बुधवार, 31 जनवरी 2024

सामयिक टिप्पणी

 

हावेरी कांड :

यहाँ ज़िन्दगी है रिवाज़ों के बस में!

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

7 जनवरी, 2024 को कर्नाटक के हावेरी से आई खबर असहिष्णुता और हिंसा की भयावह गूँजों से भरी है।  छह-सात अल्पसंख्यक पुरुषों के एक समूह ने, नैतिक अधिकार की विकृत भावना से प्रेरित होकर, होटल के कमरे की गोपनीयता में एक अंतरधार्मिक जोड़े पर हमला किया,  शर्मनाक व्यवहार किया। पीड़िता के साथ हुए कथित भयावह सामूहिक बलात्कार की घटना बेहद परेशान करने वाला और जघन्य अपराध है जो त्वरित और गंभीर न्याय की माँग करता है। नैतिक पुलिसिंग के ऐसे कुकृत्य न केवल इनसे पीड़ित व्यक्तियों पर हमला हैं, बल्कि भारत के उदार और लोकतांत्रिक चरित्र पर काले धब्बे की तरह हैं। माना कि पीड़ित स्त्री-पुरुष अलग-अलग धर्मों के हैं, लेकिन  प्रेम या विवाह उनका निजी निर्णय है। उसमें खुदाई फौजदारों का पाशविक हस्तक्षेप किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकता।   किसी को भी किसी के विश्वास, रिश्ते और अस्तित्व के अधिकार का अतिक्रमण करने का अधिकार नहीं है।

इस मौके पर सयाने कर्नाटक के जटिल सामाजिक-धार्मिक परिदृश्य की याद दिला रहे हैं, जहाँ दुखद रूप से, नैतिक पुलिसिंग की घटनाएँ पूरी तरह से असामान्य नहीं हैं। कहा यह भी जा सकता है कि ऐसी हिंसक घटनाएँ समय-समय पर देशभर में देखने में आती रहती हैं। इन कृत्यों में अक्सर अंतरधार्मिक जोड़ों, एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के सदस्यों और मनमाने सामाजिक मानदंडों/रिवाज़ों का उल्लंघन करने वालों को निशाना बनाया जाता है। हालाँकि इन कृत्यों में अपराधी परंपरा को कायम रखने या अपने समुदाय की रक्षा करने का दावा कर सकते हैं, लेकिन उनके कार्य नैतिकता की घोर गलत व्याख्या और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के घोर उल्लंघन से कम नहीं हैं।

यहाँ प्रसंगवश, सबसे पहले ‘नैतिक पुलिसिंग’  की गलत धारणा की निंदा ज़रूरी है। ये कौन लोग हैं जो धर्म/मजहब या सामाजिक मानदंडों/रिवाज़ों की अपनी व्याख्या के आधार पर दूसरों की व्यक्तिगत पसंद तय करते हैं? किसी को अपना साथी चुनने का अधिकार, अपनी आस्था और अपनी जीवन शैली का अधिकार भारतीय संविधान में निहित मौलिक स्वतंत्रताओं में शामिल हैं। बिना किसी पूर्वग्रह के इन संवैधानिक अधिकारों को बनाए रखना प्रत्येक नागरिक और प्रत्येक राज्य संस्थान की ज़िम्मेदारी है। यदि ऐसी अवांछित घटनाएँ हो रही हैं तो इनके लिए सरकारों को भी आसानी से बरी नहीं किया जा सकता न?

दरअसल, इस तरह की अवांछित सतर्कता का बढ़ना कहीं न कहीं बड़ी सामाजिक बीमारी का लक्षण है। जब समुदाय कानूनी प्रणाली को दरकिनार करते हुए और उचित प्रक्रिया की उपेक्षा करते हुए, न्याय के अपने ब्रांड को लागू करने की जिम्मेदारी लेते हैं, तो कानून का शासन ही कमजोर हो जाता है। यह एक खतरनाक मिसाल है जिसके सामाजिक व्यवस्था और व्यक्तिगत सुरक्षा पर दूरगामी परिणाम हो सकते हैं।

इसमें दोराय नहीं कि अंतरधार्मिक रिश्तों को निशाना बनाने से  अपने से इतर धर्म के प्रति गहरी असहिष्णुता, घृणा और पूर्वग्रह का पता चलता है। भारत जैसे बहु-सांस्कृतिक समाज में ऐसी कट्टरता का कोई स्थान नहीं है। किसी का धर्म चुनने की स्वतंत्रता, और किसी भिन्न धर्म के व्यक्ति से प्रेम करने की स्वतंत्रता, वास्तव में समावेशी और धर्मनिरपेक्ष समाज में अंतर्निहित है। इस स्वतंत्रता को नकारना हमारे लोकतंत्र की नींव को नकारना है।

इस घटना की तेजी से जाँच करने और अपराधियों को न्याय के कटघरे में लाने की जिम्मेदारी सिर्फ पुलिस और प्रशासन पर नहीं है। नागरिक समाज, धार्मिक नेताओं और कर्नाटक के लोगों को भी सामूहिक रूप से हिंसा और असहिष्णुता के इस कृत्य की निंदा करनी चाहिए। नैतिक पुलिसिंग के लिए शून्य सहनशीलता का स्पष्ट संदेश ऐसे कृत्यों को कायम रखने वाली ताकतों को खत्म करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।


 

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर

दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा

हैदराबाद

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