बुधवार, 31 जनवरी 2024

कविता

 


कोहरा

अनिता मंडा 

पहले पहल पहाड़ों को ढँका

फिर पेड़ों को

फिर गली के मोड़ पर खड़े

लैंप पोस्ट ने भी

ओढ़ ली हल्की-सी कोहरे की चादर

सूरज भी बताशे-सा घुल गया

कोहरे के मुँह में।

 

 

गाड़ी स्कूटर थोड़ी दूर जाकर

छिपते रहे कोहरे में

जब हमने बालकनी में खड़े होकर

होठों को गोलाई देते हुए

कोहरे में मिला दिया

थोड़ा-सा और कोहरा

 

चिड़िया ने नहीं ढूँढे अपने खोए हुए स्वर

खाली जेबों में हाथ डाले

मजदूर निकल आये हैं सड़क पर

बावजूद इतने कोहरे के

जा रहे हैं काम पर।

 

दूर कहीं दुष्यंत

आहिस्ते से फुसफुसा रहे हैं

मत कहो आसमान में कोहरा घना है

किसी की व्यक्तिगत आलोचना से

हमें क्या लेना देना

हमें तो अलाव तापते हुए समझना है

एक धुंध से आना है, एक धुंध में जाना है

साहिर को सलाम कर

बन जाएँगे फिलॉसोफ़र

दुनिया भर की चिंताओं पर करते हुए चर्चा

याद आएँगे राजेश जोशी

कुहरे में काम पर जाते हुए

बच्चों के लिए फ़िक्रमंद

किताबें पढ़ने को

नहीं बचा बचपन

कितने सवालों के सूरज चमकेंगे

फिर भी कोहरा लील जाएगा

सबसे ज्वलंत सवालों को

 

दुनिया भर के राजाओं की भूख मिटाने

जारी रहेंगी जंगें

बनता रहेगा बारूद

 

फूलों और तितलियों की क़ब्रों पर

रोता हुआ आसमान देख

धरती ठंडी साँस भरेगी

और सब कहेंगे

कुहरा छाया है।


अनिता मंडा

दिल्ली

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर चित्रण
    कोहरा
    और निहितार्थ
    अद्भूत।

    जवाब देंहटाएं
  2. कोहरे का बहुत सुंदर चित्रण। हार्दिक बधाई। सुदर्शन रत्नाकर

    जवाब देंहटाएं

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