थक शब्द हैं। भारत में अनुवाद कार्य कब से शुरू हुआ, इस प्रश्न का सटीक उत्तर पाना कठिन ही होगा। क्योंकि भारत जैसे बहुभाषिक देश में अनुवाद कार्य स्वाभाविक रूप में उसी प्रकार से जीवंत रहा जैसे शरीर में साँस रहती है। फिर भी सैद्धांतिक रूप में अगर अनुवाद और भारत के संपर्क को खोजने का प्रयास किया जाए तो ऐतिहासिक शोध यह प्रमाणित करता है कि पहले भले ही अलग-अलग प्रांतों की भाषाएँ अलग-अलग थीं, लेकिन संस्कृत संपूर्ण भारत की छवि को निखारनेवाली भाषा थी। इसके बाद शिक्षा पद्धति बदली। अंग्रेज़ी का प्रयोग शुरू हुआ। साथ ही साथ भारत में रेलों, मोटर गाड़ियों, प्रेस आदि विभिन्न साधनों का प्रचलन शुरू हुआ और इसी के साथ-साथ दूर-दूर के विभिन्न भाषा भाषी लोगों के स्वाभाविक वाणी व्यवहार में सामान्य बातों का अनुवाद कार्य स्वाभाविक रूप से ही शुरू हो गया। इसी क्रम में साहित्यानुवाद अनुवाद कार्य के एक महत्वपूर्ण अंग के रूप में उभरकर सामने आया। क्योंकि साहित्यिक कृतियाँ सामान्य जनता से सीधा संपर्क स्थापित करने का सशक्त माध्यम हैं। साहित्यानुवाद वर्तमान युग में और अधिक विकसित हुआ है, इसमें कोई दोराय नहीं है। “कल्कि की लघुकथाएँ” इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इस कृति की मूल भाषा तमिल है। हिंदी में इसका अनुवाद डॉ. ए. जी. मातंगी ने किया है। संपादक प्रो. निर्मला एस. मौर्य और डॉ. मनोज मिश्र हैं। दक्षिण और उत्तर का यह मिलन साहित्यानुवाद की चरम उपलब्धि है।                 

पहले थोड़ी चर्चा तमिल साहित्य पर। ‘तमिल शब्द भाषापरक है। तमिलर जातिवाचक शब्द है; तमिलम् या तमिलकम् प्रदेशवाचक है। द्रविड़ शब्द तमिल की अनुकृति पहले भाषापरक रही। बाद में अर्थ विकास से देश तथा जाति का भी बोधक बन गया’।(1) ‘तमिल’ शब्द का प्रयोग तमिल के प्राचीनतम लक्षण ग्रंथ तोल्काप्पियम् में मिलता है। ग्रंथकार ने लिखा है, ‘तमिल एन् किलवियुम् अतनोडट्रे’। इसका मतलब यह है कि, ‘ तमिल शब्द के साथ कोई सार्थक शब्द जुड़ता है, तब अक् (अ) प्रत्यय दोनों के बीच में आता है। उदाहरणार्थ, तमिल्+ पल्लि= तमिलप्पल्लि (तमिल शाला)। संधि नियम के अनुसार तमिल+अ+पल्लि में प् का समावेश होने से पूर्वोक्त रूप बनता है। इस प्रसंग का यहाँ महत्व इसलिए है कि तमिल का उक्त लक्षण ग्रंथ ही आज उपल्ब्ध पुराने तमिल-साहित्यों में प्राचीनतम रचना है। उसके रचयिता का नाम ‘तोल्काप्पियर’ है। इसका अर्थ है, ‘पुराने काप्पियवंश का प्रतिष्ठित व्यक्ति’।  ‘तोल्काप्पियर’ महर्षि ‘अगस्त्य’ के शिष्य माने जाते हैं। यह अगस्त्य रामायण कालीन अगस्त्य महर्षि माने जा सकते हैं’।(2) इस विश्लेषण को केंद्र में रखकर तमिल और हिंदी के सह संबंध पर विचार किया जाए तो हिंदी और तमिल का संबंध लगभग 300 ईसा पूर्व से 300 ईस्वी तक माना जाता है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के वाराणसी में 2022 में ‘काशी तमिल संगमम’ नामक कार्यक्रम का आयोजन किया। इसका व्यापक उद्देश्य यह रहा कि उत्तर और दक्षिण के बीच में जो ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक परंपराएँ, सभ्यताएँ और सूचनाएँ फैली हुई हैं, उनका प्रचार-प्रसार और क्रियान्वयन हो। इस कड़ी में भी अनुवाद के दो अंगों भाषानुवाद और साहित्यानुवाद की महत्वपूर्ण भूमिका दिखाई पड़ती है।

अब विवेच्य कृति और उसके मूल रचनाकार की बात करें तो, रामस्वामी कृष्णमूर्ति का जन्म 9 सितंबर,1899 को तमिलनाडु के तंजाऊर जिले के पुथमंगलम् में हुआ था। उनके पिता का नाम रामस्वामी अय्यर और माता का नाम तैयल नायगी था। उनके पिता तंजाऊर में अपने गाँव में अकाउंटेंट थे। कृष्णमूर्ति एक अच्छे विद्यार्थी थे। वे विद्यार्थी जीवन में ही अच्छे कांग्रेस कार्यकर्ता भी बन गए। पहली बार 1922 में करूर की एक सभा में उन्होंने भाषण दिया। इसके लिए उन्हें एक साल की जेल हुई। 20 अक्टूबर,1923 को वे ‘नवशक्ति’ पत्रिका के संपादक बने। ‘उन्होंने अपने पहले निबंध में बेकार के रीति रिवाजों को छोड़कर एक नए युग को प्रफुल्लित करने का आशय बताया। युवा लेखकों का इस प्रकार से सोचकर लिखना कि नए युग की सृष्टि करेंगे स्वाभाविक है; इसी प्रकार खुद को उस काल में एक नए युग की सृष्टि करनेवाला योद्धा समझकर भगवान के दसवें अवतार और नए युग को बताने वाला ‘कल्कि’ का नाम रख लिया’। (3) तमिल साहित्य के हास्य पक्ष को समझने के लिए ‘कल्कि’ के रम्य निबंधों को पढ़ना आवश्यक है।

प्रस्तुत पुस्तक ‘कल्कि की लघुकथाएँ’ में उनकी 6 कहानियों का हिंदी अनुवाद किया गया है। इन कहानियों का सीधा संबंध मानव मनोविज्ञान के साथ है। ‘मदगुपट्टी झगड़े के मुकदमे में फैसला सुनाने के बाद अस्टोतरम अय्यंगार की मनोदशा ठीक नहीं थी। उनके मन में यह बात खटक रही थी कि तिरुमलै के विषय में उन्होंने अन्याय किया है। फाँसी की सजा के कैदियों की तरफ से राज्यपाल को ‘अनुकंपा की अर्जी’ भेजने की बात जान कर अय्यंगार को थोड़ी तसल्ली हुई वे सोचने लगे कि अगर राज्यपाल उनकी फाँसी की सज़ा माफ़ कर दें तो इनकी ज़िम्मेदारी खत्म हो जाएगी। मगर राज्यपाल ने ऐसा नहीं किया और अय्यंगार के मन से यह बोझ भी न उतरा। दिन-पर-दिन वह बोझ बढ़ता गया। फाँसी की सज़ा संपन्न होने का दिन नजदीक आते आते रात को उन्हें नींद नहीं आती थी’।(4) इस कहानी में ‘कल्कि’ ने देश के स्वाधीन होने से पहले अंग्रेजों के लिए काम करने वाले न्यायधीशों के मनोविज्ञान को बखूबी दर्शाया है। यह भी तो एक पहलू है। लेकिन इस पहलू पर काफी कम सोचा जाता है।

बाल मनोविज्ञान पर बहुत कुछ लिखा गया है लेकिन ‘कल्कि’ ने बाल मनोविज्ञान के परिपक्व स्वरूप को पाठकों तक पहुँचाया है। एक बालक कैसे अपने आस पड़ोस को देखकर अपनी जिम्मेदारी को समझ लेता है ‘चोर का बेटा चोर’ कहानी इसका उत्कृष्ट उदाहरण है। देखें- “मुझे कुछ नहीं चाहिए। मेरे पास पटाखे, जगमगाती  छड़ियाँ है, उसे लेकर रुपये दे सकते हो क्या”? ऐसा बालक ने पूछा। दुकानदार को थोड़ा आश्चर्य हुआ। फिर भी दीवाली का पहला दिन था, पटाखे और छड़ियाँ बहुत ज्यादा रुपयों में बिक रही थीं, इसलिए दुकानदार ने मोल-तोल करके सारे पटाखे लेकर रुपये दिए।” (5) सहर्ष अपने सामान को अपनी ज़िम्मेदारी के लिए बेच देना परिपक्वता की चरम पराकाष्ठा है। याद आती है जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखित कहानी ‘छोटा जादूगर’।

युग को बदलने का लक्ष्य लेकर कृष्णमूर्ति ने अपना नाम ही ‘कल्कि’ रख लिया था। उन्हें समस्याओं का ज्ञान था। लेकिन हरेक समस्या का समाधान तो स्वयं ईश्वर भी नहीं दे सके थे। इसी कारण से शराब घर गृहस्थी उजड़ जाने का एक प्रमुख कारण है यह जानने के बाद भी ‘अरसूर पंचायत’ कहानी के अंत में, ‘अगले दिन अमृतम गायब हो गई। अरसूर से आठ मील पूरब की ओर एक स्त्री की लाश नदी में बह कर आई थी। वहाँ के मुख्याधिकारी ने उसे उठाने का प्रबंध करके पुलिस को सूचना दे दी। दो साल बाद चंद्रकासन ने बड़ी जिज्ञासा के साथ वापस आकर अपने कुटीर को देखा, तो अब वहाँ पर कूड़ा फेंका हुआ था।’(6)

 

कल्कि’ को अपने जीवनकाल में ही ‘राष्ट्रीय लेखक’ के रूप में पहचान मिल गई थी। इसका कारण यह भी था कि वे मनुष्य की शक्ति में विश्वास रखने वाले साहित्यकार थे। व्यक्ति चाहे तो स्वयं को ही ईश्वर बना सकता है। जैसा प्रयास उडैयार ने किया। उडैयार का यह कथन दृष्टव्य है कि, ‘भाई! तुम्हें आश्चर्य होगा। मेरे साहस को देखकर तुम हैरान हो सकते हो। फिर भी वही सच है। मेरे कार्यों की देखभाल करने के लिए एक सच्चा आदमी चाहिए। सिर्फ यही नहीं। इतने दिनों जो पाप मैंने किए हैं, उसका प्रायश्चित ढूँढ़ना होगा। इसके लिए मुझे मार्ग दिखाने के लिए एक सच्चा दोस्त चाहिए’।(7)

ये तो हुईं प्रस्तुत पुस्तक की कुछ महत्वपूर्ण बातें। लेकिन तह भी याद रखना चाहिए कि ‘कल्कि’ एक ऐसे साहित्यकार थे जिन्हें ‘सिर्फ महात्मा गांधी के निबंध ही नहीं बल्कि उनके भाषणों को भी तुरंत वैसे का वैसा अनुवाद करने का अवसर भी मिला’।(8) ऐसे साहित्यकार के साहित्य का अनुवाद कार्य तभी सफल कहला सकता है, जब अनुवाद होने के बाद भी दक्षिण की आत्मा उसमें जीवित रहे और ऐसा ही अनुवाद डॉ. ए. जी. मातंगी ने किया है। उदाहरणस्वरूप एक अंश, ‘मैं जानता हूँ कि कहानी को बेचना कठिन काम है। टाकीज के मालिक और निदेशक सामान्य रूप से नमूने जैसे व्यक्ति हैं और यह सभी जानते हैं कि जो अच्छा है वह उन्हें बुरा लगता है और जो बुरा है वह उन्हें अच्छा लगता है। कहीं न कहीं इतने लोगों में से किसी को तो मेरी कहानी पसंद आएगी ना, चलो देखते हैं।’(9) टाकीज और नमूने जैसे शब्द दक्षिण में भी साधारण रूप में ही प्रचलित शब्दों को देखकर सहज ही यह कहा जा सकता है कि अनुवादक ने दक्षिण की बोलचाल की हिंदी को ही अपने अनुवाद के लिए चुना है।  इसी कारण यह अनूदित पुस्तक पढ़ने में रुचिकर बन सकी है।

 

संदर्भ सूची

1. भक्ति - उत्तर और दक्षिण का समन्वय सूत्र: वियोगी हरि, पृष्ठ संख्या - 2-3

2.भक्ति - उत्तर और दक्षिण का समन्वय सूत्र: वियोगी हरि, पृष्ठ संख्या - 3

3.कल्कि की लघुकथाएँ: पृष्ठ संख्या-xi-xii

4.कल्कि की लघुकथाएँ: पृष्ठ संख्या - 7

5.कल्कि की लघुकथाएँ: पृष्ठ संख्या-40

6.कल्कि की लघुकथाएँ: पृष्ठ संख्या-32

7.कल्कि की लघुकथाएँ: पृष्ठ संख्या-46

8.कल्कि की लघुकथाएँ: पृष्ठ संख्या-xii

9.कल्कि की लघुकथाएँ: पृष्ठ संख्या-59

 

समीक्षित पुस्तक :

कल्कि की लघुकथाएँ (कहानी संग्रह)

तमिल मूल: ‘कल्कि’

हिंदी अनुवाद: डॉ. ए. जी. मातंगी

संपादन : प्रो. निर्मला एर्स. मौर्य और डॉ. मनोज मिश्र

प्रकाशन: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली -110 002

संस्करण: 2022

पृष्ठ: 168

 

डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

असिस्टेंट प्रोफेसर,

भवंस विवेकानंद डिग्री कॉलेज, सैनिकपुरी

हैदराबाद

 

 

 

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