राम आ गए! रामराज्य कब आएगा?
डॉ. ऋषभदेव
शर्मा
अयोध्या में नव निर्मित भव्य मंदिर में रामलला की
प्राणप्रतिष्ठा हो रही है। यह समस्त भारतीयों के लिए हर्ष और उल्लास का अवसर है।
कहा जा रहा है कि लगभग 500 वर्ष के देश-निकाले के बाद राम अपनी जन्मभूमि में,
अपने घर लौट रहे हैं। यह वैसे ही उत्सव का समय है जैसे
उत्सव का समय वह था जब राम चौदह वर्ष के वनवास के बाद,
रावण सहित समस्त निशाचरों का वध करके,
अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ अयोध्या लौटे थे।
राम के अयोध्या लौटने पर वहाँ के राज सिंहासन पर चौदह वर्षों
से विराजमान राम की चरण पादुकाओं के स्थान पर राम का राज्याभिषेक हुआ। इस तरह,
राम के अयोध्या लौटने का अर्थ है रामराज्य की स्थापना। याद
रहे कि बीसवीं शताब्दी में उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ते हुए इस महान देश के नायकों और
निवासियों ने एक बार फिर रामराज्य की स्थापना का स्वप्न देखा था। संविधान
निर्माताओं के मन में भी कहीं न कहीं राम और रामराज्य की लोककल्याणकारी छवि सक्रिय
थी। क्योंकि राम मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में एक अनासक्त और निर्लिप्त शासन के
जीवंत आदर्श हैं तथा रामराज्य एक सर्वसमावेशी लोकतांत्रिक व्यवस्था का प्रतीक।
यहाँ ठहरकर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के देखे रामराज्य के
स्वप्न की चर्चा की जा सकती है। एक ऐसा राज्य जहाँ पूर्ण सुशासन और पारदर्शिता हो।
महात्मा गाँधी ने 19 सितंबर, 1929 को
‘यंग इंडिया’ में लिखा था- “रामराज्य से मेरा मतलब हिंदू राज नहीं है। मेरे
रामराज्य का अर्थ है- ईश्वर का राज्य। मेरे लिए, राम और रहीम एक ही हैं; मैं सत्य और धार्मिकता के ईश्वर के अलावा किसी और ईश्वर को
स्वीकार नहीं करता। चाहे मेरी कल्पना के राम कभी इस धरती पर रहे हों या न रहे हों,
रामायण का प्राचीन आदर्श निस्संदेह सच्चे लोकतंत्र में से
एक है,
जिसमें एक बहुत बुरा नागरिक भी एक जटिल और महँगी प्रक्रिया
के बिना त्वरित न्याय को लेकर आश्वस्त हो।” इसी तरह, 2 अगस्त, 1934 को ‘अमृत बाज़ार पत्रिका’ में उन्होंने कहा- “मेरे सपनों की रामायण,
राजा और निर्धन दोनों के लिए समान अधिकार सुनिश्चित करती
है।” फिर 2
जनवरी,
1937 को उन्होंने ‘हरिजन’ में भी लिखा
- “मैंने रामराज्य का वर्णन किया है,
जो नैतिक अधिकार के आधार पर लोगों की संप्रभुता है।” कहना न
होगा कि ये ही वे मूल्य हैं जो किसी सच्चे लोकतंत्र के मूल स्तंभ हो सकते हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, अमृतकाल में ‘विकसित अर्थव्यवस्था’ बनने की ओर अग्रसर भारत
के मन में आज भी रामराज्य का यही स्वर्णिम स्वप्न साकार होने को कुलमुला रहा है।
इसीलिए,
अयोध्या के राममंदिर में भगवान राम के श्रीविग्रह की
प्रतिष्ठा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परिघटना भर नहीं है,
सामाजिक और राजनीतिक जीवन के लिए भी मर्यादा की प्रतिष्ठा
का प्रतीक है।
भारतीयों के अभीष्ट रामराज्य का बहुत ही मनोरम और प्रेरक
चित्र गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचरित मानस’ में उकेरा है। उसका आधार राम के उस
समावेशी चरित्र में निहित है जिसका निर्माण वनवास काल में हुआ। एक ऐसा उदार चरित्र
जिसमें अयोध्या का नगर-राज्य ही नहीं, समस्त वनवासी समुदाय, ऋषि-मुनियों से लेकर अहल्या, केवट, निषादराज गुह, गीधराज जटायु, भीलनी शबरी, रीछ- वानर और राक्षस तक सभी अपने निजी व्यक्तित्व के साथ
शामिल हैं। लेकिन इन सबकी गति की दिशा एक ही है- राम की दिशा;
रामत्व की दिशा! रामत्व मर्यादा का पर्याय है। वही रामराज्य
का आधार भी है और प्राण भी।
आइए, राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा की इस पावन वेला में हम सब रामराज्य के इस मूल्य को
अपने प्राणों में प्रतिष्ठित करें-
“बैर न कर काहू सन कोई।
राम प्रताप विषमता खोई।।”
डॉ. ऋषभदेव शर्मा
सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर
दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा
हैदराबाद
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