बुधवार, 31 जनवरी 2024

ग़ज़ल

 



दिसम्बर ख़त्म होता है

हिमकर श्याम

 

नयी होती हैं उम्मीदें दिसम्बर ख़त्म होता है

वहीं रहती हैं दीवारें कलेण्डर ख़त्म होता है।

 

महज़ कहने को  रह जाता मकाँ  बस ईंट गारे का

भरोसा प्यार जो बिखरा तो फिर घर ख़त्म होता है।

 

तुम्हारे  हुस्न  के  आगे  लगे  फ़ीके  सभी  गहने

भला कब सादगी का कोई जेवर ख़त्म होता है।

 

हुआ क्या  हश्र  रावण  का नहीं  अनजान है कोई

तकब्बुर जो भी करता है बिखर कर ख़त्म होता है।

 

बहार आयी है सुनते हैं  मगर देखा  नहीं हमने

निगाहों से हमारी क्यूँ न पतझड़ ख़त्म होता है।

 

कभी ज़रख़ेज़ थी धरती  बड़ा सरसब्ज़ था मंज़र

मगर आँखों से अब अपने न बंजर ख़त्म होता है।

 

है बे-शक छूटता जंगल वही रहती मगर फ़ितरत

भले  हो  शेर  पिंजड़े  का  न तेवर ख़त्म होता है।

 

बिखरता है सँभलता है नहीं पर टूटता ‘हिमकर’

गुज़र जाता है तूफ़ाँ और बवंडर ख़त्म होता है।

 


हिमकर श्याम

राँची

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